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- खड़गे और थरूर में...
आदित्य नारायण चोपड़ा; कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अब औपचारिक चुनाव होना प्रायः निश्चित है। किसी राजनैतिक दल के भीतर होने वाले इस चुनाव का स्वागत किया जाना चाहिए। पार्टी के आन्तरिक लोकतन्त्र की व्यवस्था अन्ततः इस प्रणाली के 'जनता की सत्ता' की अवधारणा से जाकर जुड़ती है और राजनैतिक प्रक्रिया में साधारण व्यक्ति की भागीदारी को मजबूत बनाती है। लोकतन्त्र में राजनीति का अन्तिम लक्ष्य सत्ता पर काबिज होना होता है अतः इसके प्रारम्भिक चरण 'राजनैतिक दल' की संरचना में आम नागरिक की प्रभावी व सक्रिय भूमिका ही 'जनता की सत्ता' को फलीभूत करने में निर्णायक बन जाती है। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए लगभग दो दशक बाद चुनाव हो रहे हैं। पिछला चुनाव श्रीमती सोनिया गांधी व स्व. जितेन्द्र प्रसाद के बीच हुआ था। यह चुनाव भी इस सिद्धान्त का द्योतक था कि लोकतन्त्र में निरापद (चुनौती रहित) कोई नहीं होता है। स्व. जितेन्द्र प्रसाद को यह भलीभांति मालूम था कि उनका चुनाव जीतना लगभग असंभव है परन्तु फिर भी उन्होंने श्रीमती सोनिया गांधी को चुनौती देने का फैसला किया था। यही लोकतन्त्र की वह अजीम ताकत थी जिसे जनता की ताकत कहा जाता है।आज भी माहौल कुछ ऐसा ही बना है कि पार्टी अध्यक्ष पद के लिए एक तरफ राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री मल्ल्किार्जुन खड़गे ने नामांकन भरा है तो दूसरी तरफ केरल से सांसद औऱ अपेक्षाकृत नवोदित कांग्रेसी नेता श्री शशि थरूर ने चुनावी मैदान में ताल ठोकने का फैसला किया है। साथ ही झारखंड से भी एक कांग्रेसी नेता श्री के.एन. त्रिपाठी ने अपने नाम का पर्चा भर कर कांग्रेस चुनाव के अधिकारी श्री मधुसूदन मिस्त्री को दिया है। वैसे नामांकन भरने के पर्चे कांग्रेस के एक और जाने-माने नेता श्री दिग्विजय सिंह ने भी लिये थे मगर बाद में उन्होंने श्री खड़गे के पक्ष में बैठने का मन बना लिया। अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए मतदान 17 अक्टूबर को होगा और नतीजा 18 अक्टूबर को आ जायेगा। अधिसंख्य कांग्रेसियों का मानना है कि विजय श्री खड़गे की ही होगी क्योंकि उनके नामांकन पत्र भरने के समय जिस तरह पार्टी के एक से बढ़ कर एक कद्दावर नेताओं का हुजूम उनके साथ था उससे उनको मिल रहे समर्थन का अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह भी माना जा रहा है कि श्री खड़गे को नेहरू-गांधी परिवार का परोक्ष समर्थन प्राप्त है जिसकी वजह से पूरी पार्टी मशीनरी उनके हक में खड़ी नजर आ रही है। चुनाव में पूरे देश के नौ हजार से अधिक कांग्रेस पार्टी के डेलीगेट वोट डालेंगे। सवाल यह पैदा होता है कि क्या ये डेलीगेट अपना वोट डालने से पहले दोनों प्रत्याशियों की बदलते समय के अनुरूप योग्यता व पात्रता का आंकलन भी करेंगे? जहां तक श्री खड़गे का सवाल है तो वह एक तपे हुए कर्त्तव्यनिष्ठ व कांग्रेस के सिद्धान्तों के प्रति पूर्णतः समर्पित नेता हैं । दूसरी तरफ श्री थरूर वर्तमान समय की जरूरतों के मुताबिक कांग्रेस का काया कल्प करना चाहते हैं और पार्टी के सांगठनिक ढांचे का विकेन्द्रीकरण करके इसे कार्यकर्ता मूलक बनाना चाहते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण विषय है जिसका समर्थन 'सत्ता के विकेन्द्रीकरण' सिद्धान्त के आधार पर स्वयं कांग्रेस पार्टी भी करती रही है। श्री थरूर कांग्रेस में हाईकमान संस्कृति को संशोधित इस प्रकार करना चाहते हैं कि जिला स्तर से लेकर राज्य स्तर की कांग्रेस कमेटियों की समस्याओं का अंतिम हल उसी स्तर पर हो और हर बात के लिए हाईकमान के पास न दौड़ा जाये। इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि राज्य में पार्टी की सरकार के मुखिया के फैसले के लिए एक पंक्ति के इस प्रस्ताव 'अन्तिम फैसला कांग्रेस अध्यक्ष पर छोड़ा जाता है' की जरूरत क्यों पड़े। राज्य विधानमंडल दल को ही इसका फैसला करने का अधिकार दिया जाये। संपादकीय :दलित युवक का दारुण चीत्कार !पीएफआई की सही जगहये कैसे बच्चे...कौन बनेगा कांग्रेस अध्यक्ष ?राजस्थान में वफादारी का दांवशहीद भगत सिंह के नाम पर हवाई अड्डादरअसल शशि थरूर उस नेहरू युग की बात कर रहे हैं जब प. बंगाल के मुख्यमन्त्री स्व बिधानचन्द्र राय प्रधानमन्त्री पद पर विराजमान पं. नेहरू को खत इस सम्बोधन के साथ लिखा करते थे 'माई डियर जवाहर लाल'। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे स्व. चन्द्रभानु गुप्ता ने दिल्ली में पं. नेहरू के निवास तीन मूर्ति मार्ग पर आयोजित एक बैठक में साफ कर दिया था कि पंडित जी, यूपी का शासन दारुल शफा से चलेगा तीन मूर्ति से नहीं (उस समय यूपी के मुख्यमन्त्री का निवास लखनऊ में दारुल शफा मार्ग हुआ करता था)। जवाहर लाल जी के बाद स्व. इन्दिरा गांधी के जमाने में कांग्रेस की संस्कृति पूरी तरह बदल गई। हालांकि इन्दिरा जी के 1969 से लेकर 1974 तक के शासनकाल को भारत का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है परन्तु उन्होंने अपनी पार्टी में व्यक्ति पूजा को स्थापित कर इसके लोकतान्त्रिक चरित्र को सजावटी बना दिया था। पुनः नेहरू युग में लौटना झटके में संभव नहीं है क्योंकि पार्टी कार्यकर्ताओं का चरित्र भी बदल चुका है।एक मायने में श्री थरूर की सोच आदर्शवादी कही जा सकती है। मगर उनकी उम्मीदवारी का स्वागत होना चाहिए क्योंकि वह पार्टी मंे बदलाव लाना चाहते हैं। इसकी शुरूआत तो हालांकि नेहरू-गांधी परिवार के इस फैसले से हो भी चुकी है कि अध्यक्ष पद पर परिवार का कोई व्यक्ति नहीं बैठेगा। मगर ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस 1914 से 1948 तक महात्मा गांधी के साये में चली और उसके बाद यह नेहरू-गांधी परिवार के साये में चल रही है। इस साये के बगैर कांग्रेस का तसव्वुर करना बेमानी होगा। इसलिए हर कांग्रेसी की यह तमन्ना होती है कि उसका रसूख इस परिवार तक बने। इसमें गलत कुछ भी नहीं है मगर विरासतों को साबित भी करना पड़ता है और 'भारत-जोड़ो यात्रा' करके यही काम श्री राहुल गांधी आजकल कर रहे हैं। अध्यक्ष चुनाव से हट कर नेहरू-गांधी परिवार ने आम कांग्रेसियों में बदलाव की तरफ बढ़ने की प्रेरणा ही तो दी है। ''कह सके कौन कि ये जलवागिरी किसकी है पर्दा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने !