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नन रेप केस में बिशप फ्रैंको के बरी होने की कहानी
प्रवीण कुमार।
केरल (Kerala) के कोट्टायम एडिशनल सेशंस कोर्ट (Kottayam Additional Sessions Court) में जब अतिरिक्त जिला जज जी. गोपकुमार ने कहा, "बिशप फ्रेंको मुलक्कल (Bishop Franco Mulakkal) को कोट्टायम कॉन्वेंट की नन की ओर से लगाए गए रेप के आरोपों से बरी किया जाता है." तो कोर्ट में मौजूद लोग एक-दूसरे को देखते रह गए. एकबारगी तो किसी को भरोसा ही नहीं हुआ कि बिशप फ्रेंको को बरी भी किया जा सकता है. शायद बिशप फ्रेंको मुलक्कम को भी ऐसे फैसले का अंदाजा नहीं होगा. पीड़िता का साथ देने वाले जांचकर्ताओं, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं तक ने कोर्ट के इस अजीबोगरीब फैसले पर आश्चर्य जताया.
जांच टीम के अगुवा एस. हरिशंकर का तो यहां तक कहना है कि उन्हें इस मामले में शत-प्रतिशत दोष साबित होने की उम्मीद थी. सरकारी वकील जितेश बाबू भी फैसले से अचंभित हैं. तो फिर क्या कहा जाए इस फैसले के बारे में? अगर यह फैसला Judicial Default Setting का मसला है, अगर न्यायिक चूक हुई है तो ये सवाल भी उठता है कि आखिर किसकी चूक से इस तरह का फैसला सामने आया? वो कौन सा फैक्टर है जिसने न्यायिक चूक में मददगार साबित हुआ? समझते हैं जालंधर डियोसेज़ के पूर्व बिशप फ्रेंको मुलक्कल के बरी होने की पूरी कहानी…
क्या है नन रेप केस की पूरी कहानी?
जून 2018 की बात है जब केरल की 43 साल की एक नन ने रोमन कैथोलिक के जालंधर डायोसिस के तत्कालीन बिशप फ्रैंको मुलक्कल पर यौन शोषण का आरोप लगाया था. पुलिस को दिए बयान में पीड़िता ने कहा था कि फ्रैंको ने कोट्टायम जिले के कुराविलंगड के पास सेंट फ्रांसिस मिशन होम में उससे पहली बार रेप किया था, फिर दूसरे राज्यों के गेस्ट हाउस में भी लेकर गया और लगातार यौन शोषण करता रहा. मई 2014 से सितंबर 2018 के बीच 13 बार दुष्कर्म किया गया. चर्च प्रशासन से कई बार शिकायत भी की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होने पर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. शुरुआती जांच के बाद बिशप फ्रैंको के खिलाफ केस दर्ज किया गया. पुलिस ने फ्रैंको को जांच के लिए केरल बुलाया और 21 सितंबर 2018 को गिरफ्तार कर लिया गया. हालांकि एक माह बाद ही फ्रैंको को केरल हाईकोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ जमानत दे दी.
4 अप्रैल 2019 को फ्रैंको के खिलाफ लगभग 2,000 पन्नों का आरोप पत्र केरल पुलिस ने दाखिल किया. इसमें फ्रैंको के खिलाफ आईपीसी की धारा 342 (गलत तरीके से बंद रखने), 376सी (पद का दुरुपयोग कर यौन संबंध बनाने), 377 (अप्राकृतिक यौन संबंध) और 506(1) (धमकी) के तहत आरोप लगाए गए थे. नवंबर 2019 में जब बहस शुरू हुई तो अदालत ने इस दौरान कुल 83 गवाहों में से 39 से पूछताछ की. चार्जशीट में 83 गवाह बनाए गए थे.
शुक्रवार 14 जनवरी 2022 को फैसला सुनाया गया. यहां जज जी. गोपकुमार ने फैसले में जो कुछ कहा उन शब्दों पर गौर कीजिए, "जैसा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जब सच को झूठ से अलग करना संभव न हो, तो एकमात्र उपाय यही है कि साक्ष्य को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाए. बताए गए हालात में, ये अदालत पहले सरकारी गवाह (पीड़िता) की अकेले में दी गई गवाही पर भरोसा करके, अभियुक्त पर लगाए गए आरोपों के लिए उसे दोषी ठहराने में लाचार पाता है. लिहाजा मैं अभियुक्त को उस पर लगाए गए आरोपों से बरी करता हूं."
कोर्ट के फैसले में आखिर चूक कहां और कैसे हुई?
"जब सच को झूठ से अलग करना संभव न हो, तो एकमात्र उपाय यही है कि साक्ष्य को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाए." इस लाइन को भले ही देश की सर्वोच्च अदालत ने बयां किया हो जैसा कि इस केस के फैसले में जज साहब ने कोट किया है, लेकिन इसी आधार पर अगर फैसले देने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो लोगों का न्याय के मंदिर से भरोसा उठ जाएगा. ये अपने आप में बड़ी चूक है और इसपर पुनर्विचार किया जाना चाहिए. 250 से अधिक पन्नों में लिखे गए फैसले को पढ़ने के बाद जो लोग पीड़िता के साथ खड़े हैं या कानूनी मामलों के जानकार हैं, अलग-अलग नजरिये से इसकी व्याख्या कर रहे हैं. विशेष सरकारी वकील जितेश बाबू का कहना है कि दिए गए विभिन्न बयानों में मामूली अंतर से पीड़िता पर संदेह किया गया, जो स्वीकार्य नहीं है.
बयान में मामूली बदलाव से विश्वसनीयता का पता चलता है, जबकि तोते जैसे रटे-रटाए बयानों को खारिज कर दिया जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट भी इसी नियम को मानता है. लेकिन अदालत यहां इस तथ्य को समझने में नाकाम रही. पीड़िता की कानूनी टीम की सदस्य वकील संध्या राजू का कहना है कि इस फैसले में असल में महिला के नजरिए को जगह नहीं दी गई. संध्या राजू के कहने का मतलब यह है कि जज ने पुरुष सत्ता के हितों के हिसाब से तकनीकी व्याख्या की है. उनके लिए न्याय नहीं बल्कि तकनीकी बारीकियां मायने रखती हैं. लिहाजा जब तक कानूनी प्रक्रियाओं में बदलाव नहीं होता, महिलाओं को यह महसूस होता रहेगा कि कानून उनके खिलाफ है. शायद तभी खासतौर पर इस केस में कई बार बात उठी थी कि कानून में संशोधन किया जाएगा ताकि फैसला रेप पीड़िता के पक्ष में जाए.
जितेश बाबू की बातों को नहीं कर सकते खारिज
विशेष सरकारी वकील जितेश बाबू ने इस केस में सुनाए गए फैसले की जो व्याख्या की है उसे खारिज नहीं किया जा सकता है. उन्होंने इस बात की ओर भी इशारा किया है कि फैसले में चर्च के कामकाज के तरीकों को ठीक से नहीं समझे जाने का भाव भी प्रदर्शित होता है. बाबू का कहना है कि अभियोजन पक्ष के सभी गवाहों को 'मामूली आधार पर अविश्वसनीय' बताना ठीक नहीं है. जांच में पाई जाने वाली छोटी-मोटी गलतियों में से किसी का भी मामले की जड़ से कोई लेना-देना नहीं है. एक नन जो कि दूसरी सरकारी गवाह भी थीं, उनका उदाहरण देते हुए बाबू कहते हैं कि अपने समूह से निकाले जाने के डर से उन्होंने (नन) जवाब दिया कि पहले उसने पुलिस के दबाव में बयान दिया था. लेकिन उसके इस बयान का इस्तेमाल यह निष्कर्ष निकालने के लिए किया गया है कि वो एक भरोसेमंद गवाह नहीं हैं. जिन परिस्थितियों में उस नन ने ये लेटर दिया उसे तो आंका ही नहीं गया.
इसी तरह से एक और बात जिसका ध्यान फैसले में नहीं रखा गया वह यह कि-
"अदालत ने ये माना है कि अभियुक्त यानि फ्रैंको पीड़िता पर सर्वोच्च अधिकार रखता है. उसके पास शक्तियां हैं जिससे वो पीड़िता की जिंदगी को प्रभावित कर सकता है. ऐसी स्थिति में, विरोध करने में असमर्थता और रिपोर्टिंग में देरी स्वाभाविक सी बात है. इसे संदर्भ में देखा जाना चाहिए था. ऐसा नहीं हुआ और फैसला पूरी तरह से संदर्भ से चूक गया."
बाबू का ये भी कहना है कि आदेश को अदालत में पढ़ा या साइन नहीं किया गया था. इसके प्रकाशन में अनुचित देरी हुई जो गाइडलाइंस के खिलाफ था. पुलिस अधीक्षक एस. हरिशंकर ने भी इस बात पर जोर दिया है कि यह कहना गलत है कि पर्याप्त सबूत नहीं हैं. हम अपील के लिए जाएंगे.
सवालों की झड़ी भी रेप की पीड़ा से कम नहीं
हाल के दिनों ऐसा खूब हो रहा है कि यौन शोषण की शिकार महिलाओं को समाज में ताने दिए जाते हैं कि एक रेप पीड़िता को कैसा व्यवहार करना चाहिए. अगर वह खुद को खुद की तरह से पेश करती है तो उसकी गवाही को भी अविश्वसनीय ठहरा दिया जाता है. सवाल पूछे जाते हैं, रेप के एक दिन बाद वह क्यों हंसी थी? वह आरोपी के जैसी कार में कैसे यात्रा कर सकती थी? उसने आरोपी के खिलाफ बोलने में इतना वक्त क्यों लगाया? ये सब ऐसे सवाल हैं जो रेप पीड़िता को हतोत्साहित करते हैं, सवालों की ये झड़ी उसे बार-बार रेप की पीड़ा का अहसास कराते हैं. सबको मालूम है कि रेप एक ऐसा मसला है जिसका अक्सर कोई प्रत्यक्ष गवाह नहीं होता. लिहाजा रेप पीड़िता की एकमात्र गवाही को न्यायिक प्रक्रिया में उचित महत्व जब तक नहीं दिया जाएगा, फैसलों में चूक होगी और जब-जब चूक होगी तब-तब न्याय व्यवस्था पर सवाल भी उठेंगे.
जब कानून की आंखें और कान रेप पीड़िता को सुनने के लिए या उसकी परिस्थितियों को समझने के लिए या फिर दुनिया उसे कैसी दिखती है, को समझने में विफल होगी तो जो फैसले सुनाए जाएंगे उसमें चूक होगी. जब कानून रेप पीड़िता की चुप्पी में आरोपी की शक्ति को देखने में चूक जाता है, तो तय मानिए न्याय मिलने में लंबा वक्त लगेगा और जब न्याय का वक्त लंबा हो जाता है तो भले ही उसके लिए सुरक्षा का मुकम्मल इंतजाम क्यों न मुहैया करा दिया जाए, लेकिन उस लंबे वक्त में उसके साथ और क्या-क्या हो सकता है इसका अनुमान लगाना कल्पना से परे होता है. हमारा देश ऐसे बुरे फैसलों से पटा पड़ा है.
बहरहाल, नन रेप केस के फैसले की कॉपी अब पब्लिक डोमेन में है. जो लोग पीड़िता के साथ खड़े हैं वो इसको पढ़ेंगे, समझेंगे और ऊपरी अदालत में फैसले के खिलाफ अपील भी करेंगे जैसा कि विशेष सरकारी वकील जितेश बाबू और जांच टीम के अगुवा एस. हरिशंकर ने कहा भी है. अगर ऐसा हो पाता है जिसमें न्याय की आस जगती है तो यह निश्चित रूप से न सिर्फ इस केस की शिकायतकर्ता के लिए, बल्कि रेप की सभी पीड़िता के लिए न्याय और सम्मान की बहाली जैसा होगा. लेकिन नन रेप केस में निचली अदालत के फैसले पर जिस तरह की टीका- टिप्पणी हो रही है, देश के कानून निर्माताओं के लिए बड़ी चेतावनी है. वक्त रहते संसद में बैठे कानून निर्माताओं ने इसको गंभीरता से नहीं लिया तो वो वक्त दूर नहीं जब देश की न्याय प्रक्रिया से लोगों का भरोसा उठ जाएगा.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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