सम्पादकीय

Kerala High Court: वैवाहिक जवाबदेही तय करने वाला फैसला

Neha Dani
13 Sep 2022 6:18 AM GMT
Kerala High Court: वैवाहिक जवाबदेही तय करने वाला फैसला
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ताकि समय रहते इस चुनौती से निपटा जा सके। -लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।

केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने तलाक के एक मामले की सुनवाई करते हुए वर्तमान समय में वैवाहिक संबंधों की स्वार्थपरता और टूटन को रेखांकित किया है। न्यायमूर्ति ए. मोहम्मद मुश्ताक और न्यायमूर्ति सोफी थॉमस की इस पीठ ने अपनी टिप्पणी में समाज को आईना दिखाने का सराहनीय कार्य किया है। इस पीठ ने कहा है कि आज की युवा पीढ़ी विवाह को एक अनावश्यक बुराई और बोझ मानने लगी है। यह पीढ़ी उत्तरदायित्वहीन जीवन जीते हुए आनंद उठाना चाहती है और विवाह जैसी सामाजिक जिम्मेदारी से बचना चाहती है। इसका विकल्प उसने 'लिव-इन' संबंध के रूप में ढूंढ निकाला है। शिक्षित, शहरी और समृद्ध वर्ग में भले ही यह प्रवृत्ति अधिक दिख रही हो; पर अशिक्षित/अल्पशिक्षित, ग्रामीण और गरीब तबका भी इससे अछूता नहीं है। विवाह संस्था के प्रति अनास्थावान युवा पीढ़ी पश्चिम प्रेरित और उपभोक्तावादी संस्कृति की शिकार है। यह विवाह संस्था को खोखला करने पर उतारू है।




निस्संदेह, न्यायालय की यह टिप्पणी सामाजिक विचलन की सार्वजनिक स्वीकृति और अभिव्यक्ति है। न्यायालय ने यह तल्ख टिप्पणी अलापुषा के एक 34 वर्षीय व्यक्ति द्वारा दायर अपील को निरस्त करते हुए की। एक अन्य स्त्री के साथ अवैध संबंध रखने वाले इस व्यक्ति की 'वैवाहिक क्रूरता' को आधार बनाकर दायर तलाक की अर्जी को पारिवारिक अदालत ने खारिज कर दिया। उल्लेखनीय है कि यह व्यक्ति अपनी पत्नी से तलाक चाहता है, जो उसके तीन बच्चों की मां भी है। उसने अपनी पत्नी पर असामान्य व्यवहार और क्रूरता का आरोप लगाते हुए पारिवारिक अदालत में विवाह-विच्छेद की याचिका दायर की थी। हालांकि, अदालत ने पत्नी के प्रतिरोध को 'असामान्य व्यवहार' और 'किसी भी प्रकार की क्रूरता' न मानते हुए 'निराधार' तलाक की मंजूरी देने से इनकार कर दिया। केरल उच्च न्यायालय ने पारिवारिक अदालत के निर्णय को चुनौती देने वाली अर्जी को खारिज करते हुए बदलते समसामयिक परिदृश्य, सामाजिक संबंधों और जीवन-मूल्यों पर गंभीर टिप्पणी की। इस याचिका के निस्तारण की पृष्ठभूमि में न्यायालय द्वारा उठाए गए प्रश्न और चिंताएं विचारणीय हैं। न्यायालय की चिंताएं समाज का ध्यान आकृष्ट करने वाली हैं और गहन चिंतन और संशोधन की मांग करती हैं।


उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण एक सार्वभौम सच्चाई है। आज पश्चिम प्रेरित उपभोक्तावादी संस्कृति का चतुर्दिक बोलबाला है। भारतीय समाज भी उससे अप्रभावित नहीं है। विवाह दो व्यक्तियों को ही नहीं, दो परिवारों और समाजों को जोड़ता है। यह एक विशिष्ट सामाजिक अनुबंध और पवित्र मानवीय संबंध होता है। यह सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा, भावनात्मक निर्भरता और शारीरिक-मानसिक सुख-शांति का सहकारी संबंध होता है। परिवार
सामाजिक गुणों की प्रथम पाठशाला होता है। अगर वैवाहिक संस्था संकटग्रस्त होती है, तो परिवार भी संकटग्रस्त होंगे। वैवाहिक संबंधों में विचलन होने से समाज की नींव हिलना स्वाभाविक है।

आज पति-पत्नी, पिता-पुत्र, मां-बेटी और यहां तक कि प्रेमी-प्रेमिका भी साथ होते हुए भी दूर-दूर रहते हैं। यह मोबाइल के कंधों पर सवार सोशल मीडिया की हमारे निजी क्षणों में घुसपैठ है। वैदिक काल से ही विवाह सनातन संस्कृति का अत्यंत पवित्र और आवश्यक संस्कार है। भारतीय समाज में एक-दूसरे से संबंध तोड़ने की इच्छा रखने वाले जोड़ों, पिता अथवा माता द्वारा त्यागे गए बच्चों और निराश-हताश तलाकशुदा लोगों की संख्या क्रमशः बढ़ती जा रही है। स्वार्थ के कारण अथवा विवाहेतर संबंधों के लिए अपने बच्चों तक की परवाह किए बिना वैवाहिक बंधन को तोड़ना मौजूदा चलन बन गया है। इससे सामाजिक शांति, सुरक्षा, व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट होने की आशंका है। केरल उच्च न्यायालय की टिप्पणियों का संज्ञान लेकर सामाजिक जीवन में परिवार का महत्व स्वीकारने और समझने वाले लोगों और संस्थाओं को आगे आकर परिवार प्रबोधन का काम करना चाहिए, ताकि समय रहते इस चुनौती से निपटा जा सके। -लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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