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अपमान और सम्मान में अब यह अंतर है
दिव्याहिमाचल.
कचरा जानकारी की अदाकारा साबित होती कंगना रनौत ने अंततः देश की आजादी के इतिहास पर ही थूकने की हिमाकत कर डाली। एक टीवी कार्यक्रम में वह देश की आजादी के संघर्ष को झुठलाते हुए यहां तक कह देती हैं कि यह भीख में मांगी गई आजादी है, जबकि असली स्वाधीनता 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर हासिल हुई है। हिमाचल से संबंध रखने वाली यह अभिनेत्री जब ऐसा कर्कश बयान दे रही होती है, तो उसी दौरान नूरपुर में वजीर राम सिंह पठानिया की पुण्यतिथि पर हम उस महान शख्सियत को आदरांजलि दे रहे होते हैं। आश्चर्य यह कि देश कंगना के बड़बोलेपन को कानों में रुई डाल कर बर्दाश्त कर रहा है, जबकि आजाद भारत की मिट्टी का कण-कण आज भी अपने स्वतंत्रता सेनानियों का कर्जदार है। हिमाचल से आजाद हिंद फौज में शरीक हुए सैकड़ों लोगों के लिए यह बयान अति निंदनीय हो जाता है।
बयान में उठी तारीफ का सत्य उसके भीतर की विचारधारा को परिमार्जित कर सकता है या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबी है कि कोई भी सिरफिरा टिप्पणी कर दे, लेकिन 'पद्मश्री' की बांसुरी बजाने के माहौल में अगर कोई ठुमका देश को ही शर्मिंदा कर दे, तो यह राष्ट्रीय सम्मान की भी तौहीन है। यह हिमाचल की पृष्ठभूमि, उन तमाम शहीद स्मारकों तथा उस इतिहास के प्रति अपमान है जो मेजर सोमनाथ शर्मा के नाम प्रथम परमवीर चक्र अलंकृत करता है। राष्ट्रीय आजादी का इतिहास न भी पढ़ा हो, लेकिन भारतीय परिवेश में बच्चों की परवरिश के साथ ये पल जोड़े जाते हैं। देशभक्ति के गीत और नायकों की परिभाषा में भारतीय अवलोकन तब तक पूरा नहीं होता, जब तक हर गांव और शहर अपने आजादी के परवानों को याद नहीं करता। वे तमाम योद्धा जो फांसी पर चढ़े या जो कभी जलियांवाला बाग के नरसंहार में दर्ज हुए, उनकी चिताओं से आज भी आजादी के नारों की अनुगूंज सुनाई देती है। कंगना एक अच्छी अदाकारा हो सकती है, लेकिन उसकी प्रसिद्धि की कीमत हमारी आजादी का इतिहास नहीं चुका सकता। अगर वह बालीवुड की फिल्मों को ही कायदे से देख व समझ ले, तो मालूम हो जाएगा कि शहीद भगत सिंह, ऊधम सिंह व सैकड़ों अन्य नायकों पर बनी फिल्में क्या कहती हैं। वह अपने गांव या परिवार से ही पैतृक इतिहास पता कर लेती, तो मालूम हो जाता कि आजादी की लौ हर घर में किस जिद्दत से जली थी और हिमाचल से ही पैदा हुए क्रांतिकारी बाबा कांशी राम या यशपाल का क्या योगदान रहा। विडंबना यह है कि देश का इतिहास वे बदलना चाहते हैं, जिनके पास अध्ययन व शोध की कोई जगह नहीं।
अपमान और सम्मान में अब यह अंतर है कि जिन्हें किसी अभिप्राय या हक के सम्मान मिल रहा है, वे इसकी कीमत से किसी न किसी का अपमान करके धन्य होना चाहते हैं। अगर कंगना अपने 'पद्मश्री' सम्मान का ऋण यह कह कर उतार रही है कि पचहतर साल की आजादी ही फर्जी है या महात्मा गांधी, पटेल और नेहरू मात्र आजादी के भिखारी थे, तो वह राष्ट्र भावना को कलंकित करती है। यह उन फौजी व स्वतंत्रता सेनानी परिवारों के खिलाफ दिया गया बयान है, जो गुलामी के खिलाफ पीढ़ी दर पीढ़ी लड़े। कंगना जैसे लोग राष्ट्र के किसी सम्मान के हकदार हैं भी या नहीं, इस पर विवाद पैदा करने से पहले यह सोचना होगा कि देश के भीतर किस तरह का मानसिक उत्थान हो रहा है। कंगना एक सोच का मोहरा बन चुकी है या यही सोच राष्ट्रीय प्रतीक बनकर कुछ नए आलेख पैदा करना चाहता है। हम यह तो नहीं कहेंगे कि कंगना को पट्टी पढ़ाई जा रही है, लेकिन उसे मालूम है कि इस तरह का विमर्श पैदा करके राजनीतिक, आर्थिक व अन्य लाभ मिल सकते हैं। वह प्रचार की एक ऐसी मशीन है जो सियासी गणित में अपनी अदाकारी निभा रही है। अगर ऐसा न होता तो उसकी फिल्मी प्रासंगिकता अब तक मुजरिम करार दी जा चुकी होती, लेकिन यहां तो उसके मिजाज का माल्यार्पण करने के अवसर बढ़ते रहते हैं। हिमाचल से किसी भी चुनाव में उसे जोड़कर देखा जाता है। वह अघोषित रूप से भाजपा की ऐसी उम्मीदवार है जो कभी भी राज्यसभा में जा सकती है। आने वाली फिल्मों के लिए कंगना रनौत की अपनी चर्चाएं कारगर होती हैं या नहीं, लेकिन राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में वह अब पहले जैसी सम्मानित नहीं है। पद्मश्री सम्मान से अलंकृत व्यक्ति से जिस व्यवहार की उम्मीद की जाती है, उससे कहीं विपरीत वह एक ऐसा शंखनाद है, जो विवाद-वैमनस्य जगाने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं। आजादी के परवानों पर उसने एक तरह से गाली दी है, तो उसे मिले राष्ट्रीय सम्मान के बावजूद आदर नहीं दिया जा सकता।
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