सम्पादकीय

कड़कनाथ मुर्गा

Gulabi
13 Sep 2021 6:33 AM GMT
कड़कनाथ मुर्गा
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जब से कड़कनाथ मुर्गे को पता चला है कि देश के किसी हाईकोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की सलाह दी है

जब से कड़कनाथ मुर्गे को पता चला है कि देश के किसी हाईकोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की सलाह दी है, वह किसी भी समय बांग देने में गौरव महसूस कर रहा है। उसे गर्व यह है कि यह देश कितना राष्ट्रीय और कितना पशु हितैषी होने जा रहा है। उसे लगता है कि एक दिन वह भी राष्ट्रीय घोषित हो जाएगा, लेकिन इससे पहले उसे आवारा होकर घूमना पड़ेगा। वह अंडे से निकलते ही बंद मुर्गीखाने में रसीद हो गया। उसका भी एक मालिक है, जो खुदा नहीं। उसके सारे रिश्तेदार उसी के साथ पलते रहे, एक ही छत के नीचे। मुर्गे अगर सपने देखें, तो डर जाएंगे, इसलिए उसके बड़े-बुजुर्ग बांग देते हुए कुनबे को जगाते रहते हैं। सपने देखना इनसानों का काम है, उसका मालिक भी देखता है। एक दिन कड़कनाथ मुर्गे पर निगाहें डालते हुए मालिक ने दिन में ही सपना देख लिया था कि वह अगर दो किलो का हो गया, तो दो हजार में बिक जाएगा। कड़कनाथ अब अपने वजन से डरता है, इसलिए कम खुराक लेता है। उसके चाचा-ताया इसलिए बिक गए क्योंकि वे खा-खा कर मोटे हुए थे। कड़कनाथ मुर्गा अपनी बिरादरी का तमगा लिए, गाय से कहीं अधिक पुचकारा जाता था।

मुर्गीखाने के बाहर एक दिन आवारा गाय आई थी, लेकिन जैसे ही वहां बिखरी खाद्य सामग्री चुनने लगी, मालिक के लठैत ने उसे भगा दिया। कड़कनाथ ने गाय को बोलते हुए सुना था। वह कह रही थी, 'पागलो मैं राष्ट्रीय पशु घोषित होने वाली हूं। मेरे नाम पर सारा राष्ट्र चिंतातुर है। चारों तरफ मेरे चर्चे हैं, बल्कि कई बार मेरी सहमति के बिना ही मेरे नाम पर लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। इधर तुम लोग मुझे मुर्गी के दाने से भी भगा रहे हो। मेरा दूध खरीदते-बेचते हो, लेकिन मुझे ही दूध की सजा देते हुए मेरे बांझपन को सड़क पर खड़ा कर देते हो। कल मैं 'राष्ट्रीय पशुÓ बन भी गई, तो रहूंगी तो दाने-दाने को मोहताज। मुझसे तो मुर्गियां भी अच्छी हैं, जो अंतिम दिन तक सम्मान के साथ दाने तो चुन पाती हैं।Ó कड़कनाथ मुर्गा खुद पर सोचने लगा कि आखिर यह इनसान भी क्या है कि जिसका दूध पीता है, उसे ही घर से बाहर कर देता है। कड़कनाथ मुर्गा उस तराजू को देखने लगा, जहां बारी-बारी उसकी बिरादरी के सबसे बड़े व मोटे मुर्गों को तोला जा रहा था। तोलने पर ही मुर्गों को पता चल रहा था कि उनकी भी कीमत है। वह उडऩा चाहता था ताकि पता चले कि वजन बढ़ाने के बावजूद पंखों में कितनी ताकत है। जैसी ही मुर्गीखाने में उसकी तरह मुर्गे उडऩे को उतारू हुए, पकड़े गए। वह भी तराजू पर चढ़ा कर उतार दिया गया। मालिक के हिसाब में मुर्गा आ चुका था। वह भी हजार रुपए प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा था। ग्राहक आ चुका था। खरीददार एक इनसान ही तो था जिसने मुर्गे के दो किलो कच्चे मांस का सौदा किया था। उसे लगा कि जिंदा रहते अगर शरीर का सौदा हो जाए तो बेहतर है, वरना इनसानों की बस्ती में कब आवारा बनकर घूमना पड़े, पता नहीं। उसके साथ अन्य कड़कनाथ मुर्गे भी एक गाड़ी में छोड़ दिए गए थे। वह आगे की जिंदगी का सोचे बिना वहां दाने चुग रहा था, जबकि सामने सड़क पर कई संभावित राष्ट्र पशु के रूप में खाली पेट गाएं घूम रही थीं। उसे मालूम हो चुका था कि जिंदगी में मुर्गा होना कितना असहज है, फिर भी इस बात पर खुश था कि कम से कम उसे जीते जी आवारा बनकर घूमना तो नहीं पड़ा।
निर्मल असो, स्वतंत्र लेखक
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