सम्पादकीय

एकजुटता का अभाव: आरोप-प्रत्यारोप में उलझा राजनीतिक वर्ग को कोरोना संकट का मिलकर सामना करना चाहिए

Triveni
8 May 2021 1:34 AM GMT
एकजुटता का अभाव: आरोप-प्रत्यारोप में उलझा राजनीतिक वर्ग को कोरोना संकट का मिलकर सामना करना चाहिए
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कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के कारण देश गहन संकट में है,

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के कारण देश गहन संकट में है, लेकिन राजनीतिक वर्ग के रुख-रवैये से यह बिल्कुल नहीं लगता कि वह इस मुसीबत का मिलकर सामना करने को तैयार है। कोरोना के कहर से बचने के लिए उठाए जा रहे कदमों के बीच केंद्र और राज्यों के बीच तकरार और टकराव का सिलसिला किस तरह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, इसका नया उदाहरण है झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का यह ट्वीट कि प्रधानमंत्री से फोन पर बात की तो उन्होंने काम की बात करने या सुनने के बजाय केवल अपने मन की बात की। पता नहीं उन्होंने ऐसा क्यों कहा? कारण जो भी हो, ऐसे कथन की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यह वक्त कोरोना संक्रमण से उपजी महामारी से लड़ने का है, न कि प्रधानमंत्री से। शायद यही कारण रहा कि भाजपा नेताओं के साथ-साथ दूसरे दलों के नेताओं ने भी उन्हें नसीहत दी। दुर्भाग्य से संकट की गंभीरता की अनदेखी करने का यह इकलौता प्रसंग नहीं। क्या इसकी अनदेखी की जा सकती है कि इन दिनों राहुल गांधी केवल यह बताने में लगे हुए हैं कि प्रधानमंत्री निष्क्रिय और नाकाम हैं। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब वह केंद्र सरकार की निंदा न करते हों। जब वह ऐसा नहीं कर रहे होते तो प्रधानमंत्री पर कटाक्ष कर रहे होते हैं। मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की ललक में वह यह भी भूल जाते हैं कि उन्होंने चार दिन पहले क्या कहा था?

राहुल गांधी कभी खुद को लॉकडाउन के खिलाफ बताते हैं और कभी कहते हैं कि बिना लॉकडाउन लगाए बात नहीं बनेगी। वास्तव में जब इरादा समस्याओं के समाधान में सहभागी न बनने का हो तो फिर ऐसा ही होता है। अभी तक वह तंज भरे ट्वीट ही करते थे, अब चिट्ठी भी लिख रहे हैं। क्या चिट्ठी-पत्री और आरोप-प्रत्यारोप का यह काम बाद में नहीं किया जा सकता? समझना कठिन है कि जब केंद्र और राज्यों के बीच संवाद का सिलसिला कायम है, तब फिर सोनिया गांधी को सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग करने की क्या जरूरत पड़ गई? कई नेता तो ऐसे हैं जो कोरोना संकट से जुड़ी किसी समस्या के गहराने पर ऐसा जताते हैं, जैसे उनके मन की मुराद पूरी हुई हो। यह खेद का विषय है कि जब राजनीतिक वर्ग को एकजुट होना भी चाहिए और दिखना भी, तब वह आरोप-प्रत्यारोप में उलझा हुआ है। इससे भी अधिक खेदजनक यह है कि उच्चतर अदालतें भी सरकारों और उनके प्रशासन को सुझाव या मार्गदर्शन देने से ज्यादा उन्हें फटकारने में लगी हुई हैं। कम से कम उन्हें तो मौके की नजाकत समझनी चाहिए।


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