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काशी विश्वनाथ कॉरिडोर इस देश की आध्यात्मिक चेतना का कॉरिडोर बन गया है। अपनी पूरी दिव्यता और भव्यता के साथ।
काशी विश्वनाथ कॉरिडोर अपने आततायी अतीत को सुधारने का संकल्प है। यानी सदियों की आध्यात्मिक विरासत का कायाकल्प। इस कॉरिडोर के बहाने इतिहास ने नई करवट ली है। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि एक हजार साल के अन्याय का प्रतिकार बिना किसी ध्वंस के हुआ है। सिर्फ सृजन के जरिये। इसका स्वागत होना चाहिए। यह कॉरिडोर बाबा विश्वनाथ मंदिर के मुक्ति का उत्सव है। काशी मुक्ति का शहर है। मुक्ति की कामना में लोग यहां खिंचे चले आते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इसी मुक्ति कामी चेतना ने काशी विश्वनाथ मंदिर के एक हजार साल पुराने गौरव को लौटाया है।
ग्यारहवीं शताब्दी तक इस मंदिर की शक्ल ऐसी ही थी, जैसी आज बनाई गई है। काशी विश्वनाथ सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि मंदिरों का संकुल था। मंदिर परिसर के चारों तरफ कॉरिडोर की शक्ल में कक्ष थे, जहां संस्कृत, तंत्र और अध्यात्म की शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थी यहीं टिक कर धर्म और दर्शन की शिक्षा लेते थे। सत्रहवीं शताब्दी में औरंगजेब ने इस मंदिर संकुल को तोड़ने का आदेश इसलिए दिया कि उसका बागी भाई दारा शिकोह यहा संस्कृत पढ़ता था। दारा शिकोह ने औरंगजेब और इस्लाम से बगावत की थी। इसलिए औरंगजेब ने 18 अप्रैल, 1669 को मंदिर तोड़ने का फरमान जारी किया।
फारसी में लिखे इस फरमान में दर्ज था कि 'वहां मूर्ख पंडित, रद्दी किताबों से दुष्ट विद्या पढ़ाते हैं।' औरंगजेब ने मंदिर तुड़वा कर एक मस्जिद भी तामीर करा दी, जिसे बाद में ज्ञानवापी मस्जिद कहा गया। ज्ञानवापी यानी ज्ञान का कुआं। उसके बाद कई चरणों में काशीवासियों, होल्कर और सिंधिया सरदारों की मदद से मंदिर बनता बिगड़ता रहा। 1752 से लेकर 1780 तक मराठा सरदार दत्ता जी सिंधिया और मल्हारराव होल्कर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। पर 1777 और 80 के बीच इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर को सफलता मिली।
अहिल्याबाई ने मंदिर तो बनवा दिया, पर वह उसका पुराना वैभव और गौरव नहीं लौटा पाईं। 1836 में महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर को स्वर्ण मंडित कराया। पर भगवान शंकर मंदिरों के 'थर्मस फ्लास्क' में सांस लेते रहे। धीरे-धीरे मंदिर परिसर ऐसी बस्ती में बदल गया जिसके घरों में प्राचीन मंदिर कैद हो गए। कॉरिडोर बनवा कर प्रधानमंत्री ने अहिल्या बाई के सपनों को विस्तार दिया। परिसर के प्राचीन मंदिर जो चुरा कर घरों में कैद कर लिए गए थे, उन्हें मुक्त कराया।
इतिहास के अपने प्रस्थान बिंदु होते है। काशी विश्वनाथ मंदिर के निर्माण का यह तीसरा प्रस्थान बिंदु है। जब भी इतिहास में इसका जिक्र आएगा, मंदिर का पुनरुद्धार करने वाली अहिल्या बाई होल्कर, इसके शिखर को स्वर्ण मंडित करने वाले महाराजा रणजीत सिंह और मंदिर को उसकी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आभा लौटाने वाले नरेंद्र मोदी का नाम सामने होगा।
सबसे पहले इस मंदिर के टूटने का उल्लेख 1034 में मिलता है। 11वीं सदी में राजा हरिश्चंद्र ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। 1194 में मोहम्मद गोरी ने इसे लूटने के बाद तोड़ा। स्थानीय लोगों ने इसे फिर बनवाया। 1447 में जौनपुर के सुल्तान ने इसे फिर से तोड़ा। अकबर की सर्वसमावेशी नीति के चलते टोडरमल ने 1585 में फिर इसका जीर्णोद्धार करवाया। टूटने-बनने का सिलसिला जारी रहा।1632 में शाहजहां ने इसे तोड़ने का आदेश दे सेना भेज दी। काशी के लोगों की एकजुटता के आगे मुगल सेना को वापस लौटना पड़ा। हालांकि इस संघर्ष में काशी के 63 मंदिर शहीद हुए। उसके बाद औरंगजेब ने इसे निशाना बनाया। परंपरा और इतिहास में यह मंदिर कालजयी सांस्कृतिक परंपराओं और उच्चतम आध्यात्मिक मूल्यों का जीवंत प्रतीक रहा है। यही समृद्ध परंपरा यहां देश भर के संतों को खींच कर लाती रही। तीर्थंकर आए, बुद्ध आए, आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, गोस्वामी तुलसीदास, महर्षि दयानंद सरस्वती, गुरुनानक सब यहां आए। सबकी आंखें यहीं खुलीं।
फरवरी 1916 में महात्मा गांधी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्थापना सम्मेलन में गए। बीएचयू में अपने संबोधन से एक दिन पहले गांधी काशी विश्वनाथ मंदिर गए। मंदिर की गंदगी ने उन्हें उद्वेलित किया। मंदिर की दशा की दिलचस्प तुलना उन्होंने भारतीय समाज से की। बीएचयू के अपने संबोधन में उन्होंने कहा, 'इस महान मंदिर में कोई अजनबी आए, तो हिंदुओं के बारे में उसकी क्या सोच होगी और तब जो वह हमारी निंदा करेगा, क्या वह जायज नहीं होगी?, क्या इस मंदिर की हालत हमारे चरित्र को प्रतिबिंबित नहीं करती? एक हिंदू होने के नाते, मैं जो महसूस करता हूं वही कह रहा हूं। अगर हमारे मंदिरों की हालत आदर्श नहीं है, तो फिर अपने स्वशासन के मॉडल को हम कैसे गलतियों से बचा पाएंगे? जब अपनी खुशी से या बाध्य होकर अंग्रेज इस देश से चले जाएंगे, तो इसकी क्या गारंटी है कि हमारे मंदिर एकाएक पवित्रता, स्वच्छता और शांति के प्रतिरूप बन जाएंगे?'
महात्मा गांधी ने काशी विश्वनाथ मंदिर पर चिंता जताते जिन तत्वों की जरूरत मंदिर के लिए बताई और स्वच्छता, पवित्रता व शांति का केंद्र बनाने का जो सपना देखा था, वह उनके जन्म के 150 साल में पूरा हुआ है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर हमारी धार्मिक परंपरा की प्रतिकृति है। इस देश के महापुरुषों के सपनों का स्मारक है। ये स्वप्न इस देश की महान आध्यत्मिक परंपरा की जमीन पर देखे गए। इनका इस भव्य रूप में साकार होना कल्पना से भी परे है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर इस देश की आध्यात्मिक चेतना का कॉरिडोर बन गया है। अपनी पूरी दिव्यता और भव्यता के साथ।
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