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By: divyahimachal
रेलगाड़ी में सफर सबसे सुरक्षित, आरामदेह और सुकूनदायक माना जाता रहा है। रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) का सूत्र-वाक्य ‘यात्रियों की सुरक्षा, संरक्षा और रेल-यात्रा के प्रति विश्वास को बढ़ाना’ भी आश्वस्त करता है, लेकिन सोमवार, 31 जुलाई को ‘जयपुर-मुंबई सुपरफास्ट एक्सप्रेस’ टे्रन में, सुरक्षाकर्मी ने ही, जो कत्लेआम किया, उसने रेलवे की छवि पर दाग ही नहीं, कई सवाल चस्पां कर दिए हैं। क्या रेल-यात्रा वाकई सुरक्षित है? आरपीएफ के एक कांस्टेबल ने न केवल अपने वरिष्ठ कर्मचारी, बल्कि 3 यात्रियों की भी हत्या कर दी। अपनी मन:स्थिति को अंजाम देने से पहले वह ‘हत्यारा रक्षक’ करीब 40 मिनट तक, बोगी-दर-बोगी घूमते हुए, यात्रियों को आतंकित करता रहा। उसके निशाने पर सिर्फ मुस्लिम यात्री ही थे अथवा उसने सभी को धमकाया था, यह फिलहाल स्पष्ट नहीं है। संभवत: जांच के निष्कर्षों में यह तथ्य उजागर हो सकता है! आरपीएफ ने त्वरित सफाई दी है कि वह मानसिक तौर पर बीमार था, लिहाजा यह कांड कर दिया। यह संदर्भ और सरोकार सैकड़ों रेल-यात्रियों से जुड़ा है। रेलगाड़ी में सशस्त्र सुरक्षा कर्मियों को गश्त लगाते देख कर औसत यात्री, बेशक, सुरक्षित महसूस करता है। यात्री आराम और सुकून की नींद सो पाते हैं। सुरक्षा कर्मियों की गश्त के बावजूद रेलगाड़ी में लूट-डकैती की भी घटनाएं हुई हैं, लेकिन इस तरह सरेआम, यात्रियों से भरी टे्रन में, गोलियां चलाकर किसी की हत्या नहीं की गई। बहुत बड़ा सवाल है कि यदि आरपीएफ कांस्टेबल मानसिक रोगी था, तो सुरक्षा बल ने, हमलावर राइफल के साथ, उसे ड्यूटी पर तैनात क्यों किया था? नियमित ड्यूटी से पहले अस्पताल में उसका उचित इलाज क्यों नहीं कराया गया? उसे स्वस्थ होने तक छुट्टी पर क्यों नहीं भेजा गया?
ऐसे तमाम सवाल आरपीएफ के लापरवाह, आंख मूंदे अधिकारियों की ओर भी संकेत करते हैं। उन्हें भी दंडित किया जाना चाहिए। दरअसल यह कोई इकलौती घटना नहीं है। सैनिकों और पुलिस कर्मियों के शिविरों में ऐसा होता रहा है कि एक जवान ने दूसरे को गोली मार दी अथवा खुद को ही गोली मार कर आत्महत्या कर ली। वरिष्ठ अफसरों को भी निशाना बनाया गया है। ओडिशा के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री नाबा दास की एक पुलिस कर्मी ने, बीती जनवरी में ही, अपनी सर्विस रिवॉल्वर इस्तेमाल करते हुए, गोली दाग कर हत्या कर दी थी। तब भी हत्यारे को ‘मानसिक रोगी’ करार दिया गया था। सुपरफास्ट टे्रन में आरपीएफ कांस्टेबल द्वारा यह हत्याकांड, बेशक, अभूतपूर्व और अप्रत्याशित है। यदि हत्याओं की वजह ‘सांप्रदायिक नफरत’ है, तो यह घटना भयावह और खौफनाक है। यह दौर सांप्रदायिक तौर पर तपा हुआ है। ऐसी हिंसा और हत्याएं की जा रही हैं, लेकिन रेलगाड़ी तो ‘राष्ट्रीय और धर्मनिरपेक्ष वाहन’ है। बहरहाल आरपीएफ ने जांच के लिए एक समिति का गठन किया है, जो तीन महीने में अपनी रपट देगी। कमेटी जो अनुशंसाएं करे, उसमें एक सरकारी व्यवस्था का सुझाव होना चाहिए, जो तय कर सके कि ‘मनोरोगियों’ को ड्यूटी पर नहीं भेजा जाएगा। आरपीएफ केंद्रीय कानून के तहत काम करता है, लिहाजा उसे पर्याप्त शक्तियां प्राप्त हैं। वह मजिस्टे्रट के आदेश या किसी सक्षम अधिकारी की स्वीकृति के बिना ही, किसी को भी, गिरफ्तार कर सकता है। आरपीएफ कर्मियों को कमांडो टे्रनिंग भी दी जाती है। उसके बावजूद आरपीएफ यात्रियों और कर्मचारियों में विश्वास पैदा करने में नाकाम रहा है, तो उसकी गहराई में जाना अनिवार्य है, क्योंकि बल के कर्मचारी देश की जनता के, जो रेल में यात्रा कर रही हो, रक्षक हैं। यदि सुरक्षा बल ही रक्षक के बजाय भक्षक साबित होने लगे, तो यह संपूर्ण व्यवस्था की नाकामी है। रेलवे सुधार समिति ने बिबेक देबरॉय की अध्यक्षता में 2015 में अनुशंसा की थी कि वरिष्ठ रेलवे अधिकारी यात्रियों की सुरक्षा के लिए निजी सुरक्षा अथवा आरपीएफ की सुरक्षा का बंदोबस्त करने को स्वतंत्र होने चाहिए। बुनियादी चिंता-सवाल तो यही है कि यदि कोई सुरक्षा कर्मी मानसिक तौर पर अस्वस्थ है, तो उसके साथ क्या व्यवहार किया जाना चाहिए?

Rani Sahu
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