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एक बार फिर जड़ों की तरफ लौटना शुरुआत में कष्टप्रद तो है, लेकिन यह जलवायु परिवर्तन से त्रस्त दुनिया के लिए एक अनुकरणीय कदम होगा।
हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में खाने-पीने की वस्तुओं का संकट खड़ा हो गया है। हालात इतने खराब हुए कि वहां खाद्य-आपातकाल लगाना पड़ा और आलू, चावल जैसी जरूरी चीजों के वितरण का जिम्मा फौज के हाथों में दे दिया गया। कोविड के कारण श्रीलंका की आर्थिक समृद्धि के मूल कारक पर्यटन को भारी नुकसान हुआ, लेकिन दो करोड़ 13 लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश ने इसी साल अप्रैल में एक क्रांतिकारी कदम उठाया। सरकार ने पूरी खेती को रासायनिक खाद और कीटनाशक से मुक्त कर शत-प्रतिशत जैविक खेती में बदलने का फैसला किया। बगैर रसायन के हर दाना उगाने वाला पहला देश बनने की चाहत में श्रीलंका ने कीटनाशकों, उर्वरकों और कृषि रसायनों के आयात और उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया।
श्रीलंका के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में खेती-किसानी की भागीदारी 8.36 फीसदी है और देश के कुल रोजगार में खेती का हिस्सा 23.73 फीसदी है। श्रीलंका सरकार का मानना है कि भले ही रसायन वाली खेती से कुछ अधिक फसल आती है, लेकिन उसके कारण पर्यावरण क्षरण, जल प्रदूषण हुआ है, और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है। चूंकि देश जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है, ऐसे में देश को बचाने का एकमात्र तरीका है-खाद्य उत्पादन को रसायन से पूरी तरह मुक्त करना। हालांकि विशेषज्ञों का अनुमान है कि इससे फसलें देश के सामान्य उत्पादन के लगभग आधी रह जाएंगी।
श्रीलंका का यह निर्णय पर्यावरण, खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और जमीन की सेहत के लिहाज से है तो सराहनीय, लेकिन सरकार ने किसानों को जैविक खेती के लिए व्यापक प्रशिक्षण तक नहीं दिया। इसके अलावा, सरकार के पास पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद भी उपलब्ध नहीं हैं। एक अनुमान के अनुसार, देश में हर दिन लगभग 3,500 टन जैविक कचरा उत्पन्न होता है। इससे सालाना आधार पर लगभग 20-30 लाख टन कंपोस्ट का उत्पादन किया जा सकता है। हालांकि, सिर्फ धान की जैविक खेती के लिए पांच टन प्रति हेक्टेयर की दर से सालाना लगभग 40 लाख टन खाद की आवश्यकता होती है। चाय बागानों के लिए जैविक खाद की मांग 30 लाख टन और हो सकती है। जाहिर है, श्रीलंका को बड़े स्तर पर जैविक उर्वरकों के घरेलू उत्पादन की आवश्यकता है।
इस बीच अंतरराष्ट्रीय खाद-कीटनाशक लॉबी भी सक्रिय हो गई है और दुनिया को बता रही है कि श्रीलंका जैसा प्रयोग करने पर कितने संकट आएंगे। प्लांट पैथोलॉजिस्ट स्टीवन सैवेज के एक अध्ययन के अनुसार, जैविक खेती की पर्यावरणीय लागत और दुष्प्रभावों का अपना हिस्सा है- 'समूचे अमेरिका में जैविक खेती के लिए 10.9 करोड़ से अधिक एकड़ कृषि भूमि की आवश्यकता होगी-जो देश की वर्तमान शहरी भूमि से 1.8 गुना अधिक है।' एक बात और कही जा रही है कि जैविक खेती के कारण किसान को साल में दो फसल मिलने में भी मुश्किल होगी, क्योंकि ऐसी फसल समय लेकर पकती है, जिससे उपज अंतराल में और वृद्धि हो सकती है। उपज कम होने पर गरीब लोग बढ़ती कीमत की चपेट में आएंगे।
पर यह भी सच है कि अंधाधुंध रसायन के इस्तेमाल से तैयार फसलों के कारण हर साल कोई पच्चीस लाख लोग पूरी दुनिया में कैंसर, फेफड़ों के रोग आदि से मारे जाते हैं। अकेले कीटनाशक के इस्तेमाल से आत्महत्या करने वालों का सालाना आंकड़ा तीन लाख है। ऐसे उत्पाद खाने से आम लोगों की प्रतिरोधक क्षमता कम होने, बीमार होने और असामयिक मौत से आम लोगों पर भारी आर्थिक बोझ पड़ता है और इंसान के श्रम कार्य दिवस भी प्रभावित होते हैं।
श्रीलंका की नई नीति से भले ही आज खाद्य-आपातकाल जैसे भयावह हालात हो गए हों, पर यह लोगों को जहर मुक्त संतुलित आहार के अधिकार की गारंटी दे रही है। सरकार ने कृषि में केवल जैविक उर्वरक का उपयोग करने का निर्णय लिया है। श्रीलंका में भी भारत की तरह खेती के पारंपरिक ज्ञान का भंडार है। एक बार फिर जड़ों की तरफ लौटना शुरुआत में कष्टप्रद तो है, लेकिन यह जलवायु परिवर्तन से त्रस्त दुनिया के लिए एक अनुकरणीय कदम होगा।
Neha Dani
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