सम्पादकीय

खेलापति बनाम विभाजन विभीषका

Gulabi
24 Aug 2021 7:29 AM GMT
खेलापति बनाम विभाजन विभीषका
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आज़ादी की पूर्व संध्या पर गदर ़िफल्म देखते हुए हैंड पंप उखाड़ने वाले सीन के दौरान खेलापति सन्नी दियोल की तरह इतने क्रोधित हो उठे कि

divyahimachal .

आज़ादी की पूर्व संध्या पर गदर ़िफल्म देखते हुए हैंड पंप उखाड़ने वाले सीन के दौरान खेलापति सन्नी दियोल की तरह इतने क्रोधित हो उठे कि उन्होंने आनन-़फानन में अपनी कुरसी का हत्था उखाड़ने के बाद टीवी स्क्रीन पर दे मारा। कुछ देर बाद शांत होकर उन्होंने भावुकता में सदियों से सोने का अभिनय खेलती जनता पर 14 अगस्त को हर बरस विभाजन विभीषिका दिवस मनाने का निर्णय पेल डाला। इस बीच टीवी स्क्रीन नोटबंदी की तरह खेत हो चुकी थी। किंतु हर देशभक्त भारतीय की तरह स्क्रीन (सार्वजनिक संपत्ति) तोड़ने का उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। विभाजन विभीषिका दिवस मनाने का उनका यह ़फैसला भी देशवासियों की एकतऱफा भलाई के उनके ऊटपटांग ़फलस़फे पर आधारित था।
जब जीएसटी अर्धरात्रि में लोकतंत्र के मंदिर में देश में नई सुबह का आ़गाज़ कर सकती है; नए कृषि बिलों से किसानों की आय दोगुनी हो सकती है तो राष्ट्रभक्ति की चिपचिपी चासनी में लिपटे विभाजन विभीषिका दिवस की बदौलत राष्ट्रवाद क्यों नहीं गहरा सकता? सैंटा क्लॉज़ की पोटली की तरह खेलापति की गठरी में इतने तमाशे भरे हैं कि मौ़के के हिसाब से वह हर बार नया तमाशा प्रजा के मुंह पर दे मारते हैं। भूख, बेरोज़गारी और महंगाई के बोझ से दबी प्रजा एक बार फिर अलसाई आंखों से नया तमाशा देखने में मस्त हो जाती है। इसे कहते हैं खेलापति का मास्टर स्ट्रोक। साल-दर-साल आज़ादी के जश्न में विभाजन विभीषिका दिवस अपना ज़हर उंडेलता रहेगा और एकता के चोगे में विभाजन की गुदडि़यां बिखरती रहेंगी। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखे का चोखा। यह खेलापति की कुबेर लीला है कि वह हमेशा अ़खबारों और ़खबरिया चैनलों की हर न्यूज़ फ्रेम में भगवान श्रीकृष्ण की तरह हवा में उंगली उठाए नज़र आते हैं। कभी मुरली मनोहर की तरह होठों पर मद्धम मुस्कान लिए तो कभी चाणक्य की तरह धीर-गंभीर। खेलापति टोक्यो ओलंपिक के दौरान उंगलियां उठा-उठाकर उपदेश और सलाह देते हुए खेल समाचारों में खिलाडि़यों से अधिक कवरेज जुटाने में सफल रहे।
कभी वह पदक को पद से बड़ा बताते तो कभी भारत में नए आत्मविश्वास के उदय की बात करते। मियां जुम्मन कहते हैं कि अ़खबारों एवं न्यूज़ चैनलों में सि़र्फ स्पोर्ट्स कोना ही ऐसा था, जिसे किसी राजनेता की शक्ल देखे ब़गैर निर्बाध पढ़ा जा सकता था। जबकि मियां फुम्मन मानते हैं कि नीरज चोपड़ा का गोल्ड और सालों की मेहनत उस व़क्त बे़कार हो गई जब लोगों ने फैंकने के मामले में खेलापति को उनका गुरू बता डाला। लोग हंसते हुए पूछते हैं कि बताओ नेहरू के काल में कोई इतनी दूर भाला क्यों नहीं फैंक पाया? वे तो यह भी मानते हैं कि अगर हर साल भाला फैंक दिवस की बजाय केवल फैंकू दिवस मनाया जाए तो देश हमेशा उत्सव मोड में रहेगा। मियां फुम्मन लाल ़िकले का नाम बदल कर गाल (बजाओ) ़िकला रखने के लिए अभियान चलाने की योजना बना रहे हैं। कारण बताते हुए वह कहते हैं कि लोग और गोदी मीडिया खेलापति के फैंकाथन (मैराथन) में इतने डूब चुके हैं कि वे उनसे पूछना भूल गए हैं कि आपकी जेब (बजट) में केवल 35 रुपए हैं तो आप 100 रुपए कैसे ़खर्च करेंगे? जबकि खेलापति पिछले तीन सालों से हर स्वतंत्रता दिवस पर गाल (बजाओ) ़िकला से देश के आधारभूत ढांचे पर 100 लाख करोड़ रुपए खर्च करने की बात करते आ रहे हैं। प्रसन्नता का विषय है कि देश के आधारभूत ढांचे के अदृश्य विकास पर हर साल सौ लाख करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। लेकिन अंधभक्त इस अदृश्य विकास के भी साक्षी बने हुए हैं। जैसे कहावत है, 'कब्ज़ा सच्चा, मिल्कियत झूठी'। उसी तरह कहा जा सकता है 'घोषणा सच्ची, अमल झूठा'।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
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