सम्पादकीय

Kisan Agitation: दिल्ली-NCR के बॉर्डर पर बैठे किसान आंदोलन का बदलता अंदाज

Gulabi
28 April 2021 9:53 AM GMT
Kisan Agitation: दिल्ली-NCR के बॉर्डर पर बैठे किसान आंदोलन का बदलता अंदाज
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परंतु इससे महत्वपूर्ण इस कानून की वह पृष्ठभूमि थी जिसमें ये कानून अस्तित्व में आए

डॉक्टर. अभय सिंह यादव। Kisan Agitation सदियों की परंपरावादी कृषि व्यवस्था में व्यापक सुधार के कानूनी प्रयास से किसान का विचलित होना कोई आश्चर्य नहीं था, अपितु यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी।परंतु इससे महत्वपूर्ण इस कानून की वह पृष्ठभूमि थी जिसमें ये कानून अस्तित्व में आए। यह पक्ष एवं विपक्ष दोनों के लिए ही विशेष परिस्थिति थी। राजग के दूसरे कार्यकाल के प्रारंभ से ही भाजपा सरकार प्रचंड बहुमत के बल पर देश के महत्वपूर्ण लंबित मामलों को निपटाने में तत्परता से आगे बढ़ गई थी।


अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण, तीन तलाक की समाप्ति एवं नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानून बनाने के उपरांत सरकार का साहस और आत्मविश्वास दोनों ही लबालब थे। इसके विपरीत, विपक्ष हताश व निराश था। इन दोनों ही कारकों ने किसान आंदोलन को वर्तमान स्वरूप में लाने में अपनी भूमिका अपने अपने तरीके से निभाई। जहां सरकार के आत्मविश्वास ने फैसलों को सख्ती से लागू करने की दृढ़ इच्छाशक्ति दी, वहीं विपक्ष भी स्वयं को पुनर्जीवित करने के मौके को भुनाने के लिए कटिबद्ध दिखाई दिया। सरकार इन कानूनों के प्रति आश्वस्त होते हुए इन पर दृढ़ता से आगे बढ़ने के फैसले पर अडिग रही। वहीं विपक्ष ने संयुक्त रूप से इस आंदोलन के पीछे अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए इसे एक अवसर में परिर्वितत करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। विपक्ष को किसान की बेचैनी ब्रह्मास्त्र के रूप में प्राप्त हुई और उसकी सभी विचारधाराएं, संसाधन तथा शक्तियां इसी पर आकर केंद्रित हो गई।

परंतु आंदोलन के प्रारंभ में विपक्ष द्वारा मिली व्यापक ऊर्जा के उपरांत भी इस आपाधापी में आंदोलन में कई ऐसे कारक अनायास ही प्रवेश करने में सफल हो गए जिनकी नजरें व निशाने भिन्न थे और यह आंदोलन अंतत: उन्हीं का शिकार हो गया। महात्मा गांधी के सत्याग्रह की तर्ज पर जिस किसान आंदोलन की घोषणा हुई थी उसका मूल उद्देश्य नेपथ्य में चला गया और उसकी जगह आंदोलन में हिंसा, अराजकता और अतिउत्साह ने ले लिया। जिस आंदोलन का गैर राजनीतिक होने का दावा किया जा रहा था वह अंदर एवं बाहर दोनों तरफ से राजनीति के शिकंजे में कैद होकर रह गया। आंदोलन के अंदर बैठी राजनीति ने इस आंदोलन की आड़ में अपना एजेंडा बखूबी आगे बढ़ाया।

आंदोलन पंजाब की सीमाओं से निकलकर हरियाणा होता हुआ जब दिल्ली तक पहुंचा तो इस यात्रा में ही इसका आक्रामक स्वरूप स्पष्ट दिखाई देने लगा। यह संकेत स्पष्ट था कि यह सत्याग्रह एक ऐसे संघर्ष में परिर्वितत होने जा रहा था जिसमें शक्ति प्रदर्शन मूल मंत्र के रूप में काम करने वाला था। दिल्ली पहुंचते ही किसान नेतृत्व इसी शक्ति के नशे का शिकार होने लगा। उसने अपने ही तरीके से ऐसे आदेश जारी करने शुरू कर दिए जिनमें कानून व्यवस्था एवं मर्यादा पीछे चली गई। राष्ट्रीय राजमार्गों पर मात्र धरना नहीं था, अपितु आधुनिक सुविधाओं से युक्त एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें देश के कानून को सीधा ठेंगा दिखाया गया। एक तरफ सरकार के साथ बातचीत चलती रही तथा दूसरी ओर धमकी भरी घोषणाएं जारी होने लगीं।
अलग-अलग किसान नेता अपने अपने तरीके से शक्ति प्रर्दशन में जुट गए। इन सबसे एक ऐसा परिवेश तैयार किया गया जहां यह आंदोलन अपनी बात रखने तक सीमित रहने की अपेक्षा अपना कानून खुद बनाते व लागू करते दिखाई दिया। इस अवसर पर सरकार की खामोशी ने आंदोलनकारियों के हौसलों को पंख लगा दिए। कानून का डर समाप्त हो गया और गणतंत्र दिवस के अवसर पर लाल किले की घटना अनियंत्रित शक्ति प्रदर्शन की पराकाष्ठा थी। इस सारे घटनाक्रम ने जाने अनजाने में आंदोलन से सत्याग्रह की शक्ति छीन ली। प्रारंभ में जन सहानुभूति के साथ जन्म लेने वाला यह आंदोलन जन भावना से दूर होता गया। यह आंदोलन राजनीतिक सत्ता संघर्ष के रास्ते पर चला गया।

किसान की शंकाओं को दूर करने के लिए उसमें समाधान की बात न करके किसान नेतृत्व कानून वापसी की जिद पर अटक कर रह गया। वे इस बात को भूल गए कि कानून सरकारें वापस लेने के लिए नहीं लेकर आती हैं। किसान नेतृत्व सरकार की सहनशक्ति और धैर्य को सरकार की कमजोरी व अपनी शक्ति समझने लग गया। परंतु सहनशक्ति कभी कमजोरी नहीं, अपितु सशक्त अस्त्र होता है। आंदोलन का नेतृत्व इस बात को समझ नहीं पाया कि मर्यादा समाज की धरोहर है और जब भी कोई व्यक्ति या समूह मर्यादाओं से बाहर निकल स्वयं शक्ति का प्रदर्शन करता है तो समाज की उससे दूरी स्वत: बन जाती है।

सरकार ने बातचीत का बार-बार अवसर देकर यह संदेश दिया कि वह किसान के प्रति संवेदनशील है और उसकी हर समस्या के समाधान के लिए तत्पर है। परंतु कानून की कमियां बताने की बजाय किसानों का केवल उसे वापस कराने की जिद से आम जनमानस में यह संदेश गया कि किसान नेताओं के पास कानून में कमी बताने के लिए कुछ है ही नहीं और कानून को वापस कराने की केवल मात्र जिद है। धीरे-धीरे यह आंदोलन ऐसी स्थिति में आकर खड़ा हो गया जहां किसान नेतृत्व का अहम आंदोलन से बड़ा हो गया और यह उनकी प्रतिष्ठा से चिपक गया।
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