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- कश्मीर में निशाने पर...

आदित्य चोपड़ा: जनवरी 1990 के बाद कश्मीर घाटी का इतिहास भारत की आजादी के दौरान पंजाब व प. बंगाल में धार्मिक पहचान के आधार पर हुए नरसंहार आबादी के स्थानान्तरण की लघु पुनरावृत्ति थी, यह राज अब भारत के बच्चे-बच्चे के सामने साफ हो चुका है। मूल रूप से जनवरी 1990 में हुई इस कश्मीरी मानवीय त्रासदी के मुख्य जिम्मेदार तत्कालीन प्रधानमन्त्री विश्वनाथ प्रताप सिंह व कश्मीरी गृहमन्त्री मुफ्ती मुहम्मद सईद थे जिनके दिल्ली में कुर्सी पर बैठते ही जम्मू-कश्मीर में इस्लामी जेहादी आतंकवाद का तांडव शुरू हो गया था। 32 साल पुराने उस इतिहास को यहां दोहराने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि वह दौर बाकायदा एक फिल्म के रूप में सार्वजनिक हो चुका है। इस फिल्म में दिखाये गये तथ्यों की तसदीक उस दौर के स्थानीय व राष्ट्रीय अखबारों की खबरों से की जा सकती है। बेशक इस फिल्म का नाम 'द कश्मीर फाइल्स' ही है। मगर 5 अगस्त, 2019 को भारत की संसद के माध्यम से जम्मू-कश्मीर रियासत का भाग्य बदलने का जो काम वर्तमान गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने संवैधानिक तरीके से डंके की चोट पर किया उससे देशवासियों में आशा बंधी थी कि जनवरी 1990 के दौरान अपना घर-बार छोड़ कर भागे कश्मीरी पंडितों व अन्य गैर मुस्लिम नागरिकों का लुटा संसार फिर से बसेगा और वे शान से अपने पुरखों की जगह कश्मीर घाटी में सिर उठा कर सम्मान के साथ चल सकेंगे। मजहब के नाम पर या अन्य किसी संकीर्ण एजेंडे पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति या संस्था उन्हें नुक्सान नहीं पहुंचा सकेगी। बेशक शुरू में यह माहौल बना भी और राष्ट्रद्रोही तंजीमों के हौसले पस्त भी हुए मगर बाद में उन्होंने फिर से सिर उठाना शुरू कर दिया। इनके सिर भी भारत के वीर रणबांकुरे सैनिकों व पुलिस के जवानों ने कुचले भी मगर सीमा पार के जेहादियों के चक्कर में फंसे कुछ लोग अपने तास्सुब का इजाहार करने से नहीं रुक सके और उन्होंने हिन्दुओं, पंडितों का मनोबल तोड़ने के लिए आतंकवादी रास्ता अपनाना शुरू किया। इसकी असली वजह यह थी कि पिछले 75 सालों से जिस तरह की कश्मीरी अलगाववादी सियासत को मजहबी चोला पहना कर यहां के लोगों को बरगलाने की कोशिशें क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने की हैं वे 5 अगस्त, 2019 के बाद खुद को लावारिस समझने लगे थे। अतः यह बेसबब नहीं है कि पिछले साल से घाटी में आतंकवादियों ने 'लक्षित' या खास समुदाय या पेशे के लोगों को चिन्हित करके उन्हें अपना शिकार बनाने की रणनीति अख्तियार की जिससे घाटी के क्षेत्र में सामान्य नागरिक व्यवस्था कायम न हो सके और समाज के खास तबकों के लोगों में डर पैदा हो सके। दो दिन पहले कश्मीर के कुलगाम जिले के गोपालपुरा गांव की सरकारी स्कूल की शिक्षिका श्रीमती रजनी बाला को इसलिए निशाना बनाया गया कि वह हिन्दू थीं और शिक्षा देने का काम करती थीं। स्व. रजनी बाला इतिहास की शिक्षक थीं। इससे दो सप्ताह पहले बड़गाम के सरकारी कर्मचारी राहुल भट्ट का कत्ल भी आतंकवादियों ने कर दिया था। जबकि टीवी कलाकार अमरीन भट्ट की हत्या भी 25 मई को उसके घर के सामने ही कर दी गई। मगर इससे पहले 17 मई को बारामूला में एक सरकारी शराब के ठेके के कर्मचारी की हत्या कर दी गई थी। इस प्रकार समाप्त मई महीने के भीतर चार लोगों को लक्ष्य करके मारा गया जबकि चालू वर्ष के पूरे पांच महीनों में अब तक 16 लोगों को निशाना बनाया गया जिनमें सरंपच से लेकर शिक्षक व अन्य पेशे के लोग शामिल हैं। आतंकवादी चाहते हैं कि घाटी में सामाजिक तनाव के साथ ही सरकारी प्रशासनिक तन्त्र में भी अफरा-तफरी का माहौल बना रहे और घाटी के हिन्दुओं को जो सुरक्षा देने का प्रयास सरकारी एजेंसियां कर रही हैं वह इस वर्ग के लोगों में कोई विश्वास न जगा पाये। ऐसा करके पड़ोसी पाकिस्तान के इस्लामी जेहादियों से प्रेरणा लेने वाले घाटी के कुछ सिरफिरे लोग हाथों में बन्दूक उठा कर अपने उन कश्मीरी भाइयों का ही भारी नुक्सान कर रहे हैं जो मूलतः अमनपसन्द हैं। आतंकवादियों की गतिविधियों का सबसे बुरा असर कश्मीरियों की अर्थव्यवस्था पर ही पड़ेगा क्योंकि सूबे के माहौल को सही समझ कर घाटी में देश-विदेश के पर्यटकों की संख्या में रिकार्ड वृद्धि हो रही है। इसके साथ ही जून महीने में ही अमरनाथ यात्रा की तैयारियां होनी शुरू हो जाती हैं। कश्मीरियों के जीवन में पारंपरिक रूप से प्राकृतिक व धार्मिक पर्यटन बहुत महत्व रखता है। इसके साथ ही 5 अगस्त, 2019 के बाद से केन्द्र सरकार ने जिस तरह इस सूबे की आर्थिक उन्नति करने के उद्देश्य से सामजिक- प्रशासनिक व आर्थिक क्षेत्र में नई परियोजनाओं को शुरू किया है उससे सबसे ज्यादा लाभ स्थानीय कश्मीरी जनता को ही होने वाला है विशेषकर युवा वर्ग को। यहां निजी क्षेत्र में निवेश की कई परियोजनाएं भी मूर्त रूप लेने की तैयारी कर रही हैं। ये सब तथ्य ऐसे हैं जिन्हें लेकर अलगाववादी सोच के लोग अपने अस्तित्व की चिन्ता में डूबने लगे हैं। रजनी बाला तो अनुसूचित जाति की थीं मगर नफरत से भरे जेहादी दरिन्दों ने उन्हें भी निशाना बनाया और कई मुस्लिम नागरिकों तक को भी। इससे साफ जाहिर है कि ये दरिन्दे कश्मीरियत तक कत्ल कर देना चाहते हैं। अतः इनसे निपटने के लिए सरकार को निश्चित रूप से नई कारगर रणनीति खोजनी होगी और स्थानीय कश्मीरी जनता को इसका पूरा समर्थन करना होगा।