सम्पादकीय

जानिए कैसे औरंगजेब से हार कर भी जीत गए संभाजी महाराज

Triveni
13 Jun 2021 4:46 AM GMT
जानिए कैसे औरंगजेब से हार कर भी जीत गए संभाजी महाराज
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इस देश के इतिहास में कई ऐसे मोड़ आए, जिन्होंने इसकी दशा-दिशा बदलकर रख दी। इसलिए भावुकता में हम ऐसा सोचने लगते हैं

संजय पोखरियाल | इस देश के इतिहास में कई ऐसे मोड़ आए, जिन्होंने इसकी दशा-दिशा बदलकर रख दी। इसलिए भावुकता में हम ऐसा सोचने लगते हैं कि काश ऐसा नहीं होता, तो कितना अच्छा होता। बहरहाल, इतिहास में जो हुआ, वही होना था। उन ऐतिहासिक घटनाओं का महत्व यही है कि आज उनसे सबक सीखा जाए और उन गलतियों को न दोहराया जाए, जिनकी वजह से देश के सीने पर कई आघात लगे। मशहूर लेखक विश्वास पाटिल के मराठी उपन्यास 'संभाजी' की इसी नाम से अंग्रेजी में अनूदित कृति अपने पाठकों से यही उम्मीद करती है।

इस उपन्यास में पुत्र प्रेम में वशीभूत होकर छत्रपति शिवाजी महाराज के देश में हिंदवी स्वराज स्थापित करने के सपने को पलीता लगाने पर आमादा सोयराबाई हैं। वे अपने बेटे राजाराम को शिवाजी का उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं, जबकि खुद छत्रपति अपनी पहली पत्नी साइबाई से जन्मे बेटे संभाजी को युवराज घोषित कर चुके हैं और उन्हें अपनी गद्दी सौंपने की योजना बना रहे हैं। वे हर लिहाज से इसके योग्य हैं, लेकिन सोयराबाई को यह कतई स्वीकार नहीं है और वे शिवाजी के मंत्रियों के साथ मिलकर संभाजी के खिलाफ षड्यंत्र रचती हैं। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा कैसे एक बड़े उद्देश्य की राह में रोड़ा बन सकती है, लेखक ने इसका बखूबी वर्णन किया है।
इसमें संभाजी हैं, जो सारे षड्यंत्रों से लड़ते हुए आखिरकार मराठा साम्राज्य पर काबिज होने में सफल हो जाते हैं, लेकिन शिवाजी की मृत्यु के बाद उत्साहित मुगल बादशाह औरंगजेब को लगता है कि मराठों को हराने का इससे बढिय़ा मौका नहीं मिलेगा। वह अपने हजारों सैनिकों के साथ दक्षिण की ओर कूच करता है, लेकिन लगातार आठ साल तक लडऩे के बावजूद वह मराठों के गौरव रायगढ़ सहित उनके सैकड़ों किलों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है। इससे वह इतना ज्यादा निराश होता है कि मराठों को घुटने टेकने पर मजबूर करने तक अपने सिर के ताज को त्यागने का प्रण ले लेता है।
इतिहास के इस मोड़ पर फिर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा सिर उठाती है। संभाजी से नाराज उनका साला गनोजी शिर्के सामने आता है और विभीषण की भूमिका निभाते हुए धोखे से अपने जीजा को मुगलों के हवाले कर देता हैं। उन्हें बंधक बनाकर औरंगजेब के सामने पेश किया जाता है। उन्हें कई दिन तक अमानवीय यातनाएं दी जाती हैं। लोहे की गर्म सलाखें घोपकर उनकी आंखें तक निकाल ली जाती हैं, लेकिन वे मुगलों के सामने घुटने नहीं टेकते हैं। अपनी जान और राजपाट बचाने के लिए इस्लाम स्वीकार नहीं करते और धर्म एवं राष्ट्र की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं। औरंगजेब पिछले आठ साल से इस दिन का इंतजार कर रहा है, लेकिन संभाजी और मराठों को हराने के बाद भी उसके चेहरे पर इसकी खुशी नजर नहीं आ रही है, क्योंकि उसे दुख है कि काश, उसका भी संभाजी जैसा एक बेटा होता तो वह कुरआन और तसबीह लेकर मक्का मदीना में बस जाता। उसे अफसोस है कि उसके चारों शाहजादे किसी काम के नहीं हैं। इस तरह औरंगजेब जीत कर भी हार गया और संभाजी हारकर भी अमर हो गए।
संभाजी ने महज 32 साल की उम्र में मातृभूमि के लिए खुद का उत्सर्ग कर दिया, लेकिन वे जब तक जिए शेर की तरह रहे। अफसोस इस बात का है कि शेर के पास उसकी कहानी कहने के लिए कोई किस्सागो नहीं था, इसलिए शिकारियों द्वारा लिखवाए गए इतिहास में शेर के बजाय शिकारी की गौरव गाथा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। विश्वास पाटिल ने भारतीय इतिहास के इस कालखंड की कहानी को शेर के नजरिए से लिखने की कोशिश की है और इसमें वे सफल रहे हैं।
जिन पाठकों ने विश्वास पाटिल के उपन्यास 'पानीपत' को पढ़ा है, उन्हें 'संभाजी' का रसास्वादन करते हुए एक रोमांचक अनुभूति होगी। उनकी प्रवाहमयी भाषा और परिष्कृत शैली पाठकों को पूरी तरह से बांधे रखती है। उपन्यास को पढ़ते समय उसका पूरा कथानक दिमाग में एक फिल्म की तरह चलता रहता है। इस कृति पर फिल्म बनाने वाले को इसका स्क्रीनप्ले लिखने में बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी होगी।
इतनी खूबियों वाले इस उपन्यास में कुछ मामूली गलतियां रह जाना खटक रहा है। एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि उसकी पुस्तकों में प्रूफ और तथ्यों की त्रुटियां रह जाएं, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ है। खासकर शिवाजी की मृत्यु के बाद के घटनाक्रम में पृष्ठ 176 पर तीन महीने की जगह तीन हफ्ते छप गया है।


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