सम्पादकीय

काकोरी : शहीद-ए-वतन के मजार पर फूलों की कैफियत

Neha Dani
17 Dec 2021 1:53 AM GMT
काकोरी : शहीद-ए-वतन के मजार पर फूलों की कैफियत
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गोया उन्होंने अशफाक से जी भरकर बातें कर ली हों।

काकोरी के शहीद अशफाकउल्ला खां के खतूत और डायरी के पन्ने हमारे सामने बिखरे पड़े हैं। शाहजहांपुर शहर में रेलवे स्टेशन के नजदीक पुराने एमनजई मुहल्ले का उनका घर इस क्रांतिकारी की विरासत है, जहां उनके पौत्र के साथ बैठकर अशफाक की लिखावट को पढ़ने-समझने की हमारी कोशिशें बहुत कामयाब नहीं हो पा रही हैं। नौ अगस्त, 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी के निकट रेल रोककर सरकारी खजाने को हथियाने के मुकदमे में उत्तर भारत के जिन चार प्रमुख क्रांतिकारियों को मृत्युदंड दिया गया, उनमें अशफाक भी थे।

19 दिसंबर, 1927 को फैजाबाद जेल में फांसी पर जाने से पहले उन्होंने डायरी के पन्नों पर जो कुछ दर्ज किया, वह हिंदुस्तान की मुकम्मल आजादी का नक्शा है। उनकी हस्तलिपि में कुछ गजलें हैं, जिनमें 'हसरत' तखल्लुस है। मरने से पहले अपनी आखिरी ख्वाहिश को इन जज्बातों के साथ उन्होंने दर्ज किया था, कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है, रख दे कोई जरा-सी खाके-वतन कफन में। अब हम अशफाक के घर के नजदीक उस खानदानी कब्रिस्तान में हैं, जहां फांसी के बाद फैजाबाद से लाकर वह दफ्न किए गए थे।
कैसा रहा होगा वह नजारा, जब उनकी मृत देह का सामना उनकी मां को करना पड़ा। अशफाक की शहादत के बाद गणेशशंकर विद्यार्थी ने उनके भाई रियासतउल्ला खां से कहा था, 'तुम इनकी कच्ची कब्र बनवा देना, हम पुख्ता करा देंगे और इनका मकबरा ऐसा बनवाएंगे, जिसकी नजीर यूपी में न होगी।' गणेशशंकर जी खुद 25 मार्च, 1931 को शहीद हो गए, तब शहर कांग्रेस कमेटीने अशफाक की आखिरी आरामगाह को पक्का कराकर उस पर छत डलवा दी। फिर चहारदीवारी बनी, बगीचा लगा और अब वह एक मकबरे की शक्ल में है।
मैं इस वक्त अशफाक की कब्र के सिरहाने खड़े होकर प्रशासनिक और सरकारी तामझाम से दबे इस क्रांतिकारी की रूह की बेचैनी को महसूस कर रहा हूं, जहां उनकी विचार-यात्रा और लक्ष्यों को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया है। 'साझा शहादत, साझा विरासत' के इस सबसे बड़े स्मारक पर कुछ सूख चुके फूल अपनी कैफियत बयान कर रहे हैं। वर्षों पहले इस मुहल्ले का नाम 'अशफाक नगर' किया जा चुका है, जहां से आधे कोस की दूरी पर 'बिस्मिल' का मुहल्ला है।
अशफाक और बिस्मिल जिस मिशन हाई स्कूल में पढ़े, वहां उनकी यादों के बिखरे फूलों को चुनने की मोहलत किसी के पास नहीं है और न ही यह जानने की हसरत कि 1918 में 'मैनपुरी षड्यंत्र केस' में इस विद्यालय के छात्र राजाराम 'भारतीय' की यहां हुई गिरफ्तारी ने ही अशफाक को क्रांतिकारी बनने की ओर प्रेरित किया था। इस शहर में सबसे पहले स्वतंत्रता के रजत जयंती वर्ष (1972) में बिस्मिल, अशफाक और रोशन सिंह की प्रतिमाएं बयालीस के सेनानी वासुदेव गुप्त के प्रयत्नों से स्थापित की गईं।
बीस साल पहले जब अशफाक के घर का पुराना दालान नई तामीर के लिए तोड़ा गया, तब किसी के जेहन में यह नहीं गूंजा कि इस घर की मिट्टी में चंद्रशेखर आजाद की आमद के भी निशान हैं। काकोरी मुकदमे के दौरान आजाद कुछ रकम देने चुपके से उनके भाई के पास आए थे। फैजाबाद जेल से लिखी अशफाक की चिट्ठियां एक पुराने बक्से के चोरी चले जाने से नष्ट हो गईं। फिर भी वह कुरान शरीफ बचा रहा, जिसे गले में लटकाकर वह फांसीघर की ओर बढ़े थे। उसके शुरुआती पन्ने पर अशफाक की हस्तलिपि है।
फैजाबाद के फांसीघर से लिखे अशफाक के वे खत भी हम देख रहे हैं, जो उन्होंने अपने मुकदमे के साथी शचींद्रनाथ बख्शी की बहन प्रमिला और वकील कृपाशंकर हजेला को लिखे थे। ये इबारतें उनके सघन क्रांतिकारी रिश्ते का सबसे बड़ा साक्ष्य हैं। अशफाक की शहादत के बाद 19 दिसंबर, 1969 को पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के संपादन में उर्दू में यादगारे अशफाक किताब छपी, जिसे उनके भाई अपने जीवनकाल में देख सके।
फैजाबाद जेल के फांसीघर के परिसर में लगी अशफाक की प्रतिमा पर प्रतिवर्ष जलसा होता है। वहां वह तख्ता अभी सुरक्षित है, जिस पर खड़े होकर उन्होंने फांसी के फंदे को गले में डाला और शहीदों की टोली में जा मिले। प्रदेश की चंद्रभानु गुप्त सरकार की वह घोषणा पूरी नहीं हुई कि रोशनउद्दौला कचहरी प्रांगण में शहीद अशफाक का स्मारक बनाया जाएगा, जहां बख्शी जी के साथ उन पर काकोरी का पूरक मुकदमा चला, और न ही लखनऊ का 'रिंग थियेटर' हम बचा पाए, जिसे किराये पर लेकर ब्रिटिश सरकार ने काकोरी के मुख्य मुकदमे की कार्यवाही को अंजाम दिया था। फैजाबाद में अब फैजाबाद बचा ही कितना है।
फिर भी मुझे उम्मीद है कि यह शहर अपने सीने में अशफाक का यह शेर बहुत संभाल कर रखेगा, तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से, चल दिए सूए अदम जिंदाने फैजाबाद से। अशफाक की कब्रगाह से शहर की ओर चलते हुए हमें फांसी के एक दिन पहले अपने वकील हजेला साहब से कहे गए उनके शब्द बेसाख्ता याद आ रहे हैं, 'एक गुजारिश है आपसे कि कल आकर देखिए कि आखिर मैं किस शान से फांसी पर चढ़ता हूं।' हजेला जी ने उत्तर दिया था कि 'वह नजारा देखने की जुर्रत मुझमें नहीं, लेकिन मैं तुम्हारी कब्र पर जरूर आऊंगा।' अशफाक की इस अंतिम शरणस्थली पर आकर हजेला जी को हर बार बहुत सुकून मिलता था, गोया उन्होंने अशफाक से जी भरकर बातें कर ली हों।
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