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वे बिहार के चंपारण के इलाके में एक छोटी सी परचून की दुकान चलाने वाले एक बुजुर्ग थे
खेदारू मियां नहीं रहे. मगर खेदारू मियां कौन थे? वे बिहार के चंपारण के इलाके में एक छोटी सी परचून की दुकान चलाने वाले एक बुजुर्ग थे. मगर हम आज खेदारू मियां को क्यों याद कर रहे हैं? क्या उनका गुजर जाना इतनी बड़ी खबर है कि उस पर बात की जाये? इसका जवाब हां भी है और नहीं भी. अगर हमारा मुल्क इतना ईमानदार होता कि हर इंसान पराये धन से मोह नहीं रखता तो खेदारू मियां इस मुल्क के एक सामान्य से व्यक्ति होते.
मगर बदनसीबी से ऐसा है नहीं, यहां तो ज्यादातर लोग ऐसे हैं कि सड़क पर पड़े दो रुपये के सिक्के को भी चुपके से उठाकर जेब में रख लेने में संकोच नहीं करते. मगर खेदारू मियां ने सोने के सिक्के से भरी कलसी, जिसमें सोने का वजह दस किलो था के लिए भी लोभ नहीं किया. उस पूरे बेनामी खजाने को सरकार को सौंप दिया और ताउम्र मुफलिसी में जीते रहे.
मगर, एक तरफ तो खेदारू मियां का इमान था, दूसरी तरफ सरकार की जबान. सरकार ने उनकी इमानदारी से खुश होकर उन्हें 20 एकड़ जमीन देने की घोषणा की थी. सरकार उनके जीते-जी यह वादा पूरा नहीं कर पाई. 40 साल बीत जाने के बावजूद. जी हां, यही खेदारू मियां की कहानी है. इसलिए हम उस परचून दुकानदार को आज याद कर रहे हैं.
खंडहर में मिली थी सोने के सिक्कों से भरा गगरी
बात 1980-81 की है. बिहार के चंपारण के बगहा इलाके में एक गांव है गोरियापट्टी. उसी गांव में रहते थे खेदारू मियां. तब से सिर्फ 30 साल के युवक थे. उस वक्त भी वे परचून की दुकान ही चलाते थे. एक रोज अपनी दुकान के पीछे एक खंडहर में उन्हें सोने के सिक्कों से भरी एक गगरी मिली. गगरी में दस किलो वजन के सिक्के थे. वे जब उस खजाने को लेकर घर आये तो उनकी पत्नी ने कहा, इसे हम चुपचाप अपने घर में रख लेते हैं, किसी को पता भी नहीं चलेगा.
मगर खेदारू मियां इमान की कीमत समझते थे. उन्होंने तय किया कि इस खजाने को वे सरकार को सौंप देंगे. उस वक्त भी वह खजाना अमूमन बीस लाख का था, आज उसकी कीमत लगभग पांच करोड़ की हो गई है. अगर वे इन सिक्कों को कहीं छिपा कर रख लेते और धीरे-धीरे खर्च करते तो उनका पूरा जीवन खुशहाली से भर जाता. मगर उन्होंने तंगहाली को स्वीकार किया, इमान की कीमत समझी.
उन्होंने कहा कि वे ये सिक्के सरकार को सौंपना तो चाहते हैं, मगर इसे अपने हाथों से उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को देना चाहते हैं. उनकी शर्त मान ली गई और उन्हें दिल्ली ले जाया गया. जहां उन्होंने यह खजाना अपने हाथों से इंदिरा गांधी को सौंप दिया. उस वक्त इस घटना की खूब चर्चा हुई. इंदिरा गांधी ने उनकी इमानदारी से खुश होकर उन्हें बीस एकड़ जमीन का पट्टा दे दिया. जैसा इमान खेदारू मियां का था, उसी हिसाब से उन्हें तोहफा भी मिला. मगर वह तोहफा उनके लिए ताउम्र कागज का एक टुकड़ा बनकर रह गया.
अधिकारियों के चक्कर लगाते बीत गई जिंदगी
दिल्ली से लौटने के बाद वे कई वर्ष तक अपने जिले के अधिकारियों के पास चक्कर लगाते रहे. मगर किसी अधिकारी ने उनके कागज के टुकड़े को जमीन में नहीं बदला. जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि उन्होंने जिस तरह का इमान दिखाया, वैसा इमान सरकारी अधिकारियों का नहीं है. अगर वे इस चक्कर में रहेंगे तो जितनी आमदनी है वह भी नहीं रहेगी.
ऐसे में वे सब भूलभाल कर फिर से अपनी पुरानी जिंदगी में जुट गये. और वैसी ही जिंदगी जीते हुए वे एक दिन इस दुनिया से चले गये. अपने पीछे अपनी बेमिसाल इमानदारी की कहानी छोड़कर. उनकी कहानी में लोगों के लिए हैरत और उनके लिए प्रशंसा का भाव है. मगर मेरे लिए उनकी कहानी जड़ हो चुकी हमारी सरकारी व्यवस्था की भी कहानी है.
एक व्यक्ति जिसे इस देश की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री अपने हाथों से 20 एकड़ जमीन का पट्टा देती है, उस पीएम का वादा उस देश के अधिकारी 40 साल में भी पूरा नहीं कर पाते. और यह कोई इकलौती कहानी नहीं है. जिस चंपारण के खेदारू मियां हैं, उसी चंपारण में हजारों भूमिहीन लोग ऐसे हैं, जिन्हें आज से 30-40 साल पहले जमीन का पट्टा मिला था, मगर आज तक कब्जा नहीं मिल पाया. यह सिर्फ सरकारी व्यवस्था का सवाल नहीं है, शासन के इकबाल का भी सवाल है.
97 हजार परिवारों को आज तक कब्जा नहीं मिला
एक वक्त में बिहार में लगभग 97 हजार परिवार ऐसे थे, जिन्होंने सरकार के सामने गुहार लगाई थी कि उन्हें सरकार से जमीन का पट्टा तो जरूर मिला है, मगर उस जमीन पर उन्हें आज तक कब्जा नहीं मिला. यह इतना बड़ा मामला हो गया था कि बिहार सरकार को इसके लिए ऑपरेशन दखल दिहानी चलाना पड़ा. मगर इस ऑपरेशन के बावजूद राज्य के 23 हजार से अधिक परिवार अभी भी अपनी जमीन पर कब्जा हासिल नहीं कर पाये हैं.इनमें से कई तो ऐसे हैं, जिनकी जमीन पर दबंगों ने कब्जा कर लिया है. बिहार के पूर्णिया जिले के भवानीपुर में ऐसी ही 400 एकड़ जमीन है, जिस पर कहते हैं सरकार में मंत्री बीमा भारती के पति अवधेश मंडल का कब्जा है. यह जमीन 1988 में वहां के 70 भूमिहीन परिवार को दी गई थी. आज तक वे परिवार इस जमीन पर कब्जा हासिल नहीं कर पाये.
हां, उनके पास जमीन के कागजात जरूर हैं. जिन लोगों ने अपनी जमीन पर कब्जा पाने की कोशिश की, उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा. 2004-05 में दो भाइयों की हत्या हो चुकी है. आरोप अवधेश मंडल पर है. उन्हें पुलिस गिरफ्तार करती है तो उनकी मंत्री पत्नी उन्हें थाने से छुड़ा आती है. वे एक बार अपने ब्लाक के सीओ की पिटाई भी कर चुके हैं.
चीनी मिल के पास है 6 हजार एकड़ अवैध जमीन
चंपारण में ही एक चीनी मिल के कब्जे में अवैध तरीके से लगभग छह हजार एकड़ जमीन है. मगर सरकार चाह कर भी उससे जमीन ले नहीं पा रही. ये किस्से बताते हैं कि बिहार में जमीन का मसला कितना गंभीर है. हालांकि सरकार ने राज्य में भूमि विवाद के तमाम मसलों को खत्म करने के लिए नये सिरे से लैंड सर्वे और उसके कंप्यूटराइजेशन का काम शुरू किया है. मगर अभी भी लोगों को भरोसा नहीं है कि सरकार का इकबाल बहाल हो पायेगा. खेदारू मिया तो सरकार के इकबाल की हकीकत देखकर इस दुनिया से चले ही गये.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
पुष्यमित्र लेखक एवं पत्रकार
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक. विभिन्न अखबारों में 15 साल काम किया है. 'रुकतापुर' समेत कई किताबें लिख चुके हैं. समाज, राजनीति और संस्कृति पर पढ़ने-लिखने में रुचि.
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