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
साधो! ज़माना सीधों का नहीं, कुबड़ों का है। कुबड़े भी वे, जो न केवल ऊँट के कूबड़ वाले हों बल्कि बैठते भी दो ऊँटों पर हों। ताकि बुरे वक़्त में कुत्तों के काटने की तो छोड़ें वे उन्हें कभी छू भी न पाएं। ऐसे कुबड़े भले ही ठीक से चल भी न पाते हों, पर जीवन की दौड़ में उसेन बोल्ट को भी पीछे छोड़ देते हैं। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि आदमी की पीठ में रीढ़ की जगह कूबड़ हो, वह भी तरल रबड़ काय ताकि आगे-पीछे झुकने में कोई कठिनाई न हो। व्यक्ति के पास साहिबों को जगाने-सुलाने का जन्मज़ात हुनर हो या फिर वह पूर्ण विधि-विधान और प्रयत्नों सहित इंद्र भगवान को प्रसन्न कर, कूबड़ विज्ञान में वाचस्पति की डिग्री हासिल कर ले। भगवान जाने, हरिवंश राय बच्चन ने क्या सोच कर 'जो सीधी रखते अपनी रीढ़' लिखी थी। आज होते तो मारे शरम के डूब मरते या सोच कर कहते, 'जो कूबड़ रखते अपनी रीढ़'। बच्चन ज़रूर सोचते कि बेक़ार में ठोकर मारने से जूता तो फटता ही है, उंगली भी बाहर निकल आती है। ऐसे में अगर पाँव बचाओगे तो तलुवे का नाश करोगे। प्रेम चंद ने भले ही फटे जूते में फोटो खिंचवा ली हो मगर परसाई भूल कर भी प्रेम चंद के फटे जूते पर व्यंग्य न करते।
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