सम्पादकीय

केशव देसिराजू: एक अनुकरणीय भारतीय, हमेशा रहेंगे याद

Gulabi
12 Sep 2021 5:32 AM GMT
केशव देसिराजू: एक अनुकरणीय भारतीय, हमेशा रहेंगे याद
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केशव देसिराजू

मेरा अपना जीवन काफी हद तक व्यक्तिगत सफलता की तलाश के लिए समर्पित रहा है, शायद इसलिए मैंने हमेशा उन लोगों के प्रति अपने अपराधबोध में गहरा सम्मान महसूस किया है, जो दूसरों के लिए जीते हैं। मैं जिस लोकसेवक की सर्वाधिक प्रशंसा करता रहा हूं, उनका छासठ वर्ष की उम्र में पांच सितंबर को निधन हो गया। इस समय उनका जाना लगता है कि कुछ जल्दी हो गया (खासतौर से इसलिए, क्योंकि वह कोविड-19 से पीड़ित नहीं थे) और समाज तथा शोध के लिए उन्हें अभी और योगदान करना था। लेकिन उन्होंने जो कुछ भी किया और जिस तरह से किया, मैं उनकी मौत पर शोक नहीं मनाऊंगा, बल्कि उनके जीवन का उत्सव मनाऊंगा, जो कि हर लिहाज से अनुकरणीय था।

केशव देसिराजू से मेरी पहली मुलाकात वर्ष 1988 में हुई थी। उत्तराखंड के कुछ साझा मित्रों से मैंने सुन रखा था, जो इस बात से चकित थे कि कैसे इस मूल रूप से तेलुगू भाषी केंब्रिज यूनिवर्सिटी के स्नातक ने पहाड़ी लोगों के लिए खुद को इतना प्रिय बना लिया था। तब वह अल्मोड़ा के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे, जिस जगह के बारे में मैंने अपने शोध में लिखा है। मैं उनका काम देखने गया था, और उनकी धाराप्रवाह हिंदी और दूरस्थ क्षेत्रों में जाने के उनके उत्साह और पहाड़ियों में सतत विकास से जुड़ी चुनौतियों को लेकर उनकी गहरी समझ से प्रभावित हुआ
उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद केशव ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के उत्तराखंड कैडर में रहना मंजूर किया। चूंकि मैं खुद देहरादून में पैदा हुआ और वहीं बड़ा हुआ, लिहाजा उनकी मौजूदगी अक्सर उस राज्य में मेरे प्रवास के लिए प्रोत्साहन जैसी रही।
मैं खासतौर से, जल्द ही खाली कर दिए जाने वाले टिहरी कस्बे की उस यात्रा को याद करता हूं, जहां सुंदरलाल बहुगुणा टिहरी बांध के विरोध में उपवास कर रहे थे और जहां नीले देवदार के जंगल नजर आ रहे थे। देहरादून में मैंने देखा कि देसिराजू के प्रति सचिवालय में कैसा सम्मान था। वह ऐसे अनूठे अधिकारी थे, जिसे अपने विषय का ज्ञान था, व्यक्तिगत रूप से ईमानदार थे और जो अन्य लोगों से व्यवहार में पदानुक्रम को आड़े आने नहीं देते थे।
1998 में मैं और केशव मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों की यात्रा करते हुए उन गांवों में गए थे, जहां मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन ने काम किया था। आखिरी रात को हम अमरकंटक में सड़क किनारे के एक भोजनालय में खाना खा रहे थे, तभी वहां किसी ग्राहक द्वारा छोड़ा गया हिंदी का अखबार पढ़ते हुए केशव ने गौर किया कि एम एस सुब्बुलक्ष्मी को 'भारत रत्न' से नवाजा गया है। अनूपपुर से दिल्ली की लंबी ट्रेन यात्रा के दौरान उन्होंने मुझे एम एस के कंसर्ट के बारे में बताया, जो उन्होंने देखे थे (आठ साल की उम्र में उन्होंने उनका पहला कंसर्ट सुना था, जो कि मुंबई के षणमुखानंद हॉल में हुआ था। उन्होंने एक-एक गीत को बारीकी से याद किया, जैसा कि उन्होंने उन्हें गाते हुए सुना था।
उत्तराखंड में कई वर्ष बिताने के बाद देसिराजू स्वास्थ्य मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव के रूप में दिल्ली आ गए। यहां उन्होंने पोलियो उन्मूलन और शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों के अधिकार को लेकर अभियान चलाया और फिर सचिव के रूप में पदोन्नत होने के बाद देश में मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा का दायरा बढ़ाने के लिए काम किया। उन्होंने, साहसपूर्वक भारतीय चिकित्सा परिषद को चलाने वाले भ्रष्ट दल का विरोध किया, जिसकी जेब में कई प्रभावशाली राजनेता थे। इस अभियान के कारण और तमाखू लॉबी के उनके विरोध के कारण इस शानदार अधिकारी को यूपीए सरकार ने स्वास्थ्य विभाग से हटा दिया। तब आम चुनाव नजदीक थे, ऐसे में इस ईमानदार सचिव को किनारे लगा दिया गया, क्योंकि वह अवैध तरीके से धन उगाही की राह में बाधा बन रहा था।
बरसों से भारत के वरिष्ठ नौकरशाह अपने अहंकार, अपने राजनीतिक आका की खुशामद करने और नैतिकता की कमी के लिए जाने जाते हैं। केशव देसिराजू में इनका पूरी तरह से अभाव था। अपनी पूर्ववर्ती के. सुजाता राव की तरह, वह दुर्लभ स्वास्थ्य सचिव थे, जिनका डॉक्टरों, मेडिकल स्कूल के प्रोफेसरों और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा बहुत सम्मान किया जाता था। यूपीए सरकार द्वारा उनका स्थानांतरण किए जाने की देश भर के स्वास्थ्य पेशेवरों ने कड़ी निंदा की थी।
केशव और मैं करीब आते गए, पेशेवर और व्यक्तिगत रूप से मेरे मन में उनके लिए सम्मान बढ़ता गया। इसकी वजह थी अपने भाई-बहनों के प्रति उनका समर्पण और शास्त्रीय संगीत का उनका असाधारण ज्ञान। मध्य भारत की हमारी ट्रेन यात्रा के दौरान उन्होंने मुझे बताया था कि वह एम एस सुब्बुलक्ष्मी की जीवनी लिखना चाहते हैं। सेवानिवृत्त होने के बाद केशव ने दशकों से उनके मन में चल रही एम एस परियोजना को मूर्त रूप दिया और आखिरकार इस साल के शुरू में यह एक किताब के रूप में सामने आई। किताब का नाम है, ऑफ गिफ्टेड वॉयस : द लाइफ ऐंड आर्ट ऑफ एम एस सुब्बुलक्ष्मी और इसे हार्पर कोलिंस ने छापा है। यह एक प्रभावशाली शोधपरक काम है और यह ओलिवर क्रेस्के की इंडियन सन : द लाइफ ऐंड म्यूजिक ऑफ रविशंकर के साथ किसी भारतीय संगीतकार पर दूसरी श्रेष्ठ पुस्तक है। सेवानिवृत्ति के बाद केशव ने अपने पेशेवर काम पर केंद्रित निबंधों का सह संपादन भी किया, जिसका नाम है, हीलर्स ऑर प्रिडेटेर्स? हेल्थकेयर करप्शन इन इंडिया, जिसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है।
केशव ने जो कुछ किया, उसके लिए मैं उनकी प्रशंसा करता हूं। हम दोनों खुद को नेहरूवादी भारतीय के रूप में देखते रहे हैं, क्योंकि हम समावेशी और सांस्कृतिक रूप से बहुलतावादी भारत के पक्ष में थे, जिसके लिए हमारे पहले प्रधानमंत्री ने लड़ाई लड़ी। हालांकि केशव मुझसे कहीं अधिक गहराई में डूबे नेहरूवादी भारतीय हैं, क्योंकि वह भारत की सांस्कृतिक और भाषायी समृद्धि में कहीं अधिक गहरे तक डूबे हुए थे। उन्हें संगीत के साथ ही हमारे शास्त्रीय साहित्य का भी ज्ञान था। वह तेलुगू, तमिल, हिंदी और अंग्रेजी धाराप्रवाह बोल सकते थे और कुछ संस्कृत भी जानते थे।
केशव देसिराजू हिंदुत्व से घृणा करते थे। जिस हिंदू धर्म को उन्होंने स्वयं समझा और अभ्यास किया, उसमें मानवता और करुणा और दार्शनिक गहराई थी, जो आज भारत की सड़कों पर हिंसक रूप से चलने वाले आस्था के स्वयंभू रक्षकों के लिए पूरी तरह से समझ से बाहर है।
मेरे पास अपने हमवतन की कई शानदार यादें हैं, जिनमें सबसे शुरुआती शायद सबसे अधिक विशिष्ट है। 1988 में अल्मोड़ा की यात्रा के दौरान सामाजिक कार्यकर्ता असित मित्रा, ललित पांडे, केशव और मैं रविवार को बानड़ी देवी मंदिर के चारों ओर पवित्र उपवन देखने गए थे। केशव के आग्रह पर हम डीएम की लालबत्ती वाली सरकारी गाड़ी के बजाय असित की खटारा जीप से गए। वह एक आनंदमय भ्रमण था, जब हम ओक से घिरी पहाड़ी में शीर्ष पर स्थित मंदिर तक की चढ़ाई चढ़ रहे थे, जिले का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति अपने दोस्तों के साथ इस गुप्त रूप में पूरी तरह संतुष्ट था।
तीस साल बाद कुमाऊं में मैंने यह कहानी समकालीन भारत में गांधीवादी आंदोलन की दिग्गज राधा भट्ट से साझा की। राधा बहन ने भी अपनी कहानी साझा की। अल्मोड़ा के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के रूप में हमारे यह मित्र जब कभी कसौनी में होते थे, तब वह अपने ड्राइवर को पहाड़ी के नीचे छोड़ देते थे, जहां पर लक्ष्मी आश्रम स्थित है और फिर एक व्यक्ति के साथ अकेले ही पहाड़ी पर एक दो घंटे बिताते थे, जिसे पहाड़ी और वहां के लोगों के बारे में किसी भी अन्य से अधिक जानकारी थी।
मैं जब यह आलेख लिख रहा हूं, तब केशव दसिराजू द्वारा तराशे गए एक स्कॉलर ने मुझे एक अखबार की कतरन भेजी कि कैसे अल्मोड़ा के लोग उनके निधन पर शोक मना रहे हैं।
केशव देसिराजू के नाना देश के दूसरे राष्ट्रपति दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। केशव ने अपने वंश को हल्के में लिया और यह भी उनकी विशेषता थी। उन्हें जानने वाले अनेक लोगों को पता नहीं था कि वह किसके नाती हैं। अनूठा लेकिन सुखद संयोग है कि उनका निधन उसी दिन हुआ, जिस दिन पांच सितंबर को उनके नाना का जन्म हुआ था, जिसे शिक्षक दिवस के रूप में जाना जाता है।
वह मेरे परिचितों में सबसे अनुकरणीय भारतीय थे - लोक सेवक, विद्वान, शिक्षक, पारिवारिक व्यक्ति और मित्र के रूप में अनुकरणीय।
नेहरूवादी केशव देसिराजू के नाना देश के दूसरे राष्ट्रपति दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। केशव ने अपने वंश को तवज्जो नहीं दी और यह भी उनकी विशेषता ही थी। उन्हें जानने वाले अनेक लोगों को पता नहीं था कि वह किसके नाती हैं।
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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