सम्पादकीय

ईष्र्या-द्वेष, कटुता आदि को किनारे रखकर सभी को स्नेह के रंग में रंगने और गले लगाने का अवसर है होली

Gulabi Jagat
18 March 2022 7:30 AM GMT
ईष्र्या-द्वेष, कटुता आदि को किनारे रखकर सभी को स्नेह के रंग में रंगने और गले लगाने का अवसर है होली
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भारत त्योहारों का देश है। त्योहार हमारी संस्कृति के प्राणतत्व हैं
प्रणय कुमार। भारत त्योहारों का देश है। त्योहार हमारी संस्कृति के प्राणतत्व हैं। कोई ऐसी ऋतु नहीं, जो बिना त्योहार के रीतती-बीतती हो। त्योहारों से ही हमारा लोक और समाज नया जीवन, नया अर्थ और नई चेतना ग्रहण करता है। हमारे पर्व हमें दुनिया से भिन्न एक मौलिक एवं विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं। सनातन संस्कृति में पर्वो की यह परिपाटी सदियों पुरानी है। वास्तव में सनातन समाज अकेला ऐसा समाज है जो हजारों वषों से अपनी सामूहिक चेतना और स्मृतियों में अपने त्योहारों एवं परंपराओं को कमोबेश उनके मूल स्वरूप में सहेजे-संभाले हुए हैं।
भारत की मिट्टी-हवा-पानी में उत्सव का रंग घुला है। यह उत्सवधर्मिता हमारी जीवंतता और गतिशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण है। यह हमें सबके साथ घुलने-मिलने, सबको साथ लेने, सबके साथ चलने की प्रेरणा देती है। जीवन की कठोर वास्तविकताओं से जूझते, यथार्थ के थपेड़े ङोलते, दु:ख-सुख भोगते जब हमारे जीवन पर जड़ता एवं उदासीनता हावी होने लगती है, तो ये उत्सव ही हमें ऐसी मन:स्थिति से उबारते हैं। त्योहारों की ऐसी समृद्ध परिपाटी कदाचित हमारे ऋषियों-मुनियों एवं पुरखों की सवरेत्तम देन हैं।
होली केवल एक उत्सव भर नहीं है। यह एक सामाजिक अनुष्ठान है। होली समता का उत्सव है। हर व्यक्ति एवं समाज के जीवन में आरोह-अवरोह, ऊंच-नीच, हर्ष-विषाद, चिंता-उत्साह के क्रम आते ही रहते हैं। इन सबके बीच जीवन को गतिमान बनाए रखने के लिए यह अपेक्षित एवं आवश्यक है कि वर्षभर एकत्रित की गई कलुषता को प्रक्षालित कर दिया जाए, ताकि जीवन में नए संकल्प के साथ प्रविष्ट हुआ जा सके।
संभवत: इसीलिए भारतीय मनीषा एवं सनातन संस्कृति ने होली का यह अनूठा विधान रचा-रखा। वर्ष भर के ईष्र्या-द्वेष, कष्ट-ताप, कटुता-शत्रुता, प्रीति-कलह आदि को किनारे रख सभी को स्नेह के रंग में रंगने तथा गले लगाने का पवित्र पर्व है होली। तभी तो होलिका दहन से समस्त संकीर्णताओं-मलिनताओं को अग्नि को समर्पित कर नव संवत्सर के अभिनंदन का क्रम प्रारंभ हो जाता है।
वस्तुत: यह केवल व्यष्टिगत ही नहीं, समष्टिगत संकीर्णताओं के प्रक्षालन एवं परिष्कार का भी अनूठा पर्व है। यह व्यष्टि से समष्टि, अंधकार से प्रकाश और विनाश से सृजन और पुनर्जीवन की यात्र है। इस यात्र में संपूर्ण समाज की भागीदारी होती है। तमाम भेदों-विभेदों की उपस्थिति को पूर्णतया तिरोहित कर पूरा लोक ऐसे आनंद में अपने को सराबोर कर लेता है कि कहीं कोई भेद, कहीं कोई द्वैत रह ही नहीं जाता। भेद और द्वैत के पार जाकर सृष्टि के अणु-रेणु के साथ अद्वैत भाव से जुड़ना ही तो हमारी संस्कृति का सार-संदेश और जीवन का अंतिम लक्ष्य है। उस अद्वैत भाव की प्रत्यक्ष प्रतीति कराने एवं समरस समतामूलक समाज की स्थापना के सामूहिक प्रयासों का दूसरा नाम ही होली है। वस्तुत: सब प्रकार की सामाजिक विषमताओं की जड़ में अहंकार और प्रभुता की भावना निहित होती है।
हिरण्यकश्यप यह भूल गया था कि प्रकृति के विधि-विधानों, नियम-निषेधों से परे कोई नहीं होता। होली का त्योहार यह याद दिलाता है कि सबमें एक और एक में सबको देखना ही संतुलित एवं कल्याणकारी दृष्टि है और स्वयं को सवरेपरि एवं सर्व शक्तिशाली मानना असंतुलित एवं विनाशकारी। इसलिए होली के दिन न कोई बड़ा है, न छोटा है। हर व्यक्ति अपने-अपने चेहरों से कृत्रिम रंग उतारकर आत्मीयता के वास्तविक रंग में रंग जाता है। समाज में ऊपरी तल पर व्याप्त शक्ति-प्रभुता, धन-संपत्ति, अधिकार-अहंकार जनित विषमता के पार जाकर आंतरिक ऐक्य की अनुभूति कराने के लिए ही होली जैसे त्योहारों का विधान किया गया है। परम सत्ता में आस्था रखना, संपूर्ण चराचर में व्याप्त ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति करना, परस्पर सहयोग एवं बंधुत्व की भावना रखना तथा केवल अपना भाग ग्रहण कर शेष औरों के लिए छोड़ देना ही सच्चा ज्ञान है और यही होली का संदेश है।
रंग-पंचमी, रंग एकादशी, वसंत पंचमी और उसके बाद होली का आगमन होता है। यानी फागुन का सीधा संबंध रंगों से है। एक ओर प्रकृति में रंगों की अद्भुत छटा दिखाई देती है तो दूसरी ओर मानवीय जीवन में भी सहज उल्लास के रंग बिखरे होते हैं। इसी मौसम में कामदेव का अनंग रूप प्रकट होता है, इसलिए इसे मदनोत्सव भी कहते हैं। होली के अनेक रंग हैं। एक ओर यह तामसिक प्रवृत्तियों पर सात्विक शक्तियों की विजय का प्रतीक है तो दूसरी ओर यह रसराज श्रीकृष्ण-राधा और ब्रजबालाओं के अलौकिक-आध्यात्मिक प्रेम का भी प्रतीक है। काशी में इसे बाबा विश्वनाथ और मां पार्वती के अनन्य प्रेम के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है तो अवध में भगवान श्रीराम भी अपने मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि से मुक्त रघुवीरा बन जाते हैं और भक्तजन आनंद-आह्लाद से भर समवेत स्वर में गा उठते हैं -होली खेलें रघुवीरा अवध में।'
समाज को नैतिक अवलंब प्रदान करने के लिए कुछ मर्यादाएं भी आवश्यक होती हैं, पर वे समाज की बेड़ियां न बन जाएं, इसीलिए होली में सहज एवं स्वस्थ हास-परिहास की छूट दी गई है। होली हमें सब प्रकार की कुंठाओं, वर्जनाओं, आडंबरों और औपचारिकताओं से मुक्त होकर सहज और स्वाभाविक होने-रहने का अवसर प्रदान करती है। तकनीकी गैजेट्स एवं आधुनिक सुख-साधनों में डूबे आज के समाज के लिए होली जैसे उत्सव सर्वस्पर्शी सामाजिकता को संबल देने में आवश्यक, उपयोगी भी हैं और प्रासंगिक भी

(लेखक शिक्षाविद हैं)

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