सम्पादकीय

कानूनी प्रक्रिया के भारतीयकरण पर जस्टिस रमना की बातें सिर्फ सुनने नहीं, अमल करने के लिए हैं

Rani Sahu
19 Sep 2021 3:00 PM GMT
कानूनी प्रक्रिया के भारतीयकरण पर जस्टिस रमना की बातें सिर्फ सुनने नहीं, अमल करने के लिए हैं
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देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कल जब न्याय व्यवस्था में इंग्लिश के इस्तेमाल को लेकर आम आदमी के प्रति फिक्र जताई तो मुझे पांच साल पुरानी एक घटना याद आ गई

नीरज पाण्डेय। देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कल जब न्याय व्यवस्था में इंग्लिश के इस्तेमाल को लेकर आम आदमी के प्रति फिक्र जताई तो मुझे पांच साल पुरानी एक घटना याद आ गई. मैं एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट गया था. कोर्ट नंबर 10 में मैं अपनी बारी से 20 मिनट पहले ही पहुंच गया. अंदर दो जजों की बेंच पहले से लिस्टेड मामलों की सुनवाई कर रही थी. एक मुकदमे के दौरान वकील ने इंग्लिश में बोलना शुरू किया. जज साहब ने भी इंग्लिश में ही टोका और कहा कि 'सेंड इट बैक टू हाई कोर्ट' यानी केस वापस हाई कोर्ट के पास भेजा जाए. मुश्किल से दो-ढाई मिनट चली सुनवाई के बाद केस से जुड़ा पक्षकार हतप्रभ होकर खड़ा रहा. (मुझे बाद में पता चला कि वो यूपी के हरदोई का एक किसान था) चेहरे पर प्रश्नवाचक चिह्न समेटकर जब वो बाहर की ओर मुड़ने लगा तो जज साहब ने टोका- 'आपको पिछली बार भी कहा था न्याय मित्र कर लीजिए'. वकील ने जज की तरफ देखा तो वकील ने इशारा किया, बाहर चलिए सब बताता हूं. कहने का मतलब ये कि वादी की भाषा हिंदी थी, वकील की भाषा हिंदी थी, दो में से कम से कम एक न्यायाधीश (जो अब रिटायर हो चुके हैं) की भाषा भी हिंदी थी. लेकिन हरदोई के उस किसान के सामने सारी कार्यवाही इंग्लिश में हुई जिसे वो नहीं समझ पाया.

जस्टिस रमना ने कल यही तो कहा- 'ग्रामीण इलाकों से अपने पारिवारिक झगड़ों को लेकर कोर्ट पहुंचे पक्षकारों के लिए अदालत एक अजनबी दुनिया होती है क्योंकि आम तौर पर अंग्रेज़ी में की जाने वाली बहस उनके लिए विदेशी होती है.' उन्होंने एक अहम बात ये भी कही कि 'हमारी अदालतों की कार्य प्रणाली मूल रूप से औपनिवेशिक है, जोकि भारत की ज़रूरतों से मेल नहीं खाती है'.
देखा जाए तो जब भारत में लोकतंत्र नहीं था, तब भी फारसी या उर्दू अदालत की भाषा हुआ करती थी, क्योंकि देश का शासन इन्हीं ज़ुबानों का इस्तेमाल करने वाले राजतंत्र के हाथ में था. जब अंग्रेजों का ज़माना आया, तब कोर्ट की भाषा अंग्रेजी हो गई. औपनिवेशिक प्रभुत्व भी तभी स्थापित होता है, जब उपनिवेश की भाषा पर 'मालिक' की बोली थोप दी जाती है. आपको दक्षिण अमेरिका या अफ्रीका के अलग-अलग देशों में भी अलग-अलग अदालती भाषाएं मिलेंगी. मिसाल के तौर पर ब्राजील में पुर्तगाली जबकि लैटिन अमेरिका के बाकी कई देशों में स्पेनिश. उत्तर मध्य अफ्रीकी देश चाड में फ्रेंच जबकि नाइजीरिया में इंग्लिश. इसी तरह लीबिया और सोमालिया में आपको इटली बोलने वाले भी मिलेंगे. थोपी गई भाषा का यही वो औपनिवेशिक संस्कार है, जिसके तहत भारत में और यहां की अदालतों में अंग्रेजी का प्रभुत्व स्थापित है.
राष्ट्रपति पहले ही उठा चुके हैं भाषाई सीमा का मुद्दा
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (जोकि पेशे से वकील रह चुके हैं) ने भी इसी साल 6 मार्च को All India State Judicial Academies Directors' Retreat में कहा था कि 'भाषाई सीमाओं के कारण कोर्ट में वादी को अपने ही मामलों में लिए गए फ़ैसलों को समझने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.' देश के राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश जब अदालतों में भाषा की सुविधा का सवाल उठा रहे हैं, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इसपर जनता की अदालत में भी बहस होगी. न्यायालयों की आधिकारिक भाषा क्या हो, ये सवाल वर्ष 2020 में भी चर्चा में आया था. तब सुप्रीम कोर्ट ने 'हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम' को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं को पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट में अपील करने को कहा था. इस याचिका में 'हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम' को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई थी. ये अधिनियम हिंदी को राज्य की निचली अदालतों में प्रयोग की जाने वाली एकमात्र आधिकारिक भाषा के रूप में लागू करता है.
यहां संविधान के अनुच्छेद 348 को भी समझने की ज़रूरत है, जो दो बातें कहता है. पहली बात, जब तक संसद किसी अन्य व्यवस्था को ना अपनाए, तब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की कार्यवाही केवल अंग्रेजी भाषा में होगी. दूसरी बात, किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की अनुमति से हिंदी या दूसरी भाषा को हाई कोर्ट की कार्यवाही की भाषा का दर्जा दे सकता है. इसका मतलब साफ है कि जबतक संसद इस बारे में कोई नया कानून नहीं बनाती, तब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की भाषा अंग्रेजी ही बनी रहेगी. यानी अदालत की भाषा को बदलने का अधिकार अदालतों के पास नहीं, बल्कि शासन के पास है.
संविधान सभा में जो तर्क रखे गए उनमें दम है
भारत के संविधान में ये व्यवस्था जिस बहस के बाद बनाई गई, आपको उसके बारे में भी जानना चाहिए. मंगलवार, 13 सितंबर, 1949 को सुबह 9 बजे दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में संविधान सभा बैठी. हिंदी को लेकर पहले से ही प्रस्तावित इस विषय पर बहस शुरू हुई कि 'संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रयी रूप होगा'. राजभाषा को लेकर पेश प्रस्ताव से सहमत होते हुए 'मध्य भारत' से आने वाले सदस्य राम सहाय ने कहा- 'मैं इस प्रस्ताव से तो सहमत हूं लेकिन ये मेरी समझ से परे है कि जब हिंदी को अंग्रेजी की जगह लेने के लिए 15 वर्ष का समय दिया गया है, तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को लेकर एक अलग व्यवस्था क्यों बनाई जा रही है'. दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 343 में ये तो लिखा गया कि संघ की राजभाषा हिंदी होगी लेकिन इसी अनुच्छेद के खंड 1 में ये भी दर्ज किया गया कि 'संविधान के प्रारंभ से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका पहले से प्रयोग किया जा रहा था'. राम सहाय ने यही मुद्दा उठाया. उन्होंने कहा कि बाकी जगहों पर अगर हिंदी और अंग्रेजी दोनों की व्यवस्था की जा रही है तो अदालतों में सिर्फ अंग्रेजी क्यों स्थापित की जा रही है. उन्होंने एक वाजिब तर्क दिया- 'मध्य भारत में विधायिका की भाषा हिंदी है. सभी बिल, प्रस्ताव और संशोधन वहां हिंदी में तैयार किए जाते हैं. सदन की कार्यवाही हिंदी में चलती है. वहां हाई कोर्ट की भाषा भी हिंदी ही होनी चाहिए. वहां इंग्लिश को क्यों लाया जाना चाहिए. '
अंग्रेजी से बैर नहीं है, लेकिन स्थानीय भाषा तो अपनाइए
संविधान सभा में जब ये बहस चल रही थी, तब अलग-अलग प्रांतों के प्रतिनिधियों ने लोअर और हाई कोर्ट के लिए स्थानीय भाषा की वकालत की. ये तर्क भी दिए गए कि बेशक फैसले की कॉपी का अंग्रेजी में अनुवाद किया जाए, लेकिन कार्यवाही की भाषा अंग्रेजी नहीं होनी चाहिए.
अंत में एक रोचक जानकारी : संविधान सभा में जब हिंदी और अंग्रेजी को लेकर बहस चल रही थी, तब संयुक्त प्रांत से आने वाले अलगू राय शास्त्री ने हिंदी के पक्ष में विद्वतापूर्ण भाषण दिया. उन्होंने साहित्यिक उद्धरण भी दिए. मिसाल के तौर पर उन्होंने रामचरित मानस का ज़िक्र करते हुए एक चौपाई सुनाई- 'अरुण पराग जलज भरि नीके,ससिहिं भूष अहि लोभ अमी के'. इसपर सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने टोका 'ये संविधान सभा है, कोई कवि सम्मेलन नहीं.' इसपर अलगू राय शास्त्री हिंदी की समृद्ध परंपरा की दुहाई देते हुए आगे बढ़ गए. अलगू राय पहली लोकसभा में आजमगढ़ पूर्व से सदस्य थे, जिसका नाम अब घोसी है. इस विषय पर सभा की पूरी चर्चा बेहद रोचक है, जिसपर चर्चा फिर कभी.


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