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संसाधनों की कमियों को सैनिकों ने पराक्रम से पूर्ण किया। यह जीवट व नेतृत्व क्षमता है, जो हमारी सेना को महान बनाती है।
वर्ष 1947-48 में भी वही कश्मीर था, जो 1999 कारगिल युद्ध में था। वही द्वितीय विश्वयुद्ध की विजयिनी भारतीय सेना भी थी। इसी सेना ने कश्मीर को उस समय कबायलियों व पाकिस्तानी सेना के संयुक्त आक्रमण से बचाया भी था, पर जब ये सेनाएं संपूर्ण कश्मीर की मुक्ति की दिशा में अग्रसर हुईं, तब तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की इच्छाशक्ति जवाब दे गई थी। जनमत संग्रह, संयुक्त राष्ट्र, युद्धविराम की आदर्शवादी पहल ने कश्मीर की इस स्थानीय सामरिक समस्या को अंतरराष्ट्रीय बना दिया था।
हमने देखा है कि सामरिक समाधान के बाद कूटनीति राजनीति की शक्तियां यथास्थिति कायम रखती है। कारगिल की पहाड़ियों पर अचानक कब्जा करके पाकिस्तान द्वारा एक सामरिक समस्या खड़ी कर दी गई थी। सूचना तंत्र की असफलता थी व हैरानी भी थी। अब इसका समाधान वार्ताओं से नहीं होना था। कारगिल पाकिस्तान के दुस्साहस के रूप में जाना जाएगा। जनरल मुशर्रफ ने अटल बिहारी वाजपेयी के मैत्री भाव से भरे व्यक्तित्व को देखकर यह आकलन किया होगा कि कारगिल पर पाक अतिक्रमण पर प्रारंभिक बयानबाजी, कुछ सैन्य प्रतिक्रियाओं के बाद भारत सियाचिन और कश्मीर पर वार्ता को बाध्य हो जाएगा।
पाकिस्तान भी चूंकि परमाणु शक्ति संपन्न हो चुका है, अतः उन्होंने सोचा होगा कि भारतीय नेताओं की सैन्य प्रतिक्रिया भी एक सीमित स्तर से ऊपर नहीं जाएगी। पर भारतीय सेना के 83 दिन तक माइनस तापमान की पर्वत शृंखलाओं में चले इस अत्यंत साहसिक सैन्य अभियान ने जनरल मुशर्रफ के गणित को पूर्णतः उलट दिया। खड़ी चढ़ाइयों पर हमारी सेना ने सामने से आक्रमण किए। हमारे बलिदानों की संख्या भी बढ़ी। हमारा वीर विक्रम बतरा तो 'ये दिल मांगे मोर' के नारे के साथ देश के नौजवानों का आइकन बन गया था।
हमें कारगिल के कैप्टन मनोज पाण्डेय, योगेंद्र यादव जैसे बहुत से वीरों की एक प्रेरणादायक शृंखला मिली। बोफोर्स तोपों व एयरफोर्स ने भी कमाल का काम किया। कारगिल युद्ध के दौरान सेनाओं पर नियंत्रण रेखा पार न करने के राजनीतिक प्रतिबंध ने अनायास ही एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी। युद्ध कोई रेफरी द्वारा संचालित टूर्नामेंट नहीं होता। संभवतः पाकिस्तानी आणविक धमकियों से भयभीत कतिपय इंटेलिजेंस व विदेश नीति प्रशासकों द्वारा इसकी पहल की गई होगी।
हमारी खुफिया एजेंसियों, चाहे वह रॉ हों या आईबी, को जानना चाहिए था कि परमाणु क्षमता होने के बावजूद पाकिस्तान के पास परमाणु बम को लक्ष्य पर गिराने का आवश्यक माध्यम नहीं है। पाकिस्तान द्वारा भारतीय प्रतिष्ठान को यह परमाणविक ब्लफ दिया गया था, जिससे भारत कारगिल अभियान का विस्तार न कर सके। पाकिस्तानी सेना के पास डिलीवरी सिस्टम न होने की बात जनरल मुशर्रफ ने युद्ध के बाद अपने एक इंटरव्यू में कही भी थी।
कारगिल युद्ध के दौरान हमें संचार साधनों, सड़कों, पुलों, सुरंगों आदि की भीषण कमी का एहसास हुआ। उसके बाद से ही इंफ्रास्ट्रक्चर विकास का जो जबरदस्त कार्य प्रारंभ किया गया, उसके परिणाम हमें अब मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने तो संपूर्ण कश्मीर व लद्दाख में सीमापर्यंत संचार संपर्क संसाधनों हेतु अभियान छेड़ रखा है। हिमाचल से लद्दाख की कनेक्टिविटी के रणनीतिक ही नहीं, विकास संबंधी सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं। हमारे सामने चीन पहले से भी एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है।
सीमाओं पर आबादी लाकर गांव बसाकर वह सीमाओं को सक्रिय करना चाहता है। इस तरह वह तिब्बत, नेपाल और भूटान के सीमा क्षेत्रों पर नियंत्रण करने की रणनीति पर चल रहा है। इस प्रकार चीनी इंफ्रास्ट्रक्चर रणनीतिक अभियान के साथ आर्थिक गतिविधियों व सीमाओं तक उनका दावा ले जाने के माध्यम भी बन रहे हैं। पाकिस्तान कमजोर अवश्य हो रहा है, किंतु चीन के साथ उसकी रणनीतिक भागीदारी अपने स्थान पर बदस्तूर है। ये चुनौतियां आसान नहीं हैं। कारगिल भी आसान न था, लेकिन संसाधनों की कमियों को सैनिकों ने पराक्रम से पूर्ण किया। यह जीवट व नेतृत्व क्षमता है, जो हमारी सेना को महान बनाती है।
सोर्स: अमर उजाला
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