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अनंत विजय। हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह की एक पुस्तक 'दूसरी परंपरा की खोज' 1982 में प्रकाशित हुई थी। तब उस पुस्तक की बहुत चर्चा हुई थी। इसकी भूमिका में नामवर सिंह ने स्वीकार किया था कि 'परंपरा के समान ही खोज भी एक गतिशील प्रक्रिया है'। उसी गतिशील प्रक्रिया के तहत उन्होंने अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि की खोज की थी। इस पुस्तक के प्रकाशन के 37 साल बाद एक और मार्क्सवादी आलोचक सुधीश पचौरी ने 'तीसरी परंपरा की खोज' पुस्तक लिखी जिसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया। सुधीश पचौरी अपनी इस पुस्तक में 'हिंदी साहित्य के उपलब्ध इतिहास की अबतक न देखी गई सीमा को उजागर करने' का दावा करते हैं। ये भी कहते हैं कि 'ये हिंदी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन का दरवाजा खोलती है'। इसमें नामवर सिंह की खोज से आगे जाकर सुधीश पचौरी ने कुछ 'खोजा' है। इस लेख का उद्देश्य इन दोनों पुस्तकों की तुलना करना नहीं है बल्कि सुधीश पचौरी की पुस्तक के कुछ निष्कर्षों पर विचार करना है।