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डॉ. एस. एन. सुब्बाराव 'भाई जी' के निधन से गांधीवादी समाज रचना और नव निर्माण के लिए पिछले करीब सत्तर वर्षों से अपना जीवन खपा देनेवाले एक बिरले कर्मयोगी का अवसान हो गया है। गांधी-विनोबा की विचारधारा से अनुप्राणित और युवा पीढ़ी को उसमे ढालने हेतु सदैव निस्वार्थ भाव से तत्पर 'भाई जी' के जयपुर में 26 अक्तूबर की देर रात अवसान से जो क्षति हुई है और जो रिक्तता आई है, उसकी पूर्ति होना निकट भविष्य में असंभव सा लगता है।
गांधी जी के 'अहिंसा, सत्य, अस्तेय....' के एकादश व्रत को युवाओं में विविध प्रकार से उतारने की परिकल्पनाओं/परियोजनाओं को देशभर में घूम-घूम कर क्रियान्वित करने के लिए चढ़ती उम्र के बावजूद पूरी जीवटता से जुटे रहे इस व्यक्तित्व की देश सेवा की मिसाल निस्संदेह बहुत मुश्किल से मिलेगी।
चाहे चंबल में बागियों के आत्म समर्पण के लिए किए गए उनके कार्य हों या राष्ट्रीय युवा परियोजना (एन. वाय.पी.) की परिकल्पना कर उसे सरकार से क्रियान्वित कराना हो या अन्य कोई प्रकल्प, भाई जी की आयोजन-संगठन क्षमता निराली होती थी।
वे सबका साथ लेने, सबको साथ जोड़ने और जन हितैषी वैचारिक अभियान चलाने में निपुण थे और उनके दिग्दर्शन में सैकड़ों कार्यकर्ता भी राष्ट्र हित के विविध कामों के लिए तैयार हो सके हैं।
युवावस्था में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे 'भाई जी' के राष्ट्र के प्रति समर्पण और त्यागी-तपस्वी भाव से ओतप्रोत जीवन निर्वाह के अनेक संस्मरण देश विदेश में उनके संपर्क में आए अनेक लोगों के पास हैं और उनसे अनेक पृष्ठ भरे जा सकते हैं।
उनके संबोधन विनम्र भाषा में और संतुलित होने के साथ तथ्यपरक होते थे। इनमें वे अपने ओजस्वी गान के सम्पुट से श्रोताओं, विशेषकर युवा वर्ग को सम्मोहित कर उनमें कर्तव्यों के प्रति निष्ठा और जोश का संचार करते थे।
आदरणीय भाई जी से जुड़े मेरे कुछ संस्मरण हैं, जो आज तरोताजा हो आए हैं। उनसे मेरी पहली मुलाकात कब हुई यह तो याद नहीं, किंतु यह याद है कि वह कस्तूरबा ग्राम (इंदौर) स्थित अखिल भारतीय कस्तूरबा ट्रस्ट के किसी कार्यक्रम में 1970 के दशक में हुई थी, जबकि मैं 'नईदुनिया' इंदौर की ओर से समाचार के कवर करने के लिए गया था।
उनसे मेरा खास परिचय कराया कस्तूरबा ग्राम कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ सलाहकार श्री बनवारी लाल जी चौधरी ने, जो कि मेरे गृह नगर होशंगाबाद के पास निटाया गांव के ही थे और सेवाग्राम में 1948 में 'नई तालीम' के एक प्रशिक्षण वर्ग में मेरे पिताजी के सहपाठी रहे थे।
फिर भाई जी जब-जब कस्तूरबा ट्रस्ट के या पास के माचल गांव में सर्वोदय संस्था के या युवाओं संबंधी कार्यक्रम में आए, मुझे उनका सत्संग मिला। उन्हें जैसा जाना और जैसा पाया, उन्हीं अनुभूतियों का वर्णन ऊपर किया है।
करीब पच्चीस वर्ष पहले उनकी प्रेरणा से और उनकी उपस्थिति में सेवाग्राम में राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में बहुत से देश के बहुत से गांधी वादी चिंतकों और कार्यकर्ताओं का दस दिवसीय शिविर आयोजित हुआ था, जिसमें मैं भी शामिल था। उसके लिए मेरा नाम अनुपम मिश्र ने प्रस्तावित किया था। तब मैं नई दुनिया के संपादकीय विभाग में कार्यरत था और दफ्तर से छुट्टी लेकर उसमें गया था।
तब सेवाग्राम में आदरणीया निर्मला गांधी (माताजी) भी थीं और म्हसकर जी जैसे तपोनिष्ठ कार्यकर्ता भी थे। तब हम सब भाई जी के साथ पवनार भी गए थे। वह जीवन का बहुत ही बिरला अनुभव था। (लौटकर हमने उन अनुभवों पर आधारित एक लेख नईदुनिया इंदौर में लिखा था)।
नई दुनिया में रहते हुए कई बार दिल्ली आना हुआ। यहां आने पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में जाकर अनुपम के अलावा भाई जी से उनके 12 नंबर के कमरे मे मिलने की इच्छा और कोशिश हमेशा रही। कभी वे मिले तो कभी प्रवास पर होने के कारण नहीं मिले। पत्रों से संपर्क बना रहा।
हमने गांधी जी को तो नहीं देखा, किंतु उनके सच्चे अनुयायी सादगीपसंद कर्मनिष्ठ भाई जी जैसे व्यक्ति का जितना मिला उतना सान्निध्य पाकर धन्य हुए। अब उनकी यादें शेष हैं। विनम्र श्रद्धांजलि।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
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