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- राजनीतिक एजेंडे में...
कश्मीर फाइल्स फिल्म के चौतरफा विवाद, प्रचार और घोर राजनीतिकरण ने यह साबित कर दिया है कि सिनेमा जैसे मास मीडिया को किस प्रकार राजनीतिक हित साधने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। निश्चित रूप से कश्मीरी पंडितों का पलायन, यातना, नरसंहार, शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न से समस्त 130 करोड़ भारतवासियों का दिल द्रवित होना चाहिए था। 32 साल पहले के घटनाक्रम ने साढ़े तीन लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडितों को कश्मीर घाटी से अपना घर-बार ज़मीन जायदाद छोड़कर जम्मू और देश के दीगर इलाकों में शरणार्थियों की तरह दर-दर भटकने को बाध्य होना पड़ा था। फिल्म पर चर्चा से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि 1990 से लेकर 2022 तक यानी 32 सालों में कांग्रेस और भाजपा सरकारें केंद्र में सत्तारूढ़ रहीं, लेकिन कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए किसी भी सरकार ने गंभीरता नहीं दिखाई। यह हमारे राजनेताओं की असंवेदनशीलता, चुनौतीपूर्ण मुद्दों और समस्याओं से किनाराकशी व अल्पसंख्यकों के प्रति छद्म संवेदना व सहानुभूति का परिचायक है। यहां तक कि इस दौरान कश्मीरी पंडितों के प्रतिनिधिमंडल आरएसएस व भाजपा के नेताओं से मिलकर भी गुहार लगाते रहे, लेकिन हिंदुत्व का ढोल पीटने वाले संगठन कभी भी कश्मीरी पंडितों के पक्ष में खड़े नहीं दिखाई दिए। यहां तक कि 2014 में भाजपा के केंद्र में सत्ता प्राप्त करने और करीब अढ़ाई साल पहले 370 धारा हटाने के बाद भी कश्मीरी पंडितों को उनके घर, जमीन, बाग-बगीचे वापस दिलाने या उनके लिए कॉलोनियां बसाने, उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के प्रयास धीमी गति के समाचार हैं। केंद्र सरकार ने बजट में 500 करोड़ का प्रावधान किया था ताकि कश्मीरी पंडित पुनः घाटी में लौट सकें, लेकिन सरकार केवल पंडितों के प्रति कोरी व खोखली सहानुभूति का नाटक कर उनकी भावनाओं से खेलती रही है। कश्मीर फाइल्स फिल्म ने भी यही किया है। ज़ख्म जो शायद भर चुके हैं, उन्हें कुरेदने का काम बार-बार अनुपम खेर व विवेक अग्निहोत्री कर रहे हैं। फिल्म के विषय से किसी को भी विरोध नहीं होना चाहिए, किसी भी फिल्म को उसकी थीम, कंटेंट, ट्रीटमेंट अथवा सामाजिक संदेश के आधार पर मूल्यांकन या वो दर्शक कर सकते हैं या फिर फिल्म क्रिटिक। यह अत्यंत दुःखद है कि कश्मीर फाइल्स को हिंदू-मुस्लिम एकता की दीवार को ध्वस्त करने और वैमनस्य को बढ़ावा देने के रूप में देखा जा रहा है। इतिहास साक्षी है कि कश्मीर में 400 साल से हिंदू और मुस्लिम सौहार्दपूर्ण वातावरण में रह रहे थे। मगर 1985-86 के बाद अलगाववाद व आतंकवाद की गहरी होती जड़ों ने मुसलमानों व कश्मीरी पंडितों में गंगा-जमुनी तहज़ीब को तहस-नहस कर डाला।