सम्पादकीय

कीर्तिशेष महाकवि मौजानंद जी

Rani Sahu
26 Aug 2021 6:58 PM GMT
कीर्तिशेष महाकवि मौजानंद जी
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मौजानंदी जी महाकवि को आज कौन नहीं जानता। साहित्य की गोष्ठी हो या कविता पाठ का कार्यक्रम

मौजानंदी जी महाकवि को आज कौन नहीं जानता। साहित्य की गोष्ठी हो या कविता पाठ का कार्यक्रम, मौजानंद जी अपनी-अपनी मौज में गुल-गुल गाते मिल जाएंगे। कम समय में ही उन्होंने जो ख्याति पाई है, वह बिरलों के भाग्य में ही होती है। साठ साल की आयु से शुरू हुआ लेखन अल्पसमय में ही परिपक्व हो गया है। लोग उन्हें अब तो महाकवि की उपाधि भी मानद् रूप से प्रदान कर चुके हैं। घुटनों तक लंबे मोजे पहनकर जब वे साहित्य की चर्चा करते हैं तो लोगों के हाथों के तोते उड़ जाते हैं। उनकी धीर गंभीर मुद्रा में साहित्य खिलता भी खूब है। कविता उनकी रग-रग में रच-बस गई है। सब कुछ ठीक है, लेकिन एक रंज मुझे उनका पड़ौसी होने का जीवनभर सालता रहेगा। काश! मैं उनके ठीक सामने वाले मकान में नहीं रहा होता, लेकिन मकान मेरा पुश्तैनी है और उसे मैं छोड़ भी नहीं सकता। यदि मैं थोड़ा भी सक्षम होता तो सबसे पहले अपना नया मकान उनके निवास से बीस किलोमीटर की दूरी पर बनवाता, लेकिन होनी बलवान होती है और उसे टालना आदमी के वश की बात भी नहीं है। महाकवि मौजानंद कोई बुरे आदमी नहीं हैं, बस वे कवि हैं-यही त्रासद है।

इधर लिखते हैं और उधर प्रबुद्ध श्रोता के रूप में वे मुझे पाते हैं और एक अनवरत सिलसिला चलता है-लेकिन इससे निजात पाने का कोई मार्ग नहीं सूझता। आखिर एक दिन मैंने उनसे कहा-'मौजानंद जी आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं?' वे मेरी पूरी बात सुनते, इससे पहले ही बोले-'तो सुनो मेरी एक ताजा कविता।' मैंने सिर पकडक़र कविता को सुना और कविता की समाप्ति पर बोला-'अब मेरी सुनिए! मैं यह कह रहा था कि आप अच्छा लिख रहे हैं तो किसी पुरस्कार के लिए ट्राई क्यों नहीं करते?' वे मेरी मूर्खता पर हंसे और बोले-'क्या होता है पुरस्कार से! जनता की मान्यता ही रचनाकार की उपलब्धि होती है। आपको मेरी कविताएं भाती हैं, यह मेरे लिए पुरस्कार से कम नहीं है।'
उनकी बात सुनकर मैं रूआंसा हो गया और बोला-'देखिए मौजानंद जी, अब आप किसी और को तलाशिए। कविता के बारे में मैं इतना जानता भी नहीं।' वे बोले-'नहीं जानते तो जानो शर्मा। कविता एक अनुष्ठान है। तुम्हें कविता को मजाक में नहीं लेना चाहिए।' मैंने अपने गुस्से को अंदर आत्मसात किया और बोला-'वैसे कविता से लाभ क्या-क्या हैं?' वे बोले-'बहुत अच्छा प्रश्न है तुम्हारा। कविता के क्या-क्या लाभ बताऊं तुम्हें। कविता के लाभ अनेक हैं। सबसे पहला लाभ तो यह है कि इसकी वजह से मेरे और तुम्हारे मध्य एक आपसी समझ और सद्भाव का वातावरण बना हुआ है।' मैंने कहा-'लेकिन यह कब तक बना रह सकता है, दरअसल मैं घुट गया हूं महाकवि। मेरी मजबूरी को समझो और मुझ पर दया करो। मैं कविता से परेशान हो गया हूं।' 'तुम्हारे परेशान होने से कविता का नुकसान होता है। तुम्हें अपनी सदाशयता और सहजता को नहीं त्यागना चाहिए।' उन्होंने अपने घुटनों से नीचे सरके मोजों को ऊपर खींचा और बोले-'शर्मा भाई, तुम्हारी बेचैनी मैं अच्छी तरह समझता हूं, लेकिन मैं भी क्या करूं? इधर कविता जन्म लेती है और उधर तुम्हारे अलावा मुझे कोई सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं देता। तुम्हारे कारण मेरी कविता को जो ऊंचाई मिली है, उसका जिक्र हिंदी साहित्य में अवश्य होगा। मेरी कविताएं भले मर जाए, लेकिन तुम मरकर भी जिंदा रहोगे।'
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक


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