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By: divyahimachal
देश के उपप्रधानमंत्री रहे ताऊ देवीलाल की जयंती पर विपक्षी एकता आधी-अधूरी और सवालिया रही, लेकिन अब भी इसे 'नामुमकिन' नहीं आंका जा सकता। देवीलाल अपने राजनीतिक कालखंड के दौरान विपक्षी दलों को लामबंद करते रहे। उन्हें सफलताएं भी मिलीं। तब विरोध कांग्रेस का था, लेकिन आज प्रमुख राजनीतिक ताकत और सत्ता भाजपा की है, लिहाजा परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। देवीलाल की पार्टी इंनेलो के मौजूदा नेता अभय चौटाला का सार्वजनिक बयान है कि यदि राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन तय होता है, तो उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ साझा चुनाव लड़ सकती है। ऐसा निर्णय अकाली दल और वामपंथी दलों का भी हो सकता है। राज्यों के स्तर पर ये कांग्रेस-विरोधी दल रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री और विपक्ष को लामबंद करने की कोशिशों में जुटे नीतीश कुमार ने भी कांग्रेस को साथ लेने का आह्वान किया है।
देवीलाल के जन्मदिन की रैली के बाद नीतीश कुमार और लालू यादव ने दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात भी की है। जाहिर है कि विपक्षी एकता पर विमर्श हुआ होगा। देवीलाल के पुत्र और हरियाणा के कई बार मुख्यमंत्री रहे ओमप्रकाश चौटाला ने 25 सितंबर की रैली के लिए 10 राज्यों के 17 नेताओं को आमंत्रित किया था, लेकिन 8 नेता ही शिरकत कर पाए। मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता डा. फारूक अब्दुल्ला और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने वीडियो संदेश भेजकर अपना परोक्ष समर्थन दिया, लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और अखिलेश यादव आदि प्रमुख विपक्षी नेता रैली से गायब रहे। उन्होंने संदेश तक भी जारी नहीं किया। वे अपने-अपने राज्यों में ताकतवर नेता हैं। यदि विपक्ष में ऐसा अधूरापन जारी रहेगा, तो विपक्षी गठबंधन एक मुश्किल संभावना माना जा सकता है।
हम अब भी उसे 'नामुमकिन' करार देने के पक्ष में नहीं हैं। बेशक नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, शरद पवार, सुखबीर बादल, शिवसेना सांसद अरविंद सावंत, द्रमुक सांसद कनिमोझी और सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी आदि ने रैली में शिरकत की। यदि विपक्ष यूं ही अस्थिर और आधा-अधूरा रहा, तो वह किसी भी सूरत में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की राजनीतिक ताकत का मुकाबला नहीं कर सकता। देवीलाल जयंती के मौके पर कांग्रेस का भी कोई राष्ट्रीय चेहरा मौजूद नहीं था। बेशक पार्टी की 'भारत जोड़ो' यात्रा जारी है, लेकिन कांग्रेस में नेताओं की कमी नहीं है। यहां राजस्थान कांग्रेस का जिक़्र भी बेहद जरूरी है, क्योंकि वहां कांग्रेस विधायकों ने ही रायता फैला दिया है। चूंकि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का कांग्रेस अध्यक्ष बनना लगभग तय है, लिहाजा नया मुख्यमंत्री चुनना स्वाभाविक है। गहलोत अब भी राजस्थान से चिपके रहना चाहते हैं, लिहाजा उन्होंने सियासत की गोटियां ऐसी खेलीं कि 92 विधायकों ने इस्तीफे दे दिए। वे आलाकमान पर दबाव डालना चाहते हैं, ताकि नेतृत्व सचिन पायलट को मुख्यमंत्री न बना सके। विधायकों ने केंद्रीय पर्यवेक्षकों की बात भी नहीं सुनी।
वे पायलट-विरोधी हैं, क्योंकि वे उन्हें बगावती मानते हैं। यदि कांग्रेस में ऐसी खेमेबाजी है, तो पार्टी एकजुट कैसे रह सकती है। यह लोकतंत्र नहीं है। यदि गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले ऐसे दुराग्रह पाल सकते हैं, तो उनसे राष्ट्रीय स्तर पर न्याय, तटस्थता और पूर्वाग्रहहीनता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? यदि कांग्रेस के भीतर ही ऐसे बिखराव और खुन्नस के भाव हैं, तो विपक्षी एकता की उम्मीद संभव है क्या? राष्ट्रीय स्तर पर एक और समीकरण सामने आया है कि ममता बनर्जी नीतीश कुमार, हेमंत सोरेन, उद्धव ठाकरे, केजरीवाल, अखिलेश यादव के साथ गठबंधन को तैयार हैं, लेकिन शेष विपक्षी दलों पर उनकी कोई राय नहीं है। कांग्रेस और वामदलों को लेकर भी उन्होंने स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा है। क्या ऐसे विपक्षी महागठबंधन बनाया जा सकता है और वह प्रधानमंत्री मोदी तथा भाजपा को सत्ता के बाहर खदेड़ सकता है? हमें तो संभव नहीं लगता। मोदी को टक्कर देने के लिए संपूर्ण विपक्ष में एकता जरूरी है। ममता, केजरीवाल, नीतीश, कांग्रेस तथा अन्य सभी विपक्षी दलों का एक मंच पर आना जरूरी है।
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Rani Sahu
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