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बहरहाल आज़ाद भारत को सबसे बड़ी सौगात 'भाखड़ा बांध' देने वाला बिलासपुर फिर से गुलजार हो चुका है, मगर विस्थापन से उपजे गहरे जख्मों का दर्द बाकी है। देशहित में त्याग की नजीर पेश करने वाले लोगों की कद्र का मिजाज पैदा होना चाहिए। पुनर्वास के लिए ठोस नीति बननी चाहिए…
कहलूर रियासत यानी वर्तमान में हिमाचल प्रदेश का बिलासपुर जिला। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हजारों वर्ष पूर्व 'महामृत्युंजय मंत्र' के रचयिता 'महर्षि मार्कण्डेय' की कर्मभूमि तथा विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य 'महाभारत' व '18 पुराणों' के रचनाकार 'महर्षि वेद व्यास' जैसे महान् ऋषियों की तपोस्थली बिलासपुर ही था। सतयुग में देवी सती के नेत्र बिलासपुर की इसी मुकद्दस धरा 'नैणा देवी' में गिरे थे। महर्षि व्यास के नाम पर इस स्थान का नाम व्यासपुर था जिसे चंदेल वंश के कहलूर नरेश 'दीपचंद' (1650-1665) ने सन् 1654 में अपनी राजधानी बनाकर बिलासपुर नाम रखा था। दीपचंद चंदेल अपने दौर में मुगलों के लिए खौफ का दूसरा नाम बन चुका था। दीपचंद ने अपनी कुशल रणनीति से सरहिंद के सूबेदार 'अली अकरम बेग' की मसूबाबंदी को कई मर्तबा ध्वस्त करके उसके कहलूर रियासत को कब्जाने के अरमानों पर पानी फेर दिया था। पहाड़ी युद्ध कौशल के अनुभवी योद्धा दीपचंद ने अपनी रियासत की सैन्यशक्ति के साथ पाक-अफगान सरहद पर मौजूद 'अटक' के किले में मोर्चा संभाले पठान लाव लश्कर पर सैन्य मिशन को अंजाम देकर अटक के पठान सुल्तान 'फरदीन अहमद खान' को हलाक करके अटक पर कब्जा जमाकर अपनी शूरवीरता का शिलालेख लिख दिया था।
चूंकि अटक की पठान सेना औरंगजेब के कई जरनैलों का कत्ल कर चुकी थी, अलबत्ता अटक की फतह से प्रभावित होकर दिल्ली की मुगल बादशाही ने 'दीपचंद चंदेल' को लाखों रुपए की खिल्लत व राजा की पदवी देकर पहाड़ की तमाम रियासतों की सदारत सौंपने का फरमान जारी किया था। कहलूर रियासत के ही चंदेल शासक 'अभयसार चंद' 1302-1317 ने गौरक्षा के लिए पंजाब की सरहद पर मो. तुगलक के सिपहसालार 'तातार खां' को अपनी शमशीर से हलाक करके जहन्नुम की परवाज पर भेज दिया था। लेकिन चंदेल राजवंश का गौरव उस वक्त इतिहास के पन्नों में सिमट गया जब भारत की खुशहाली के लिए 9 अगस्त 1961 के दिन कहलूर रियासत की राजधानी को 'गोविंद सागर' झील में जलसमाधि देकर कुर्बान कर दिया गया था। चंदेल राजवंश की समृद्ध संस्कृति, मंदिर, महल, सांडू मैदान तथा कई बाग बगीचे झील में जलमग्न हो गए थे। अटक के फातिम दीपचंद ने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि उनके पूर्वज 'चंदेरी शासक' 'वीरचंद' (697-730) द्वारा स्थापित 'कहलूर सल्तनत' की राजधानी को इस कदर कुर्बान कर दिया जाएगा। राजा 'अमरचंद' (1883-1888) द्वारा निर्मित भंजवाणी का ऐतिहासिक पुल भी इस झील की गर्त में समा गया था। बिलासपुर में बहने वाली सतलुज नदी पर सन् 1948 में 'भाखडा बांध' का निर्माण शुरू हुआ था। 1700 फीट लंबे व 741 फीट ऊंचे तथा 1325 मैगावाट बिजली उत्पादन क्षमता वाले इस बांध को 22 अक्तूबर 1963 के दिन राष्ट्र को समर्पित करते वक्त प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मखसूस अंदाज में देश का आधुनिक मंदिर करार दिया था। मगर भाखड़ा बांध हमसाया राज्यों के लिए ही मंदिर साबित हुआ। बांध से उत्पन्न बिजली से इन राज्यों को जगमग करने में हिमाचल के तीन जिलों के 12 हजार परिवारों के घरों में अंधेरा पसर गया था।
बांध के निर्माण से वजूद में आई 'गोविंद सागर' झील ने बिलासपुर के 256, ऊना के 110 व मंडी जिला के पांच गांवों का नामोनिशान मिटाकर लोगों को बेघर करके उनके नसीब में तबाही व गुरबत का अफसाना लिख दिया था। सैलाब जैसी सूरतेहाल में विस्थापितों को महफूज मकाम भी नसीब नहीं हुआ था। हजारों परिवार अपनी पुश्तैनी जमीनें, आशियाने, गुलिस्तां कुर्बान करके खुद शरणार्थी होकर पुनर्वास के लिए फरियादी बनने को मजबूर हो गए थे। सन् 1967 के दौर में मशहूर गायक महेंद्र कपूर ने फिल्म 'उपकार' का नगमा 'मेरे देश की धरती सोना उगले' गाया था, लेकिन हकीकत में देश की धरती ने सोना भाखड़ा बांध के निर्माण के बाद ही उगला था। उससे पूर्व देश अनाज की शदीद किल्लत से जूझ रहा था। 1970 के दशक में जिस 'हरित क्रांति' के आगाज से भारत खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना उस इंकलाब में मुख्य किरदार भाखड़ा बांध का है जिसकी तामीर बिलासपुर की संगे बुनियाद पर हुई है। यह हिमाचल की भोली-भाली तहजीब का मिजाज था या विस्थापित लोगों के राष्ट्र के प्रति वतनपरस्ती के जज्बात जो विस्थापन के खौफनाक मंजर से उपजे दर्द का अपनी जुबां से इजहार तक नहीं कर सके। देशहित में उजडऩा तस्लीम कर लिया मगर बांध बनने की मुखालफत में कोई मुजाहिरा भी नहीं किया। हरित क्रांति का श्रेय लेने वाले मुल्क के मरकजी वजीरों ने भी विस्थापितों की खामोशी की उस रजामंदी के पीछे छुपी पीड़ा को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
राज्य का कोई भी हुक्मरान विस्थापन के मुुद्दे की पैरवी पूरी तफसील या उस शिद्दत से नहीं कर सका कि देश के सियासी पटल पर बिलासपुर की इस कुर्बानी की आवाज बुलंद लहजे में सुनाई दे सके। बांध बनने से पूर्व विस्थापन के मसले पर सियासी रायशुमारी भी नहीं हुई। नतीजतन बेघर लोग तन्हाई का शिकार होकर खौफ के साए में जीवनयापन करने को मजबूर हुए। जिला की माटी में मासूमियत की तासीर इस कदर थी कि झील का नाम सिक्खों के दसवें गुरू 'गोविंद सिंह' के नाम पर रखा गया जिस पर भी कोई तन्कीद नहीं हुई। झील की आगोश में खड़े पौराणिक मंदिर एक मुद्दत से अपने वजूद की जंग लडक़र 'भारतीय पुरातत्व विभाग' की बेरुखी पर अश्क बहा रहे हैं। सतलुज के तट पर महर्षि वेद व्यास का ऐतिहासिक तपोस्थान 'व्यास गुफा' शासन की उदासीनता का शिकार हो रही है। विस्थापितों के लिए दुखद पहलु यह है कि वे देशहित में बिना किसी नियम व नीति से उजडऩे के चश्मदीद खुद ही बने थे, जिन्हें छह दशकों से सियासी आश्वासन ही मिले हैं। बहरहाल आज़ाद भारत को सबसे बड़ी सौगात 'भाखड़ा बांध' देने वाला बिलासपुर फिर से गुलजार हो चुका है, मगर विस्थापन से उपजे गहरे जख्मों का दर्द बाकी है। देशहित में त्याग की नजीर पेश करने वाले लोगों की कद्र का मिजाज पैदा होना चाहिए। हमारे शासकों को चाहिए कि विस्थापितों के पुनर्वास के लिए ठोस नीति बनाकर उसे कानूनी शक्ल दें, ताकि भाखड़ा विस्थापन की सिसक रही कुर्बानियों को राहत मिल सके।
प्रताप सिंह पटियाल
लेखक बिलासपुर से हैं
Gulabi Jagat
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