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एनेछिले साथे कोरे मृत्युहीन प्राण, मरणे ताहाई तुमि कोरे गेले दान।
कोलकाता के धर्मतल्ला में देशबंधु चित्तरंजन दास की विशाल प्रतिमा के सामने पहुंचकर जल्दी लौटना हमारे लिए संभव नहीं होता। हम वहां खड़े होकर देर तक उस शख्सीयत के बारे में बात करते हुए जाने कहां पहुंच जाते हैं कि मुक्ति-संघर्ष में उनकी सुदीर्घ यात्रा का एक घना कोलाज हमारी आंखों में तैरने लगता है। बंगाल में देशबंधु की यादों के अनगिनत ठीहे हैं। दार्जिलिंग में 'देशबंधु संग्रहालय' है, जहां उनकी निशानियों को भरपूर देखा जा सकता है।
मुझे नहीं पता कि पृथक हुई बंगाल की धरती अब देशबंधु को किस तरह याद करती है। देशबंधु तो पूरे देश के थे। उन्हें बंगाल का कहना या मानना हमारी धृष्टता होगी। वह बैरिस्टर थे और क्रांतिकारियों के मुकदमों की पैरवी के लिए उन्होंने अपना सब कुछ होम कर दिया था। 1918 में उत्तर भारत में 'मैनपुरी षड्यंत्र केस' चला, तब देशबंधु ने यहां आकर कई फरार क्रांतिकारियों से मुलाकात की और अपनी कोशिशों से उस मामले को इस कदर अशक्त कर दिया कि सरकार को विवश होकर आम माफी की घोषणा करनी पड़ी थी।
नेताजी सुभाष से उनकी अत्यंत निकटता थी और गांधी उनके प्रशंसकों में थे। शचींद्रनाथ सान्याल ने अपनी आत्मरचना बंदी जीवन में लिखा है, 'विप्लव आंदोलन के संपर्क के प्रकाश्य नेताओं में पंडित जवाहरलाल जी को छोड़कर देशबंधु सी.आर.दास जी से मेरी सबसे अधिक एवं गंभीर बातचीत हुई थी। देशबंधु के साथ बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों का संबंध था।
सुभाषचंद्र बोस की एक किताब से यह पता चलता है कि देशबंधु के उद्योग से सितंबर, 1921 में महात्मा जी से बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों की बातचीत हुई थी।' सान्याल जी का यह भी कहना था कि देशबंधु ने उन्हें क्रांतिकारी कर्म के लिए तीन सौ रुपये मासिक देने का वचन दिया था। वकालत से जुड़कर देशबंधु ने जो महत्वपूर्ण कार्य किए, उनमें न्यू इंडिया के संपादक विपिनचंद्र पाल को राजद्रोह के मामले में जेल जाने से बचाने के साथ अनेक देशभक्तों को फांसी तक न पहुंचने देने के उनके प्रयास भी थे।
उन्होंने 1908 में 'अलीपुर षड्यंत्र' में अरविंद घोष पर चले राजद्रोह के मुकदमे में उनका बचाव किया था। वह स्वयं भी असहयोग आंदोलन में पत्नी वसंती देवी सहित गिरफ्तार हुए, जो इस मुहिम में जेल जाने वाली पहली महिला थीं। अपने वकालत के पेशे और घर-परिवार की चिंता न कर जिस तरह वह देशभक्तों के साथ खड़े हुए, वह बेमिसाल है। अपने मामले में अरविंद घोष ने लिखा है, 'अप्रत्याशित रूप से आगे आया वह मेरा मित्र।
आप सबने उसका नाम सुना है, जिसने अपनी सब चिंताओं को एक तरफ रख दिया, अपने सारे मुकदमे छोड़ महीनों आधी-आधी रात तक बैठा परिश्रम करता रहा और मुझे बचाने के लिए जिसने अपना स्वास्थ्य नष्ट कर दिया, उसका नाम है चित्तरंजन दास।' क्रांतिकारियों के मुकदमों के दौरान उन्होंने अपनी घोड़ा-गाड़ी तक बेच दी और कर्ज लिया। किसी रोज एक साहूकार उनसे पैसे मांगने आया।
देशबंधु अपने कक्ष में किसी मुवक्किल से बात कर रहे थे, जो अपने निजी मुकदमे के लिए उन्हें लाखों रुपये देने की पेशकश कर रहा था, जिस पर उनका प्रत्युत्तर था कि अभी उन्हें क्रांतिकारियों के मुकदमों से अवकाश नहीं है, इसलिए वह उसका मामला नहीं ले सकते। साहूकार यह वार्तालाप बाहर से सुनकर यह कहते हुए लौट गया कि अरे, यह व्यक्ति तो देवता है। देशबंधु ने निधन से पहले अपना घर और जमीन महिलाओं की उन्नति के लिए राष्ट्र के नाम कर दी थी।
अब उस प्रांगण में चित्तरंजन राष्ट्रीय कैंसर संस्थान है। दार्जिलिंग का उनका निवास मातृ-शिशु संरक्षण केंद्र के रूप में राज्य सरकार द्वारा संचालित किया जाता है। देश में अनेक जगहों पर विभिन्न स्थान और संस्थान देशबंधु की स्मृति में हैं, जिनमें चित्तरंजन एवेन्यू, चित्तरंजन कॉलेज, चित्तरंजन हाई स्कूल, चित्तरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, चित्तरंजन नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट, देशबंधु कॉलेज फॉर गर्ल्स तथा देशबंधु महाविद्यालय हैं।
दक्षिण दिल्ली में चित्तरंजन पार्क है, जहां विभाजन के बाद आए बंगालियों के निवास हैं। स्वाधीनता सेनानी, राजनेता, मशहूर वकील और इस स्वतंत्र चिंतक का जन्म कलकत्ता में पांच नवंबर, 1870 को हुआ था। वकालत पढ़ने के बाद वह देश के काम में ऐसे जुटे कि उन्हें 'देशबंधु' कहा जाने लगा। उन्होंने इंडिया फॉर इंडियन जैसी प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। वैष्णव साहित्य प्रधान पत्रिका नारायण का वह संपादन भी करते रहे और अंग्रेजी पत्र वंदेमातरम के प्रमुख सदस्य रहे।
अरविंद घोष के साथ सागरसंगीत का अंग्रेजी अनुवाद भी उन्होंने सांग्स ऑफ द सी नाम से किया। वह कांग्रेस के साथ रहे, 'स्वराज्य दल' से जुड़े और उसके मुखपत्र फॉरवर्ड की पूरी जिम्मेदारी संभाली, जिसके प्रकाशक नेताजी थे। उन्होंने कलकत्ता म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के पहले अध्यक्ष का कार्यभार संभाला। वर्ष 1925 में वह इलाज के लिए दार्जिलिंग गए थे, जहां गांधी जी उन्हें देखने पहुंचे थे। उसी साल 16 जून को तेज बुखार में उनकी मृत्यु हो गई। साहित्य अकादेमी ने भारतीय साहित्य निर्माता शृंखला में उन पर मोनोग्राफ छापा।
बाद में उनकी स्मृति में डाक टिकट और सिक्का भी जारी किया गया। देशबंधु पर कई किताबें छपीं, जिनमें एक की प्रस्तावना बाबू संपूर्णानंद ने लिखी थी। नेताजी देशबंधु की पत्नी को 'मां' कहकर बुलाते थे, जिन्होंने देशबंधु के निधन के बाद भी विभिन्न आंदोलनों में अपनी भूमिका निभाई। चित्तरंजन दास के निधन पर रवींद्रनाथ ने कहा था, एनेछिले साथे कोरे मृत्युहीन प्राण, मरणे ताहाई तुमि कोरे गेले दान।
सोर्स: अमर उजाला
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