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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले का खतौली कस्बा। यह कर्मवीर पंडित सुंदरलाल का जन्मस्थान है
सुधीर विद्यार्थी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले का खतौली कस्बा। यह कर्मवीर पंडित सुंदरलाल का जन्मस्थान है। करीब डेढ़ लाख की आबादी वाली इस बस्ती की घनी बसावट में घंटाघर गली का यह मुहल्ला कभी इमली तला कहा जाता था। पंडित जी के चचेरे भाई डॉ. प्रेमशरण श्रीवास्तव मुझे भेजे गए अपने पत्रों में 'पं. सुंदरलाल मार्ग' के नाम के साथ अपना यही पता दर्ज करते थे।
यहां पंडित जी का पुश्तैनी मकान 2016 में बिक चुका है और उस पुरानी रिहाइश का चेहरा-मोहरा भी अब पहले जैसा नहीं रहा। बाहर कई दुकानें बन गई हैं, लेकिन मकान के भीतर कुछ हिस्से में अभी पुरानी छवियां और रंग-रोगन विद्यमान हैं। हम बड़ी रिहाइश के उस खंड को भी देखने जा पहुंचे, जिसके दरवाजे के ऊपर पुराने सफेद पत्थर पर 'मनोहरी कुटी' हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में लिखा हुआ है।
निकट की पतली गली में लगे दरवाजे से अंदर पहुंचने पर हमें वह कक्ष भी दिखाया गया, जिसमें 26 सितंबर, 1886 को पंडित जी का जन्म हुआ था। भीतर आने वाली इस सड़क के मुहाने पर 26 जनवरी, 1987 को लगाए गए 'पं. सुंदरलाल मार्ग' के पत्थर को हम देर से खोज रहे हैं। चुनावी और विज्ञापनों के पोस्टरों से पूरी तरह ढकी इस स्मृति-शिला को हमने देर तक पानी से धोया। इस पूरे इलाके में उनके इस एकमात्र कीर्ति-स्तंभ की ओर किसी का ध्यान नहीं
मुझे याद है कि मेरठ विश्वविद्यालय हिंदी परिषद के मुजफ्फरनगर अधिवेशन (1978) में पंडित जी का सम्मान करते हुए मुजफ्फरनगर संदर्भ नामक पुस्तक उन्हें भेंट की गई थी, जिसके बाद 1985 में खतौली पत्रकार मंच ने 'पंडित सुंदरलाल स्मृति पुरस्कार' की घोषणा भी की। जवाहरलाल नेहरू ने एक समय पंडित जी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का अनुरोध किया था, पर मुक्ति का वह योद्धा उस संसदीय मार्ग में चलने के लिए तैयार नहीं हुआ।
पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने एक बार कहा भी था कि उनके दिमाग में मोटरकार से जाते हुए एमएलए सुंदरलाल की कल्पना ही नहीं आती। 23 दिसंबर, 1912 को एक सचेत क्रांतिकारी के रूप में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की सवारी पर दिल्ली के चांदनी चौक में बम फेंकने की रासबिहारी बोस की योजना से जुड़कर वह विप्लव के जिस पथ पर आगे बढ़े, वहां से फिर डिगे नहीं। यद्यपि वह उस घटना के बाद संन्यासी बनकर सोलन चले गए।
उसके बाद कांग्रेस के आंदोलन में पंडित जी का आना एक बड़ा परिवर्तन था। फिर भी वह अपनी उग्र सक्रियता के चलते दूसरे कांग्रेसियों या गांधीवादियों से पृथक पहचान बनाए रहे। डॉ. मुल्कराज आनंद ने मुझे बताया था कि एक समय नेहरू, एमएन राय और सुंदरलाल जी को घोर रूढ़िवादियों द्वारा कांग्रेस में 'छिपे हुए साम्यवादी' की उपाधि से विभूषित किया जाता था।
सुंदरलाल जी की विद्वता का सबसे बड़ा साक्ष्य यह है कि भारत में अंग्रेजी राज जैसा ग्रंथ लिखकर उन्होंने अंग्रेजों को उसकी सच्चाई बताने का काम किया। उन दिनों चांद के संपादक रामरख सहगल ने उनके उस ऐतिहासिक ग्रंथ को बहुत खतरा उठाकर प्रकाशित किया, जिसे साम्राज्यवादी हुकूमत ने खतरनाक मानकर जब्त कर लिया। उस पुस्तक में हिंदू-मुस्लिम एकता के सूत्र इस तरह सूचीबद्ध किए गए कि उसमें एक अलग हिंदुस्तान के निर्माण के संकेत साफ-साफ झांकते-बोलते दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें सामने रखकर आज भी समाज में सद्भाव की मजबूत इमारत बनाने का उद्यम किया जा सकता है।
नौ मई, 1981 को दिल्ली में पंडित जी का जब निधन हुआ, तब लगा कि कौमी एकता का वह सबसे बड़ा पहरुआ हमसे बिछुड़ गया, जिसकी हमें अभी जरूरत थी। हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के इस प्रबल पक्षधर को पीठ पीछे लोग मौलाना सुंदरलाल भी कहने लगे थे। जीवन के अंतिम दिनों में वह दिल्ली में इश्तियाक मिर्जा के परिवारी सदस्य के रूप में रहे। पंडित जी से एक बार महात्मा गांधी ने पूछा था, 'सुंदरलाल, सांप्रदायिकता की आंधी में मैंने बड़े-बड़े नेताओं को बदलते हुए देखा, किंतु तुम अपने विश्वास में अटल रहे, इसके पीछे क्या कारण है?'
पंडित जी ने गांधी जी को बताया कि बचपन में पिता उनका पट्टी पूजन आर्य संस्कृति से कराना चाहते थे, जबकि उनके दादा इस बात पर दृढ़ थे कि बालक की उंगलियां हाथों में लेकर तख्ती पर खड़िया-मिट्टी से अलिफ लिखवाया जाए। आखिर दोनों ही तरीके से उनका पाटी-पूजन संपन्न हुआ। एक मौलवी साहब ने कुरान की आयतें पढ़ते हुए अलिफ, तो दूसरी ओर वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए श्री गणेशाय नमः लिखवाया गया।
पंडित जी ने बाद में आत्मकथा भी बोलकर लिखाई, जिसमें कर्मयोगी और भविष्य के उनके संपादन के साथ इलाहाबाद, नागपुर की हलचलें, सांप्रदायिक सद्भाव के लिए उनके प्रयत्नों के साथ ही विश्व-शांति आंदोलन के लिए किए गए उनके कामकाज उद्घाटित हुए हैं। उन्हें सुनना हमें समृद्ध करता था। खतौली में पंडित जी के घर से लौटते हुए सोच रहा हूं कि यह मुजफ्फरनगर जिला, जिसे एक समय मुहब्बतनगर कहा जाता था, शमशेर बहादुर सिंह, विष्णु प्रभाकर, गिरिराज किशोर और भीमसेन त्यागी जैसे साहित्यकारों की भी जन्मभूमि है।
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