सम्पादकीय

कृष्ण जन्माष्टमी विशेष: राजनीति के आदर्श-प्रतिमान हैं श्रीकृष्ण, वह जगद्गुरु हैं

Rounak Dey
20 Aug 2022 1:46 AM GMT
कृष्ण जन्माष्टमी विशेष: राजनीति के आदर्श-प्रतिमान हैं श्रीकृष्ण, वह जगद्गुरु हैं
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अपनी प्रतिज्ञा के प्रति अतिरिक्त आसक्ति उन्हें असफल राजपुरुष बनाकर शरशय्या पर लिटा देती है।

'महाभारत' के 'सभापर्व' में राजनीतिक व्यक्ति (राजा) में 6 गुण (व्याख्यान शक्ति, प्रगल्भता, तर्ककुशलता, नीतिगत निपुणता, अतीत की स्मृति और भविष्य के प्रति दृष्टि अर्थात् दूरदर्शिता) आवश्यक माने गए हैं। जो राजा इन 6 गुणों से युक्त होता है, उसकी राजनीति ही सुफलवती बनती है। महाभारत कालीन राजनीति में राजनीति की उपर्युक्त समस्त अर्हताएं श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी महावीर अथवा महापुरुष में नहीं हैं। पितामह भीष्म में दृढ़ता है, वीरता है, अद्भुत प्रतिज्ञा-प्रियता है किन्तु नीतिगत निपुणता का अभाव है। अपनी प्रतिज्ञा के प्रति अतिरिक्त आसक्ति उन्हें असफल राजपुरुष बनाकर शरशय्या पर लिटा देती है।




महात्मा विदुर में प्रगल्भता (अवसर के अनुसार कार्य करने की सामर्थ्य) का अभाव है। वे पूर्व निरूपित नीतियों के आलोक में निर्णय देने के अभ्यासी हैं। सत्यवादी युधिष्ठिर में व्याख्यान शक्ति, प्रगल्भता, तार्किकता, नीति निपुणता और दूरदर्शिता का नितांत अभाव है।


गुरु द्रोण, कृपाचार्य आदि अन्य राजपुरुष भी राजनीति की उपर्युक्त 6 अर्हताओं की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। केवल श्रीकृष्ण ही उस युग के एकमात्र ऐसे राजनीतिज्ञ हैं, जिनमें राजोचित 6 गुणों की संव्याप्ति उनके कर्मगत धरातल पर सर्वत्र दिखाई देती है इसीलिए वे जगद्गुरु हैं। अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना में सफल हैं।
श्रीकृष्ण की व्याख्यान-कला अलौकिक

'श्रीमद्भगवद गीता' श्रीकृष्ण की व्याख्यान-शक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है। कर्तव्य-पालन से विमुख मोहग्रस्त पुरुषार्थ को पुनः कर्म-पथ पर नियोजित करना कोई हंसी का खेल नहीं है। यह श्रीकृष्ण की व्याख्यान-कला ही है, जो किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को पुनः कर्तव्य का बोध देकर उन्हें समरभूमि में उतारती है। उनकी इसी व्याख्यान-शक्ति में उनकी तार्किकता के भी दर्शन होते हैं।
नीति-निपुणता श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण पक्ष है। वे किसी पूर्व निश्चित बंधी-बंधाई नीति का अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि लोक कल्याण की दृष्टि से अपना नीति-पथ स्वयं निर्मित करते हैं। उनके इस क्रांतिकारी रूप का दर्शन उनके प्रारंभिक जीवन में ही होने लगता है। गोकुल के माखन की मथुरा में आपूर्ति रोकना, इंद्र की पारंपरिक पूजा के स्थान पर प्राकृतिक वरदान रूप गोवर्धन पर्वत की पूजा कराना आदि कार्य उनकी नीति-निपुणता के परिचायक हैं।


जब राजा विराट की सभा में हुए निर्णय के अनुसार वे पांडवों के राजदूत बनकर हस्तिनापुर आते हैं, तब दुर्योधन उन्हें राज्य अतिथि बनाकर अपनी ओर कर लेना चाहता है, किंतु वे उसका आतिथ्य अस्वीकार कर विदुर की कुटिया में साधारण अन्न ग्रहण करते हैं। राजनीतिक जीवन से जुड़े व्यक्ति की यह नीति-निपुणता उसकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता के संरक्षण का उत्तम उपकरण बनती है।
भूतकाल की स्मृति और भविष्य पर दृष्टि रखने में कृष्ण अद्वितीय हैं। अत्याचारी सत्ता अपने हितों के संरक्षण और स्थायित्व के लिए किस सीमा तक पतित हो सकती है, निर्दोष प्रतिपक्ष को कहां तक प्रताड़ित कर सकती है- इसका व्यावहारिक ज्ञान कंस के अत्याचारों की अतीतकालीन स्मृति के रूप में कृष्ण के मन पटल पर भलीभांति अंकित है, इसीलिए पांडवों के साथ किए गए कौरवों के अत्याचारों और अन्यायों पर उन्हें आश्चर्य नहीं होता है।

अतीत की यह कड़वी तीखी स्मृतियां उन्हें यह भी सिखाती हैं कि अत्याचारी सत्ता किसी भी सत्याग्रह को नहीं मानती। उसका अहंकार सहनशीलता से नहीं पिघलता, वह विनम्रता को कायरता समझती है और उसका उपहास करती है। इसलिए श्रीकृष्ण आततायी के हृदय-परिवर्तन की किसी भी कोमल-कल्पना से भ्रमित नहीं होते और उसका समूल नाश करने के लिए सतत सन्नद्ध मिलते हैं।

वे जानते हैं कि अतीत के जीर्णशीर्ण खंडहरों पर भविष्य के सौ शिखरों की नींव नहीं रखी जा सकती है। उन्हें ढहाए बिना, भूमि को समतल किए बिना नए निर्माण का स्वप्न साकार नहीं किया जा सकता है। पुराने भ्रान्त-सिद्धांतों के संकेत नए सृजन-पथ के निर्देश नहीं बन सकते, अतः उनका परिहार-निवारण अपरिहार्य है। भविष्य की यही भ्रम रहित दूरदृष्टि उनसे समस्त कौरव पक्ष सहित भीष्म-द्रोण जैसे सांस्कृतिक स्तम्भों का भी ध्वंस कराती है।

राजनीति का मूल मंत्र सिखाते हैं कृष्ण

नए निर्माण के पथ में आने वाले प्रत्येक अवरोध को, चाहे वह कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो, हटाना ही होगा। यही श्रीकृष्ण की राजनीति का मूल मंत्र है। कंस से लेकर जरासंध और दुर्योधन से लेकर कर्ण-भीष्म तक समस्त राजपुरुषों को धराशायी करने-कराने में कृष्ण कहीं भी ममता और मोह से ग्रस्त नहीं हुए हैं, इसलिए वे सफल हैं।

प्रगल्भता अर्थात प्रत्युत्पन्नमतित्व श्रीकृष्ण की सर्वाधिक प्रखर शक्ति है। गोकुल में कंस द्वारा प्रेषित संहारक आसुरी शक्तियों के विनाश में उनकी प्रगल्भता का महान योगदान है। महाभारत का युद्ध वे बिना शस्त्र उठाए प्रगल्भता के बल पर ही जिता देते हैं। इंद्र द्वारा कर्ण को प्रदत्त महासंहारक एकघ्नी का घटोत्कच पर प्रहार कराना, धरती में धंसेरथ-चक्र को निकालने में व्यस्त कर्ण का वध करने के लिए अर्जुन को प्रेरित करना, गदा युद्धरत दुर्योधन की जंघा पर प्रहार हेतु भीम को उनकी प्रतिज्ञा संकेत द्वारा याद दिलाना आदि अनेक महत्वपूर्ण कार्य श्रीकृष्ण की प्रगल्भता से ही संभव हुए हैं, इसीलिए श्रीकृष्ण राजनीति के आदर्श प्रतिमान हैं।
महाभारत में वर्णित राजनेता के उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त तीन अन्य महत्वपूर्ण गुण- निश्चिन्तता, निर्भीकता और निष्कामता भी श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व की अन्यतम उपलब्धियां हैं।श्रीकृष्ण की निश्चिन्तता का आधार उनका आत्मबल जनित आत्मविश्वास है। उन्हें अपनी बलिष्ठ देह और समस्या-समाधान विधायिनी बुद्धि पर विश्वास है। वे अकारण चिंता नहीं करते हैं।

महाभारत के महाविनाश का उन्हें पूर्ण अनुमान है किंतु वे मानवता विरोधी मूल्यों के संपोषक धृतराष्ट्र-पुत्रों और उनके समर्थकों के संहार की चिंता नहीं करते और अर्जुन को भी उस व्यर्थ चिन्ता जनित मोह से मुक्त कर व्यापक लोकहित का पथ-प्रशस्त करते हैं।
निर्भीकता कृष्ण को बनाती है विशेष
निर्भीकता कृष्ण-चरित्र की अप्रतिम विशेषता है। गोकुल की माटी में; ग्रामजीवन और गोप-संस्कृति की छाया में पले-बढ़े कृष्ण एक ओर प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हैं तो दूसरी ओर कंस-प्रेरित दानवों से निपटते हुए उत्तरोत्तर निर्भय होते जाते हैं। उन्हें न विषैले कालिया नाग से भय लगता है और न ही महाबलशाली कंस उन्हें भयभीत कर पाता है। उसके छल भरे निमंत्रण पर वे निर्भय होकर, निशस्त्र रहकर मथुरा प्रस्थान कर जाते हैं और उसके सहायकों सहित उसका वध कर देते हैं।

सोर्स: अमर उजाला


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