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- काली राम का फट गया
उनकी शरा़फत की कलई खुलने लगी है। धीरे-धीरे वे गाली-गलौज पर उतरने लगे हैं। यही सज्जन पिछले साढ़े चार साल तक शरा़फत, सभ्यता और शिष्टता की प्रतिमूर्ति माने जाते थे। सरकार के इस मुखिया को अब तक के शरीफ, शिष्ट और शालीन नेताओं में गिना जाता था। पर मेरे पन्द्रह सौ ग्राम भेजे में अब तक शरा़फत की लोक परिभाषा नहीं घुस पाई है। क्या शरीफ होने के लिए व्यक्ति का सच्चरित्र होना भी ज़रूरी है या केवल सभ्यता और शिष्टता ही शरा़फत के दायरे में आते हैं। लेकिन लोकतंत्र में चुनाव हैं ही ऐसी बला और सत्ता ऐसा आकर्षण, कि न सिर से बला टलती है और न कुर्सी का आकर्षण छोड़ा जा सकता है। ऐसे में एक पहाड़ी कहावत याद आती है, 'अगर छोड़ें तो जाती है, पकड़ें तो खाती है।' लेकिन खाती है मिलने के चार साल बाद। ऐसे में पाँचवें साल में किसी पर गालियों की पिचकारी मारने से अगर सत्ता बनी रहती है, तो क्या हर्ज़ है। कलई का क्या है, चुनाव जीतने पर फिर चढ़ जाएगी। कलई चढ़ाने के लिए सरकारी भांड और पिट्ठू मीडिया जो हैं। सारे राज्य में महानता का बखान करते होर्डिंग धड़ाधड़ टंग जाएंगे, अख़बारों में विज्ञापन छप जाएंगे या टीवी और अख़बारों में एड्वरटोरियल नज़र आने लगेंगे।
सोर्स- divyahimachal