सम्पादकीय

'1947 में आजादी भीख में मिली' कंगना रनौत के बयान को महाराष्ट्र में मिला समर्थन, बड़े अभिनेता ने वीर भगत सिंह की फांसी का जिक्र कर विवाद बढ़ाया

Rani Sahu
14 Nov 2021 1:55 PM GMT
1947 में आजादी भीख में मिली कंगना रनौत के बयान को महाराष्ट्र में मिला समर्थन, बड़े अभिनेता ने वीर भगत सिंह की फांसी का जिक्र कर विवाद बढ़ाया
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कंगना रनौत (Kangana Ranaut) के एक बयान का महाराष्ट्र के एक बड़े अभिनेता ने समर्थन किया है

शमित सिन्हा कंगना रनौत (Kangana Ranaut) के एक बयान का महाराष्ट्र के एक बड़े अभिनेता ने समर्थन किया है. कंगना रनौत ने टाइम्स नाउ न्यूज चैनल को दिए गए एक इंटरव्यू में यह कहा था कि 1947 में हमें आजादी भीख में मिली. असली आजादी तो 2014 (मोदी सरकार के आने पर) में मिली. विक्रम गोखले (Vikram Gokhale) हिंदी और मराठी अभिनय की दुनिया में जाना-पहचाना नाम हैं. हिंदी में वे सलमान खान और ऐश्वर्या राय अभिनीत फिल्म 'हम दिल दे चुके सनम' और 'भूल भुलैया' जैसी फिल्मों और कई टीवी सीरियलों में काम कर चुके हैं. मराठी में तो उनका नाम सबसे बड़े कलाकारों में से एक में शुमार होता है. विक्रम गोखले ने कंगना रनौत का समर्थन करते हुए एक पुराना विवाद फिर खड़ा कर दिया है. उन्होंने वीर भगत सिंह का नाम लिए बिना कहा कि जब वीर क्रांतिकारी फांसी पर झूलने जा रहे थे तो उन्हें बचाया नहीं गया. साफ है कि उनका इशारा महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की तरफ है. हालांकि नाम उन्होंने किसी का नहीं लिया है.

इतिहास के जानकारों के बीच यह मुद्दा हमेशा गर्म रहा है कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरु चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुकवा सकते थे. भगत सिंह की लोकप्रियता से महात्मा गांधी असुरक्षित महसूस कर रहे थे. इसलिए उन्होंने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन पर भगत सिंह को छोड़ने का दबाव नहीं बनाया. उस वक्त लॉर्ड इरविन गांधी की ज्यादातर मांगें मानने को तैयार थे. विश्व आर्थिक मंदी के मुहाने पर खड़ा था. गांधी का नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन पूरे देश में फेल गया था. यानी अंग्रेज डिफेंसिव अप्रोच रख रहे थे. महात्मा गांधी ने अवसर को जाने दिया.
क्या गांधी ने वाकई भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए कुछ नहीं किया?
18 फरवरी 1931 को महात्मा गांधी ने वायसराय से कहा कि उन्हें भगत सिंह और उनके साथियों की फंसी की सजा खत्म कर देनी चाहिए. इसके बाद यंग इंडिया में इसके बारे में गांधी ने लिखा कि लॉर्ड इरविन सिर्फ तारीख बढ़ाने के लिए तैयार हैं. हालांकि आगे चल कर यह वादा भी वायसराय ने नहीं निभाया. 19 मार्च को महात्मा गांधी ने वायसराय इरविन के सामने फिर से मुद्दा रखा कि भगत सिंह की फांसी को टाला जाए. लेकिन इरविन ने इनकार कर दिया. दूसरी तरफ महात्मा गांधी ने आसफ अली को भगत सिंह के पास भेजा. शर्त यह थी कि भगत सिंह यह मान जाएं कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे.
लेकिन भगत सिंह झुकने को तैयार नहीं हुए. फिर महात्मा गांधी ने 21 मार्च और 22 मार्च को लगातार दो बार इरविन से इस पर बात की. 23 मार्च को महात्मा गांधी ने चिट्ठी भी लिखी. लेकिन जब तक इरविन तक वह चिट्ठी पहुंचती, तय तारीख से एक दिन पहले यानी 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दे दी गई.
गांधी की नीति तो भगत सिंह को बचाने की थी, पर क्या नीयत थी?
इस पूरे घटनाक्रम से एक बात तो यह पता चलती है कि गांधी इरविन से भगत सिंह की फांसी को रोकने के लेकर लगातार बात कर रहे थे. लेकिन एक दूसरी बात भी पता चलती है. वो यह कि गांधी जिस लहजे में भगत सिंह की फांसी को रोकने की बात कर रहे थे, वो लहजा हाथ जोड़ कर विनती करने वाला लहजा था. गांधी जिद्दी थे, वे अपनी मांग पर अड़ जाते थे. वे हाथ नहीं जोड़ते थे. लेकिन भगत सिंह के मामले में उनका रवैया बिलकुल अलग था. यानी नीतिगत रूप से तो वे सही थे, ताकि उनपर आगे चल कर सवाल ना उठें, लेकिन शायद उनकी नीयत में भगत सिंह को बचाना नहीं था.
यह बात प्रसिद्ध इतिहासकार सुमित सरकार ने अपनी किताब मॉर्डन इंडिया में साफ लिखा है कि गांधी का लहजा कुछ इसी तरह का था, कि 'अगर फांसी रोक दी जाती तो…' यानी जानबूझ कर गांधी अगर-मगर वाली बात कर रहे थे. उन्होंने चिट्ठी लिखने में भी इतनी देर कर दी कि वो समय पर पहुंची ही नहीं.
भगत सिंह की फांसी को लेकर गांधी के पत्र में क्या था?
वह पत्र जो वायसराय तक पहुंचने से पहले ही भगत सिंह को फांसी दे दी गई, उस पत्र में गांधी ने लिखा था, ' जनता का मत चाहे सही हो या गलत, सजा घटाना चाहता है. जनता के मत का मान रखना हमारा फर्ज है…अगर आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी सी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए टाल दें…रहम कभी फिजूल नहीं जाता. ' गांधी के पत्र की भाषा से यह समझा जा सकता है कि वे लॉर्ड इरविन से किस तरह से बात कर रहे थे.
5 मार्च 1931 को जो गांधी-इरविन समझौता हुआ था उसमें यह शर्त थी कि हिंसा के आरोपियों को छोड़ कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया जाएगा. गांधी जो कर सकते थे, वो समझौता होने से पहले कर सकते थे. इसके बाद भेंट-मुलाकात, पत्र व्यवहार का क्या मतलब था? हालांकि जवाब में यह तर्क दिया जाता है कि समझौते की शर्त के तौर पर भगत सिंह की रिहाई अंग्रेजों के साथ ब्लैकमेलिंग होती, उनके साथ विश्वासघात होता, सही नहीं होता. तो वो क्या सही था जो इरविन लगातार कर रहे थे? अंग्रेजो ने 24 अप्रैल की बजाए 23 अप्रैल की ही फांसी दे दी, वो नैतिक रूप से सही था क्या? वो विश्वासघात नहीं था क्या?
बड़ा सवाल तो यह है कि…दोनों बातें सही नहीं हो सकतीं
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या गांधी वाकई ब्रिटिश सरकार से इसी लहजे में बात किया करते थे, जिस लहजे में वे भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए बात कर रहे थे ? अगर हां तब तो कंगना रनौत सही कह रही है कि हमें आजादी भीख में मिली, दान में मिली है. क्योंकि लड़कर आजादी लेने वालों की भाषा ऐसी तो नहीं होती है. और अगर दूसरी बात सही है कि गांधी निर्भीक थे, जिद्दी थे, अंग्रेज अधिकारी उनसे यह सोच कर आंखें मिलाने से कतराते थे कि वे अगर गांधी से आंखें मिलाएंगे तो उनकी बात उन्हें माननी पड़ जाएगी तो गांधी का यह जादू भगत सिंह की रिहाई या सजा कम करवाने में क्यों नाकाम हो गया?
दोनों बातें एक साथ तो सही नहीं हो सकती. अगर साबरमती के संत ने बिना खडग, बिना ढाल लड़कर कर दिया कमाल तो भगत सिंह की माफी में वो कमाल कहां गया? या फिर सच यह है कि भारत की आजादी में कोई कमाल नहीं था, दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेज इस देश को जितना चूसना था, चूस चुके थे. उपनिवेशवाद के तीसरे चरण में अब चूसने को बाकी कुछ बचा नहीं था. इसलिए एक ब्रिटिश सरकार की पिछलग्गू सरकार को छोड़ कर जाना था, और वो भीख में आजादी दे गए. कैंब्रिज स्कूल ऑफ हिस्टोरियंस का यही मत है.
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