सम्पादकीय

कुरुक्षेत्र: भाजपा की राह में नीतीश रोड़ा, तो सुशासन बाबू के रास्ते में ममता व केजरीवाल हैं अड़चन

Rounak Dey
21 Aug 2022 2:06 AM GMT
कुरुक्षेत्र: भाजपा की राह में नीतीश रोड़ा, तो सुशासन बाबू के रास्ते में ममता व केजरीवाल हैं अड़चन
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शाह नड्डा के नेतृत्व में भाजपा ने अगले लोकसभा चुनावों की तैयारी में उन्हें खासा पीछे छोड़ दिया है।

राजनीति के कुरुक्षेत्र में हर छोटी-बड़ी घटना का महत्व होता है और उनके नतीजे दूरगामी होते हैं। बिहार में अचानक जो राजनीतिक घटनाक्रम हुआ है उसने इस धारणा को कमजोर कर दिया है कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए विपक्ष की तरफ से कोई चुनौती नहीं है। अचानक विपक्षी दलों में जान आ गई है और राजनीतिक विमर्श में नीतीश कुमार को मोदी के मुकाबले विपक्ष का चेहरा देखा जाने लगा है। इस घटना से अति उत्साहित हो रहे भाजपा विरोधी राजनीतिक विश्लेषकों ने तो नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनने और अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा और नरेंद्र मोदी की विदाई के सपने देखने भी शुरू कर दिए हैं। लेकिन इस अति आशावाद के सामने अभी अनेक चुनौतियां हैं और अगर नीतीश कुमार को मोदी को चुनौती देनी है, तो उन्हें उन तमाम उलझनों को सुलझाना होगा, जो अब आने वाले दिनों में उनके सामने आने वाली हैं। उधर जिस तरह पार्थ चटर्जी प्रकरण के बाद ममता बनर्जी भाजपा और मोदी को लेकर नरम हुई हैं, और दिल्ली में शराब नीति को लेकर पड़े सीबीआई छापों के बाद अरविंद केजरीवाल 2024 में नरेंद्र मोदी के मुकाबले खुद को घोषित कर रहे हैं, उससे विपक्षी जमात में भ्रम और बढ़ रहा है।




नीतीश कुमार को सबसे पहले 2024 लोकसभा चुनावों तक बिहार में महागठबंधन और उसकी सरकार को न सिर्फ एकजुट बनाए रखना होगा, बल्कि अपने कामकाज से उन तमाम आरोपों और आशंकाओं को भी गलत साबित करना होगा, जो विरोधियों खासकर भाजपा द्वारा लगाए जा रहे हैं। इसके साथ ही उन्हें कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने और उनके बीच अपनी स्वीकार्यता बनाने के लिए दोनों मोर्चों पर काम करना होगा। जहां कांग्रेस अभी राहुल गांधी से आगे सोचने को तैयार नहीं दिखती, वहीं ममता बनर्जी को साधना भी एक बड़ी चुनौती हो सकती है। शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, स्टालिन, चंद्रशेखर राव, और वामदलों के साथ-साथ नवीन पटनायक, जगन मोहन रेड्डी, चंद्रबाबू नायडू और मायावती को क्या नीतीश कुमार किसी बड़े विपक्षी मोर्चे का हिस्सा बना सकेंगे। यह एक बड़ा सवाल है। अगर नीतीश कुमार इन सब चुनौतियों से निपट सकते हैं तो निश्चित रूप से वह 2024 में भाजपा के सामने एक चुनौती पेश कर सकेंगे। इसके लिए उन्हें अपने सियासी कौशल और उदार मन से काम लेना होगा और केसी त्यागी जैसे अपने किसी पुराने सिपहसालार को दिल्ली में राजनीतिक मेल मिलाप की जिम्मेदारी देनी होगी।


नीतीश कुमार इस दिशा में कितना आगे बढ़ेंगे, ये समय बतायेगा लेकिन भाजपा और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के घटनाक्रम को हल्के में न लेते हुए इससे होने वाले संभावित सियासी नुकसान की भरपाई के इंतजाम शुरु कर दिए हैं। साथ ही पार्टी के भीतर भी मोदी-शाह के लिए रंच मात्र भी चुनौती बनने या बनने का सपना देखने वालों के पर भी कतरे जाने लगे हैं। पार्टी की नीति निर्णायक संस्था संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति से पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बाहर करना, महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस को शामिल करना और उत्तर प्रदेश के कद्दावर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इन दोनों में जगह न मिलना इसका साफ संकेत है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आप सहमत हों या असहमत, उन्हें पसंद करें या नापसंद करें, लेकिन एक बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि वह हमेशा आगे की और दूर की सोचते हैं। जब देश के दूसरे राजनेता और अन्य दलों के शीर्ष नेता वर्तमान में जीते हैं और उसी हिसाब से अपने फैसले लेते हैं तब नरेंद्र मोदी वर्तमान की नींव पर भविष्य की इमारत का नक्शा बना रहे होते हैं। उनके सारे राजनीतिक फैसले 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की अपनी सीटें 350 से पार और एनडीए की सीटें 400 पार के लक्ष्य को लेकर हो रहे हैं। अगले लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी के सिपहसालार गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ये नारा दे सकते हैं अबकी बार चार सौ पार।

चाहे राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति की उम्मीदवारी का फैसला हो या राज्यसभा के लिए राष्ट्रपति द्वारा चार सदस्यों का नामांकन, ये सारे निर्णय 2024 के आम चुनावों के मद्देनजर ही लिए गए हैं। जबकि विपक्ष के पास 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर न कोई स्पष्ट नीति है न नेता और न ही रणनीति।

जबसे नरेंद्र मोदी केंद्रीय राजनीति में आए भाजपा ने लगातार 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी शानदार जीत दर्ज की और कई उन राज्यों में भी अपनी सरकारें बनाईं, जहां कभी उसकी पहुंच तक नहीं थी। कई राज्यों में भाजपा ने भले ही सरकार न बनाई हो लेकिन अपनी उपस्थिति भी दर्ज कराई है। पिछले दोनों लोकसभा चुनावों के नतीजों ने उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों और पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा की जीत का परचम लहराया है। उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, गोवा तो 2014 में ही भाजपा के झंडे के नीचे आ गए थे। 2019 में प. बंगाल, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में भी भाजपा ने खासी सेंधमारी करके अपने विरोधी दलों को झटका दिया और अपनी खुद की 303 सीटें जीतकर अपने चुनावी नारे अबकी बार तीन सौ पार को सच कर दिखाया।

हालांकि अभी लोकसभा चुनावों में करीब पौने दो साल का वक्त है और उसके पहले इस साल गुजरात, हिमाचल प्रदेश, फिर अगले साल कर्नाटक, त्रिपुरा, मेघालय, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभा के चुनाव हैं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निगाह सीधे 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की अपनी सीटें बढ़ाने और विपक्ष को ज्यादा से ज्यादा नीचे समेटने पर है। इसके लिए उन्होंने बिसात बिछा दी है। प्रधानमंत्री के रणनीतिकार और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में इस पर पूरा मंथन हो चुका है कि अब पार्टी का विस्तार कहां और कैसे करना है।

इस गणना के मुताबिक सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 2019 में कुल 80 में से अकेले 62 सीटें जीती थीं, जबकि 2014 में भाजपा की अपनी सीटें 71 थीं। 2022 के विधानसभा चुनावों में भले ही भाजपा ने 2017 में जीती अपनी 312 सीटों के मुकाबले इस बार 57 सीटें कम जीती हों, लेकिन लगातार दूसरी बार राज्य में सरकार बनाने का 37 साल पुराने रिकार्ड की बराबरी करके पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हैं। वैसे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चुन कर आते हैं, इसलिए भाजपा को पूरा भरोसा है कि इस समय राज्य के जो राजनीतिक हालात हैं, उसमें कांग्रेस और बसपा पूरी तरह ध्वस्त हैं और विधानसभा चुनावों में पिछले चुनाव के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन के बावजूद समाजवादी पार्टी का सत्ता से वंचित रह जाना भाजपा के लिए शुभ संकेत है। फिर आजमगढ़ और रामपुर के लोकसभा उपचुनावों में सपा की हार को भी भाजपा अपने लिए एक संकेत मान रही है। इन सब बातों के मद्देनजर भाजपा के रणनीतिकारों की कोशिश है कि 2024 में उत्तर प्रदेश की अस्सी में से कम से कम 75 सीटें भाजपा अपने खाते में कर सकती है। पार्टी का लक्ष्य इस बड़े राज्य में अकेले भाजपा की सीटों में कम से कम दस सीटों का इजाफा करने का है।

हिंदी पट्टी के दूसरे बड़े राज्य बिहार में चालीस सीटे हैं। यहां भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा, जनता दल(यू) और लोक जनशक्ति पार्टी के गठबंधन ने चालीस में 39 सीटें जीती थीं, जिनमें भाजपा की अकेले 17 सीटें थीं। पिछली बार भाजपा ने जद(यू) को काफी ज्यादा सीटें लड़ने के लिए दी थीं, जबकि इस बार 2020 के विधानसभा चुनावों के नतीजों के हिसाब से भाजपा अपनी ये हिस्सेदारी बढ़ाएगी। वैसे भी रामविलास पासवान के निधन और लोजपा में टूट के बाद अब लोजपा भी सीटों के बंटवारे में भाजपा की दया पर ही निर्भर रहेगी। इसलिए भाजपा की कोशिश बिहार में इस बार अकेले अपनी सीटें 20 से ज्यादा जीतने की होगी। 2019 में भाजपा ने अकेले मध्यप्रदेश की 29 में से 28, राजस्थान की 25 में से 24 (एक सीट भाजपा के सहयोगी दल राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के बेनीवाल ने जीती है), गुजरात की 26 में 26, छत्तीसगढ़ की 11 में नौ, झारखंड की 14 में 11, उत्तराखंड की सभी पांच, हिमाचल प्रदेश की सभी चार, दिल्ली की सभी सात, हरियाणा की सभी दस और पंजाब की 13 में से दो सीटें जीती थीं। अब भाजपा की कोशिश मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड में अपनी पुरानी कामयाबी बरकरार रखने, छत्तीसगढ़ में सभी 11 सीटें जीतने और पंजाब में अपनी सीटों की संख्या दो से बढ़ाकर कम से कम पांच-छह तक करने की है। हालांकि पंजाब में भाजपा को कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल से भी ज्यादा सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की कड़ी चुनौती का सामना करना होगा। लेकिन जिस तरह गुरदासपुर के उपचुनाव में निर्दलीय सिमरनजीत सिंह मान के मुकाबले आम आदमी पार्टी चुनाव हार गई, उससे भाजपा की उम्मीदें पंजाब में बढ़ी हैं। पार्टी ने इसके लिए अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी है। कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे बलराम जाखड़ के बेटे और प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष पूर्व सांसद सुनील जाखड़ को भाजपा में शामिल करवाने से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की लोक पंजाब कांग्रेस के भाजपा में विलय के जरिए भाजपा पंजाब में अपने लिए नई संभावनाएं बनाने की पूरी कोशिश कर रही है।

अन्य राज्यों में पिछले लोकसभा चुनावों में पूर्वोत्तर में असम में भाजपा ने कुल 14 में से नौ, अरुणाचल में दो, मेघालय मे दो, नगालैंड में एक, त्रिपुरा में दो, मिजोरम में एक सिक्किम में दो सीटों में एक सीट जीती है। पूर्वोत्तर में भाजपा की कोशिश असम में भी अपनी सीटें बढ़ाने की होगी। जबकि प. बंगाल में भाजपा ने आशातीत सफलता पाते हुए राज्य की 42 सीटों में से 18 सीटों पर जीत पाई और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 23 सीटों पर समेट दिया। लेकिन 2021 के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद इस पूर्वी राज्य में भाजपा की चुनौती सबसे कठिन है और यह अकेला राज्य है जहां भाजपा की सीटें कम हो सकती हैं। एक अन्य राज्य महाराष्ट्र, जहां लोकसभा की 48 सीटें हैं, वहां पिछली बार शिवसेना के साथ गठबंधन करके भाजपा ने अकेले 23 सीटें जीती थीं। लेकिन विधानसभा चुनावों के बाद शिवसेना के कांग्रेस और एनसीपी के साथ चले जाने से भाजपा के लिए इस बड़े राज्य में महाविकास अघाड़ी की कठिन चुनौती खड़ी हो गई थी। परंतु हाल ही में जिस तरह शिवसेना में बगावत के बाद एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में भाजपा ने शिवसेना के शिंदे गुट के साथ गठबंधन सरकार बनाई है उससे अघाड़ी का किला छिन्न-भिन्न हो गया है और भाजपा के लिए 2024 पिछली बार की ही तरह आसान हो गया है। भाजपा की कोशिश यहां भी कम से कम 25 से तीस सीटें जीतने की होगी। इनके अलावा अन्य छोटे राज्यों में चंडीगढ़ की एक,दमन और दीव की एक, अंडमान निकोबार की एक, दादर नगर हवेली की एक, लक्षद्वीप की एक, पुद्दुचेरी की एक गोवा में एक सीट, जम्मू-कश्मीर में तीन सीटें पिछली बार भाजपा ने जीती थीं। उसकी कोशिश इन्हें बरकरार रखने की है। उड़ीसा में पिछले चुनाव में भाजपा ने कुल 21 में से आठ सीटें जीती थीं, जबकि सत्ताधारी बीजू जनता दल की सीटें 17 से घटकर 13 रह गईं। भाजपा की कोशिश इस बार उड़ीसा में कम से कम 15 से 16 सीटें जीतने की है।

दक्षिण भारत में कर्नाटक अकेला राज्य है जहां भाजपा सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें जीत रही है। 2019 में यहां की 28 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने अकेले 25 सीटें जीती थीं और भाजपा समर्थित निर्दलीय को एक सीट पर जीत मिली थी। भाजपा की वहां सरकार है और पार्टी अपनी इस संख्या को हर हाल में बनाए रखने की जी तोड़ कोशिश करेगी। लेकिन तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भाजपा अभी अपना परचम नहीं लहरा पाई है। पिछली बार तेलंगाना की 14 सीटों में भाजपा ने सिर्फ चार सीटें जीतीं। जबकि केरल आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में वह एक भी सीट जीत नहीं सकी। इसलिए भाजपा का पूरा ध्यान दक्षिण भारत के इन चारों राज्यों पर है, जहां की करीब 97 सीटों पर गैर भाजपा क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व है। पार्टी यहां अकेले कम से कम 25 सीटें जीत कर अपनी कुल सीटों में इजाफा करना चाहती है।

अपने इस लक्ष्य को पाने के लिए भाजपा हर तरह की तैयारी में जुट गई है। बिहार में नीतीश कुमार के अलग हो जाने के बाद एक तरफ तो पार्टी पूरी तरह से महागठबंधन की सरकार पर हमलावर है और उसे अस्थिर करने की हर कोशिश करेगी। वहीं दूसरी तरफ भाजपा बिहार में गैर-यादव पिछड़ों और दलितों को अपने साथ बनाए रखने के लिए कुछ नए लोगों को भी अपने साथ जोड़ सकती है। जद(यू) से बाहर हुए आरसीपी सिंह और अजय आलोक जैसे नेताओं की अगली मंजिल भाजपा ही है। माना ये भी जा रहा है कि देर-सबेर चिराग पासवान को भी भाजपा अपने साथ ले सकती है। इसके लिए अगर जरूरी हुआ तो पार्टी पासवान परिवार में सुलह भी करा सकती है। साथ ही अपने दोनों पूर्व उपमुख्यमंत्रियों को आगे करके और महागठबंधन में दरार डलवा कर अति पिछड़ों और दलितों में सेंध लगाने का प्रयास करेगी।

इसी तरह उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विशेष ध्यान दे रहे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दबदबे को नियंत्रित रखने के लिए दोनों उपमुख्यमंत्रियों केशव प्रसाद मौर्य और बृजेश पाठक की हौसला अफजाई लगातार की जा रही है। इन दोनों के जल्दी-जल्दी दिल्ली के चक्कर इसका स्पष्ट संकेत हैं। योगी के निकट माने-जाने वाले स्वतंत्र देव सिंह से विधान परिषद में सदन के नेता पद से इस्तीफा दिलाकर केशव प्रसाद मौर्य को यह जिम्मेदारी देने से भी यही संकेत हैं। माना जा रहा है कि मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी फिर दी जा सकती है या फिर किसी दलित को कमान देकर बसपा के वोटों में सेंधमारी की कोशिश हो सकती है। इसके साथ ही 2024 के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी का चुनावी एजेंडा भी लगभग तय कर दिया है। स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने संबोधन में उन्होंने जिस तरह परिवारवाद और भ्रष्टाचार पर हमला बोला, उससे साफ है कि उनका निशाना कांग्रेस के साथ साथ उन सभी विपक्षी दलों पर है, जिनका नेतृत्व परिवारों के पास है और जिनके नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। हाल ही में दिल्ली में उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया के घर और दफ्तर पर पड़े सीबीआई छापों और आबकारी नीति को लेकर जिस तरह भाजपा हमलावर हुई है, उससे आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के कट्टर ईमानदार वाले ब्रांड को भी खत्म करने की तैयारी माना जा सकता है। प. बंगाल में ममता बनर्जी को काबू करने के लिए तृणमूल नेता पार्थ चटर्जी के घर छापे और उनके करीबियों के घर में बरामद करोड़ों रुपये के बाद चटर्जी और उनकी सहयोगी महिला की गिरफ्तारी ने तृणमूल कांग्रेस को भी बचाव की मुद्रा में ला दिया है। इसके अलावा संघ परिवार के हिंदुत्व का मुद्दा हमेशा की तरह लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को अतिरिक्त लाभ देने के लिए उठेगा। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के मौके पर घर-घर तिरंगा अभियान ने प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के राष्ट्रवादी एजेंडे को भी आगे बढ़ाया है। कुल मिलाकर जहां विपक्षी दल अभी अपने दलों की आंतरिक चुनौतियों से निपटने में ही जुटे हैं मोदी-शाह नड्डा के नेतृत्व में भाजपा ने अगले लोकसभा चुनावों की तैयारी में उन्हें खासा पीछे छोड़ दिया है।

सोर्स: अमर उजाला

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