सम्पादकीय

सीधों को लात, कुबड़ों को मांस-भात

Rani Sahu
14 March 2022 7:08 PM GMT
सीधों को लात, कुबड़ों को मांस-भात
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ज़माना सीधों का नहीं, कुबड़ों का है। कुबड़े भी वे, जो न केवल ऊँट के कूबड़ वाले हों बल्कि बैठते भी दो ऊँटों पर हों

साधो! ज़माना सीधों का नहीं, कुबड़ों का है। कुबड़े भी वे, जो न केवल ऊँट के कूबड़ वाले हों बल्कि बैठते भी दो ऊँटों पर हों। ताकि बुरे वक़्त में कुत्तों के काटने की तो छोड़ें वे उन्हें कभी छू भी न पाएं। ऐसे कुबड़े भले ही ठीक से चल भी न पाते हों, पर जीवन की दौड़ में उसेन बोल्ट को भी पीछे छोड़ देते हैं। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि आदमी की पीठ में रीढ़ की जगह कूबड़ हो, वह भी तरल रबड़ काय ताकि आगे-पीछे झुकने में कोई कठिनाई न हो। व्यक्ति के पास साहिबों को जगाने-सुलाने का जन्मज़ात हुनर हो या फिर वह पूर्ण विधि-विधान और प्रयत्नों सहित इंद्र भगवान को प्रसन्न कर, कूबड़ विज्ञान में वाचस्पति की डिग्री हासिल कर ले। भगवान जाने, हरिवंश राय बच्चन ने क्या सोच कर 'जो सीधी रखते अपनी रीढ़' लिखी थी। आज होते तो मारे शरम के डूब मरते या सोच कर कहते, 'जो कूबड़ रखते अपनी रीढ़'। बच्चन ज़रूर सोचते कि बेक़ार में ठोकर मारने से जूता तो फटता ही है, उंगली भी बाहर निकल आती है। ऐसे में अगर पाँव बचाओगे तो तलुवे का नाश करोगे। प्रेम चंद ने भले ही फटे जूते में फोटो खिंचवा ली हो मगर परसाई भूल कर भी प्रेम चंद के फटे जूते पर व्यंग्य न करते।

तीनों को शायद अब तक पता चल चुका होता कि न रीढ़ सीधी रखने का कोई फायदा है और न ही प्रश्न पूछने का। रीढ़ सीधी रखने या प्रश्न पूछने पर व्यक्ति को गद्दार घोषित कर दिया जाता है या उसे पाकिस्तान जाने की सलाह दी जाती है या फिर सीधे-सीधे पाकिस्तान जाने के लिए कह दिया जाता है। फटे जूते पहनने से शायद सबसिडी मिल जाए। लेकिन जो समझदार हैं, उन्हें पता है कि भलाई किस में है। उन्हें पूर्ण ज्ञान है कि अब वक्त बदल चुका है। साहिबों को केवल जगाना-सुलाना ही काफी नहीं। अब धूप में उनका बिस्तर सुखाने के बाद दोबारा लगाना भी ज़रूरी है। ऐसे में प्रेम चंद और परसाई बच्चन की तरह भले ही राज्य सभा के सदस्य न बन पाते लेकिन कम से कम शिक्षा विभाग के निदेशक के पद से तो ज़रूर रिटायर होते। दोनों ही कभी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र न देते।
आज के ज़माने में बच्चा भी जानता है कि सीधे खड़े होने या तने रहने का कोई लाभ नहीं। बच्चन भले ही अपनी कविता में रीढ़ सीधी रखते हुए शीश नवाकर अत्याचार न सह कर, सत्पथ पर छाती ताने चलने और रीढ़ सीधी रखने वालों के साथ खड़े रहने की बात करें, लेकिन सबको पता है कि नौकरी करने वालों की रीढ़ कभी सीधी नहीं होती। उन पर कभी भी ट्रांसफर का चाबुक चलाया जा सकता है या फिर अनुशासन के नाम पर कागज़ घड़ा जा सकता है। ऐसे में केस और फाइलों में उलझने के डर से आदमी तो क्या यमराज भी डरते हैं। परसाई कभी प्रेम चंद के फटे जूते को 'टेजिडी' न बताते। वह प्रेम चंद के फटे जूते को भी पूर्ण सम्मान देते और उनकी टोपी को उनके सिर पर ही बनाए रखते। उनकी टोपी को कभी जूते पर निछावर करने की बात न करते। लेकिन प्रेम चंद के सादगी भरे व्यक्तित्व से उन्हें हासिल क्या हुआ? केवल फटे जूते। अब तो दिखावे का ज़माना है भय्या। अच्छे-अच्छे कपड़े पहनो और कूबड़ को अच्छे से ढक लो। लेकिन बेचारे प्रेम चंद तो फोटो के मामले में भी मात खा गए। अब तो ज़माना ही पब्लिसिटी का है, शुद्ध प्रचार का। कुछ लोग तो केवल पब्लिसिटी के दम पर ही एक अदद कविता या कहानी के सहारे आजीवन महान कवि या लेखक बने रहते हैं। राजनीतिक दल तो पब्लिसिटी के सहारे ही सत्ता तक पहुँचते हैं। कई व्यक्ति तो केवल पब्लिसिटी के दम पर ही महान नेता की छवि बनाए विश्व का नेतृत्व कर रहे हैं।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं


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