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वो क्या है, जिसने 49 साल बाद भारतीय हॉकी टीम (Indian Men Hockey Team) को सेमीफाइनल तक पहुंचाया
शैलेश चतुर्वेदी। वो क्या है, जिसने 49 साल बाद भारतीय हॉकी टीम (Indian Men Hockey Team) को सेमीफाइनल तक पहुंचाया. वो क्या है, जिसने 1980 के बाद पहली बार पुरुष टीम को ओलिंपिक पदक दिलाया. वो क्या है, जो बदला… और वो क्या है, जो नहीं बदलने के बावजूद भारतीय टीम का मेडल आया. अब ओलिंपिक खत्म हो गए हैं. सात मेडल का जश्न जारी है. लेकिन जश्न थमे और सब कुछ सामान्य हो जाए, इससे पहले उन हालात और उन वजहों पर बात कर ली जाए, जो भारतीय हॉकी के लिए टर्निंग पॉइंट रहे हैं. उन बातों को लागू कर लिया जाए, ताकि अगले ओलिंपिक मेडल में गैप न हो, मेडल का रंग अलग हो.
करीब 12 साल पहले की बात है. भारतीय हॉकी में एक तरह से पहले विदेशी कोच ने काम करना शुरू किया था. पहला इसलिए, क्योंकि रिक चार्ल्सवर्थ को काम नहीं करने दिया गया. वो बहुत कम समय रहे. वैसे भी उन्हें टेक्निकल डायरेक्टर बनाकर लाया गया था. दूसरे विदेशी कोच गेरहार्ड राख थे, जो 2004 एथेंस ओलिंपिक में टीम के साथ थे. उनके जैसे कोच भारत की हॉकी गलियों में खाली घूमते मिल जाएंगे. इसलिए एक तरह से पहले विदेशी हॉकी कोच होजे ब्रासा ने करीब 12 साल पहले काम शुरू किया था. यही वो वक्त था, जब भारत ने सीखा कि 'जान लगा दो' और ब्लैक बोर्ड पर सिखाने के अलावा भी कुछ होता है.
चार्ल्सवर्थ और ब्रासा की कही बातें हुईं सच
चार्ल्सवर्थ ने भले ही काम कम समय किया हो. लेकिन उनके पास एक रोडमैप था. चार्ल्सवर्थ जब आए थे, तब उन्होंने कहा था कि आठ से दस साल किसी टीम को टॉप पर पहुंचने में लगते हैं. उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा था, '40 साल से नीचे हैं, ऊपर आने में इतना वक्त तो लगेगा.' ब्रासा ने भी कुछ इसी तरह की बात की थी कि किसी निचले पायदान की टीम को ऊपर तक आने में या ओलिंपिक पोडियम फिनिश करने में करीब 12 साल तो लगेंगे. दिलचस्प है कि ठीक 12 साल में भारतीय हॉकी ओलिंपिक पोडियम पर है. इन दोनों ने इसके लिए प्रोसेस की बात की थी. हालांकि जिस तरह का प्रोफेशनल प्रोसेस चाहिए, वो नहीं हुआ. जरूरत से ज्यादा कोच बदले गए. टूर्नामेंट से ठीक पहले नए कोच को लाया गया. उसके बावजूद जो 12 साल पहले एक शुरुआत हुई थी, उसे ग्राहम रीड की टीम ने अंजाम तक पहुंचाया.
सवाल फिर आता है कि इन 12 सालों में ऐसा क्या हुआ, जो पिछले 40 में नहीं हुआ था. हर कोच सिस्टम की बात करता था कि भारतीय हॉकी में नहीं है. लेकिन दुनिया के सारे कोच भारतीय हॉकी से जुड़ना चाहते थे. हॉकी इंडिया लीग तो बाद में आया, जिसके साथ पैसे और ग्लैमर की चमक-दमक थी. लेकिन विदेशी कोचेज को भारतीय हॉकी हमेशा से आकर्षित करती थी और उन्हें पता था कि एक समय दुनिया पर राज करने वाली टीम को फिर से टॉप पर पहुंचाने से बड़ा अचीवमेंट और कोई नहीं है.
होसे ब्रासा के आने के साथ भारतीय हॉकी में कुछ बुनियादी बदलाव आने लगे, जो मॉडर्न हॉकी के अनुसार टीम को ढालने का आधार बने.
12 साल पहले यूं शुरू हुआ सफर
अब समझते हैं कि हुआ क्या. करीब 12 साल पहले ब्रासा आए. उन्होंने कुछ इक्विपमेंट की मांग की. उन्हें शायद उम्मीद थी कि यूरोपियन देशों की तरह कोच को बड़ी आसानी से इक्विपमेंट मिल जाएंगे. तब उन्हें समझ आया कि भारत में काम करना क्या होता है. बहुत से ऐसे लोगों को उन इक्विपमेंट के बारे में पता नहीं था, जिन्हें अप्रूवल की फाइल आगे सरकानी थी. बहुत सी ऐसी चीजें थीं, जिनसे भारतीय परिचित थे, लेकिन भारतीय हॉकी में इस्तेमाल नहीं होती थी.
ऐसा नहीं है कि भारतीय हॉकी में मॉडर्न कोच नहीं हैं. लेकिन जिन भारतीय कोच ने खेल सुधारने पर ध्यान दिया, उन्होंने खेल पर ध्यान दिया और 'बॉसेज' को नाराज कर दिया. जिन्होंने बॉस को खुश रखा, उनके पास मैदान पर सुधार के लिए कुछ था नहीं. इस लिहाज से होजे ब्रासा अलग अप्रोच के साथ दिखाई दिए.
भारतीय हॉकी में बहुत कुछ पहली बार हुआ. जीपीएस, हार्ट रेट मशीन, हर स्टेज पर खिलाड़ियों के मूवमेंट को नापने वाली मशीनें वगैरह. आसान भाषा में अगर ट्रेनर कह लें, तो ऐसे एक व्यक्ति को लाया गया, जिनका नाम था हेसू गार्सिया पयारेस. वह ह्यूमन परफॉर्मेंस एनालिस्ट थे. हर छोटी बड़ी चीजों को चेक किया जाने लगा. यहां तक कि इसे भी कि टर्फ पर पानी डालने के लिए जो स्प्रिंक्लर लगे हैं, उनका एंगल गलत तो नहीं.
मुश्किलें यह थी कि यूरोपियन कोच की तरह उनके पास वो सब तैयार नहीं था. यहां सब कुछ खुद करना था, जो ब्रासा को पता नहीं था. पहले दिन कैंप नहीं शुरू हो पाया. ब्रासा का पहला कैंप पुणे में था, जिसे कवर करने गए एक सीनियर पत्रकार से कहा कि हमारी कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी ढाई घंटे पीछे हो गई. वो वक्त जो किसी कैंप में एक समय बिताया जाता है.
आसान नहीं था बदलाव का दौर
सिर्फ 'सरकारी' अंदाज में काम करने वालों के लिए ही नहीं, खिलाड़ियों के लिए भी बदलाव आसान नहीं था. उन्हें इन सबकी आदत नहीं थी. शरीर पर स्टैप फिट करके दौड़ना उन्हें समझ नहीं आता था. एक खिलाड़ी ने तब कहा था, 'पता नहीं, कुछ ब्रा जैसा पहना देते हैं.' सीनियर खिलाड़ियों को बताया गया कि हॉकी स्टिक पर उनकी ग्रिप ठीक नहीं है. उन्हें बताया गया कि जो खाना वो खाते हैं, वो ठीक नहीं है. दाल, रोटी, चावल जैसी चीजें बंद हो गईं. खिलाड़ी नाराज थे. लेकिन कुछ महीनों में बदलाव दिखा, तो समझ आया कि दुनिया बदल रही है.
भारतीय टीम के लिए इंग्लिश क्लासेज शुरू की गईं. हर खिलाड़ी को कंप्यूटर दिया गया. जिन्हें कंप्यूटर पर काम करना नहीं आता था, उन्हें सिखाया गया. ब्रासा के मुताबिक, 'you need deemag to play hockey (हॉकी खेलने के लिए दिमाग की जरूरत है).'
आपको आज लगे कि इसमें क्या है, जो खास है? यह काम चार्ल्सवर्थ भी करना चाहते थे. यह ओल्टमंस भी करना चाहते थे. भारतीयों में तब हरेंद्र सिंह टीम के साथ जुड़े थे. वह भी यह काम करना चाहते थे. आखिरकार ब्रासा के समय बेसिक्स पर काम शुरू हुआ, जिसकी नींव पर 12 साल में ओलिंपिक पदक की इमारत खड़ी दिखती है.
भारतीय हॉकी का एक दौर था, जब टीम की दुनिया गुड़गांव के एक लॉज से लेकर नेशनल स्टेडियम और नेहरू स्टेडियम तक सिमटी थी. उस लॉज का नाम लिखना शायद ठीक नहीं. नेशनल कैंप के लिए हॉकी टीम उसमें रुका करती थी. खिलाड़ी डरते थे, साथ में मजाक भी उड़ाते थे, 'पुलिस आ जाती है कभी भी. शेडी है. डर लगता है कि कभी हमसे पूछताछ न करने लगें.' कैंप दिल्ली में होता था, तो नेहरू स्टेडियम के सीलन भरे कमरे या करोल बाग के किसी छोटे से होटल में टीम रुका करती थी. खाने के लिए खिलाड़ी कोई फास्टफूड जॉइंट ढूंढा करते थे.
नहीं टिक सके ब्रासा, लेकिन बुनियाद तैयार कर गए
भारतीय कोच के लिहाज से देखें, तो मॉडर्न हॉकी सीखने और टीम तक पहुंचाने के लिए शिद्दत से लगे हरेंद्र सिंह थे. कुछ समय के लिए अजय कुमार बंसल थे, जिनके साथ टीम को अच्छे नतीजे मिले. लेकिन सब कुछ शॉर्ट टर्म था. भारतीय हॉकी को लॉन्ग टर्म सॉल्यूशन की तलाश थी, जिसमें कोच के साथ वो साइंटिफिक इक्विपमेंट का होना जरूरी था, जिन्हें मांगकर भारतीय कोच बर्खास्त ही हो सकता था.
विदेशी कोच के साथ भारतीय हॉकी का परिचय एमएवी टेस्ट, हार्ट रेट मॉनिटर्स, लैक्टिक एसिडोसिस एनालाइजर, लीनियर एनकोडर जैसे शब्दों से हुआ. ब्रासा बहुत समय नहीं रहे. 2010 में वर्ल्ड कप से ठीक पहले खिलाड़ियों ने पुणे में स्ट्राइक की. ब्रासा खिलाड़ियों के साथ थे. जाहिर है, यह बात किसी को पसंद नहीं आएगी कि उनके 'मुलाजिम' ऐसी हरकतें करें. इसके अलावा, ब्रासा की मांगें बहुत ज्यादा थीं. साई और हॉकी इंडिया के अधिकारियों के मुताबिक, 'हर समय कुछ न कुछ मांगता रहता है.' ब्रासा के पास इसका जवाब यह था कि भारतीय हॉकी की ट्रेनिंग में मॉडर्न टेक्निक के लिए तमाम तरह की मशीनें चाहिए. उनके बिना मॉडर्न हॉकी में टिका नहीं जा सकता. खैर, ब्रासा नहीं टिक सके, लेकिन एक ऐसा प्लेटफॉर्म बन गया, जिसमें कम से कम कुछ बेसिक चीजें आने वाले कोच के पास थीं.
लगातार बदलते रहे कोच
कुछ अच्छे कोच आए, कुछ कमजोर. लेकिन अच्छी बात रही कि बदलाव के बीच भी बेसिक सिस्टम जारी रहा. माइकल नॉब्स के साथ भारत ओलिंपिक में 12वें नंबर पर रहा. लेकिन उस दौर के ट्रेनर डेविड जॉन टीम को वर्ल्ड क्लास फिटनेस तक पहुंचाने में कामयाब हुए. टेरी वॉल्श और पॉल वान आस बेहद दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से बाहर हुए. 2013 से हाई परफॉर्मेंस डायरेक्टर रहे रोलंट ओल्टमंस कोच बने. दुर्भाग्य के बीच अच्छी बात यही रही कि ओल्टमंस उस सिस्टम के साथ थे, जिसमें भारतीय हॉकी खेल रही थी. यानी कुछ बदलाव की जरूरत नहीं पड़ी. इसी बीच 2016 रियो ओलिंपिक आया और भारत ने आठवां स्थान पाया. यानी 2008 में क्वालिफाई न करने और 2012 में 12वें नंबर पर रहने के बाद आठवां स्थान.
ग्राहम रीड ने टीम को उस मुकाम तक पहुंचाया जिसकी तैयारी और भविष्यवाणी 12 साल पहले की गई थी.
ग्राहम रीड और हरेंद्र सिंह की मिली-जुली मेहनत से मिला पोडियम
ओल्टमंस को भी हटाने का फैसला किया गया, तो साई के साथ विदेशी कोच को लेकर टकराव हुआ. इसी वजह से महिला हॉकी में अच्छा काम कर रहे श्योर्ड मारिन को लाया गया, जो पुरुष हॉकी में फेल हुए. फिर हरेंद्र सिंह आए. बदलाव जारी रहे. 2019 के अप्रैल में ग्राहम रीड आए. उनके पास महज एक साल था ओलिंपिक में भारतीय टीम को पोडियम तक पहुंचाने के लिए. दुनिया भर के लिए कोविड महामारी मुसीबत बना रहा, लेकिन भारतीय हॉकी को उसने तैयारी का एक साल दिया. शायद वो एक साल बेहद अहम साबित हुआ, जो ओलिंपिक टलने से भारत को मिला. रीड के लिए अपनी योजनाओं को लागू कर पाना संभव हुआ. …और आखिर भारत पोडियम तक पहुंचा. भले ही उस तरीके से नहीं, जैसा ब्रासा या दूसरे कोच चाहते थे. लेकिन 12 साल में ही पहुंचा.
भारत की इस जीत में 2016 के जूनियर वर्ल्ड कप का भी योगदान रहा, जो लखनऊ में हुआ था. कोच हरेंद्र सिंह की चैंपियन टीम के आठ खिलाड़ी टोक्यो गई टीम का हिस्सा थे. भारतीय कोच में हरेंद्र ऐसे शख्स हैं, जिनके जूनियर या सीनियर टीम के साथ रहने की वजह से उस 'प्रोसेस' को आगे बढाने में बहुत मदद मिली, जो भारत को पोडियम पर पहुंचा पाई. इन 12 सालों में तेजी से बदलाव हुए. दुनिया भर में कोच के लिए चार साल का साइकल होता है, इसे नहीं अपनाया गया. लेकिन खाने से लेकर मॉडर्न इक्विपमेंट और खिलाड़ियों की सोच से लेकर मॉडर्न कोचिंग तक जो लागू हुआ, उसने टीम को पोडियम तक पहुंचाया.
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