सम्पादकीय

काली राम का फट गया ढोल

Rani Sahu
27 Jun 2022 7:08 PM GMT
काली राम का फट गया ढोल
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उनकी शरा़फत की कलई खुलने लगी है। धीरे-धीरे वे गाली-गलौज पर उतरने लगे हैं। यही सज्जन पिछले साढ़े चार साल तक शरा़फत, सभ्यता और शिष्टता की प्रतिमूर्ति माने जाते थे। सरकार के इस मुखिया को अब तक के शरीफ, शिष्ट और शालीन नेताओं में गिना जाता था

उनकी शरा़फत की कलई खुलने लगी है। धीरे-धीरे वे गाली-गलौज पर उतरने लगे हैं। यही सज्जन पिछले साढ़े चार साल तक शरा़फत, सभ्यता और शिष्टता की प्रतिमूर्ति माने जाते थे। सरकार के इस मुखिया को अब तक के शरीफ, शिष्ट और शालीन नेताओं में गिना जाता था। पर मेरे पन्द्रह सौ ग्राम भेजे में अब तक शरा़फत की लोक परिभाषा नहीं घुस पाई है। क्या शरीफ होने के लिए व्यक्ति का सच्चरित्र होना भी ज़रूरी है या केवल सभ्यता और शिष्टता ही शरा़फत के दायरे में आते हैं। लेकिन लोकतंत्र में चुनाव हैं ही ऐसी बला और सत्ता ऐसा आकर्षण, कि न सिर से बला टलती है और न कुर्सी का आकर्षण छोड़ा जा सकता है। ऐसे में एक पहाड़ी कहावत याद आती है, 'अगर छोड़ें तो जाती है, पकड़ें तो खाती है।' लेकिन खाती है मिलने के चार साल बाद। ऐसे में पाँचवें साल में किसी पर गालियों की पिचकारी मारने से अगर सत्ता बनी रहती है, तो क्या हर्ज़ है। कलई का क्या है, चुनाव जीतने पर फिर चढ़ जाएगी। कलई चढ़ाने के लिए सरकारी भांड और पिट्ठू मीडिया जो हैं। सारे राज्य में महानता का बखान करते होर्डिंग धड़ाधड़ टंग जाएंगे, अख़बारों में विज्ञापन छप जाएंगे या टीवी और अख़बारों में एड्वरटोरियल नज़र आने लगेंगे।

जिन्हें ढंग से एक प्रार्थना पत्र लिखना नहीं आता, वे नेता ऐसे विषयों पर धाकड़ लेख लिखते हैं कि नियमित कॉलम लिखने वालों की चूलें हिल जाती हैं और वे असुरक्षित अनुभव करते हुए सरकारी महकमों में चहलक़दमी बढ़ा देते हैं। सत्ता के गलियारों से ज़ाहिर है उसे ही लपेटने की कोशिश की जाती है जो उसके लिए ख़तरा हो। ऐसे में नेता प्रतिपक्ष को अपना लँगोट संभालना मुश्किल हो जाता है। अगर थोड़ा साफ-सुथरा हो तो सत्ता के लिए उसे ईडी या और किसी जाँच एजेंसी के पाश में बाँधना थोड़ा कठिन हो जाता है। पर राजनीति में कपड़ा उतराई ऐसी रस्म है, जो रैलियों से लेकर शयन कक्ष तक कहीं भी पूरी की जा सकती है। विरोधियों के परिवारों से लेकर उनके लँगोट कहीं भी खींचे जा सकते हैं। लेकिन नेता प्रतिपक्ष साफ-सुथरा और मुक़ाबला करने वाला हो तो सत्ताधीशों को अपने लँगोट संभालने मुश्किल हो जाते हैं। बात सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग से शुरू होकर सहेलियों तक पहुँच जाती है। वैसे यह निर्विवाद सत्य है कि वह सत्ता ही क्या जो नेताओं की रखैल न बने।
अगर सरकार के मुखिया की दो-चार सहेलियाँ सरकारी पदों पर मनोनीत न हुईं, उन्हें पेंशन न लगवाई या हेलिकॉप्टर के झूले न लिए तो धिक्कार है ऐसी सत्ता पर। क्या ऐसा संभव है कि चुनाव सिर पर हों, सत्ताधीश घनी टेंशन में जी रहा हो और जीभ न फिसले। फिर जीभ तो बनी ही फिसलने के लिए है। दिक्कत तो तब आती है जब जीभ दाँतों के बीच आ जाती है। ऐसे में सरकार के मुखिया की जीभ के बचाव में उसके मंत्री ऐसे धनुष की कमान संभालते हैं, जिसके तीर तो होते हैं लेकिन डोर नहीं। लिहाज़ा तीर तरकश में रह जाते हैं। एक मंत्री हाथ में तीर लेकर ललकारता है कि नेता प्रतिपक्ष बौखलाहट में बयानबाज़ी कर रहे हैं और उन्हें गरिमा का ध्यान रखना चाहिए। लेकिन गरिमा शब्द सुनते ही लगता है कि जैसे यह किसी सरकारी सहेली का नाम हो। दूसरा मंत्री, जिसने डट कर सरकारी माल खाने के बाद डकार भी न मारा हो, धमकाते हुए कहता है कि नेता प्रतिपक्ष सहेली जैसे विवादित बयान न दें। नहीं तो उनके कच्चे चिट्ठे खोल दिए जाएंगे। जिन्हें सुन कर लगता है कि मेरा बिल्लू शेर, तेरा शेर म्याऊँ। चुनावों को आसन्न देख कर काली राम का ढोल फट तो चुका है, पर उसका डब्बा गोल होता है या नहीं, इसके लिए परिणाम आने तक इन्तज़ार करना पड़ेगा। अभी तो आप इन दो पंक्तियों का आनंद लें- 'चुनाव आवत देख के, फिसले नेता जीभ। मैं सच्चरित्र तू लुच्चा, मैं कौआ तू चील।।'
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं

सोर्स- divyahimachal


Rani Sahu

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