सम्पादकीय

कश्मीरी नेताओं की बेचैनी

Subhi
19 Aug 2022 3:22 AM GMT
कश्मीरी नेताओं की बेचैनी
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जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियों के नेता अभी तक उस ‘अलगाव’ की मानसिकता में ही जी रहे हैं जो इस राज्य में अनुच्छेद 370 के लागू रहते हुए बनी हुई थी जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त था।

आदित्य चोपड़ा; जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियों के नेता अभी तक उस 'अलगाव' की मानसिकता में ही जी रहे हैं जो इस राज्य में अनुच्छेद 370 के लागू रहते हुए बनी हुई थी जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त था। 5 अगस्त, 2019 को विशेष दर्जे का माया जाल भारत की संसद ने जिस प्रकार तोड़ा वह स्वतन्त्र भारत के इतिहास का ऐसा स्वर्णिम दिन था जिसने पूरे जम्मू-कश्मीर का भारतीय संघ में व्यावहारिक विलय अन्य राज्यों के समान करते हुए ऐलान किया था कि इस राज्य के नागरिकों को भी वे सभी अधिकार मिलेंगे जो भारतीय संविधान समस्त भारत के नागरिकों को प्रदान करता है। वास्तव में 5 अगस्त, 2019 को जम्मू- कश्मीर का 'अलगाव समय' समाप्त किया गया था और इसके साथ ही इस राज्य में सक्रिय 'अलगाववादी' भी। मगर 370 का ढिंढोरा पीट-पीट कर राज्य की जनता को बरगलाने वाले क्षेत्रीय दलों जैसे नेशनल कान्फ्रेंस व पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) आदि का वह मोह जाल अभी तक नहीं टूटा है जिसमें 370 की आड़ लेकर ये पार्टियां राज्य की भोली-भाली कश्मीरी जनता को केन्द्र से मिलने वाली भारी इमदाद का इस्तेमाल अपनी खानदानी सियासत चमकाने और अपने हमदर्द अलगाववादियों को पालने-पोसने में किया करते थे। 370 के साथ ही धारा 35 ( ए) के लागू होने की वजह से इस राज्य को भारतीयों के लिए ही किराये का 'आशियाना' बना दिया गया था। क्या गजब का निजाम 370 के तहत लागू था कि इस राज्य में पाकिस्तान के बनने के बाद आने वाले शरणर्थियों को लोकसभा चुनावों में वोट डालने का हक तो था मगर 35(ए) की वजह से वे विधानसभा चुनावों मे वोट नहीं डाल सकते थे क्योंकि इस नियम के चलते वे जम्मू-कश्मीर राज्य के मूल निवासी नहीं समझे जाते थे हालांकि वे भारतीय थे।भारत के चुनाव नियम जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के तहत किसी भी प्रदेश में बसने वाले भारतीय नागरिक को उस राज्य में वोट डालने का अधिकार होता है और वह वैध वोटर या मतदाता माना जाता है। मतदाता कार्ड निवास के आधार पर बनता है मगर यह व्यवस्था जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं थी क्योंकि 370 के इस राज्य का अपना अलग संविधान भी था। एक ही देश मे दो संविधान चल रहे थे और भारत के लोग पिछले 72 सालों से इस स्थिति को सहन कर रहे थे। सहनशीलता की इससे अधिक पराकाष्ठा और कोई नहीं हो सकती। मगर तीन साल पहले इस विसंगति को भारत की संसद ने डंके की चोट पर दूर किया और एेलान किया कि भारत में रहने वाला कोई 'कश्मीरी' हो या 'तमिल' सभी के अधिकार एक समान होंगे और सबकी हैसियत संविधान की नजर में बराबर होगी अतः चुनाव आयोग ने एेलान किया कि जम्मू-कश्मीर की मतदाता सूची का पुनर्वालोकन भी उसी तरीके से होगा जिस तरह देश के किसी अन्य राज्य में होता है अर्थात इस राज्य में रहने वाले हर वयस्क व्यक्ति को वोट डालने का अधिकार मिलेगा और उसका नाम मतदाता सूची में जोड़ा जायेगा। एेसे नये मतदाता 25 लाख के करीब हो सकते हैं जो विभिन्न कारणों से जम्मू-कश्मीर राज्य में रह रहे हैं और किसी अन्य राज्य में मतदाता भी नहीं हैं। इनमें वे जम्मू-कश्मीर के मूल निवासी भी शामिल हैं जिनकी आयु 18 वर्ष की हो चुकी है। यह एक एेसी सामान्य प्रक्रिया है जो भारत के हर राज्य में चलती रहती है क्योंकि हर वर्ष युवा पीढ़ी के लोग 18 वर्ष की आयु को पार करते हैं और अपना नाम अपने निवास के राज्य की मतदाता सूची में जुड़वाते हैं। मगर इससे जम्मू-कश्मीर नेशनल क्रांफ्रैंस के नेता डा. फारूक अब्दुल्ला और पीडीपी की नेता मुफ्ती महबूबा आग बबूला हो रही हैं और आरोप लगा रहे हैं कि एेसा केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी सूबे में अपनी हुकूमत लादने के लिए कर रही है। एेसा कह कर इन पार्टियों के नेता लोकतन्त्र का ही नहीं बल्कि मतदाताओं का अपमान भी कर रहे हैं और चुनावों से पहले ही एेलान कर रहे हैं कि जितने भी नये मतदाता होंगे वे केवल भाजपा को ही वोट डालेंगे। इससे यह भी साबित होता है कि इन नेताओं को न तो अपने ऊपर भरोसा है और न लोकतन्त्र पर भरोसा है। इन लोगों की जहनियत जम्मू-कश्मीर को अपनी 'दादा-लाही' रियासत समझने की बन चुकी है और ये जम्मू-कश्मीर में रहने वाले नागरिकों को ही उनके वाजिब हक देने का कबूल नहीं कर पा रहे हैं। 'मियां वे दिन लद चुके जब फन्नेखां फाख्ता उड़ाया करते थे' ये 370 के बाद का जमाना है अगर हिम्मत है तो चुनाव मैदान में आकर मुकाबला करो और लोगों को समझाओ कि क्यों नया कश्मीर पूरे भारत के आन्तरिक इकसार निजाम के तहत तरक्की नहीं कर सकता और इसके लोग भी शेष भारत के लोगों की तरह हर क्षेत्र में तरक्की के नये-नये मंज्जर कायम नहीं कर सकते। कोई महबूबा मुफ्ती या अब्दुल्लाओं ने ही सूबे के मुख्यमन्त्री बनने का ठेका थोड़े ही लिया है। कोई बकरवाल या सेब के बागान का मजदूर भी इसका मुख्यमन्त्री क्यों नहीं बन सकता ? मतदाता सूची में वाजियब वोटरों के नाम जोड़े जाने से ही इतनी बेकरारी हो रही है कि चुनावों से पहले ही नतीजे ही बयान हो रहे हैं। जरूर वे दिन याद आ रहे हैं जब कश्मीर के लोगों की तरक्की के लिए मरकजी सरकार लाखों-करोड़ों की रकम भेजा करती थी और उसका हिसाब देने की तकलीफ 370 के चलते हुजूर को नहीं उठाना पड़ती थी!

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