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- आखिर इंसाफ
Written by जनसत्ता: आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी के खिलाफ राजद्रोह के मुकदमे को गलत पाए जाने और उनके बरी होने के मामले ने एक बार फिर यह साबित किया है कि कमजोर तबकों के प्रति पुलिस कैसे पूर्वाग्रहों के साथ काम करती है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा की एक विशेष अदालत ने जिस तरह 2011 में सोनी सोरी के खिलाफ दर्ज राजद्रोह के मुकदमे में उन्हें बरी किया, उसे इंसाफ की जीत कहा जा सकता है, मगर इसके साथ ही सरकार और पुलिस के रवैए पर भी कई गंभीर सवाल उठे हैं।
अदालत ने सोनी सोरी और उनके साथी लिंगाराम कोडोपी को दंतेवाड़ा पुलिस की ओर से दर्ज किए गए मामले में दोषी नहीं पाया। पुलिस ने आरोप लगाया था कि एस्सार कंपनी की ओर से माओवादियों को देने के लिए पंद्रह लाख रुपए सोरी और कोडोपी को दिए गए थे। लेकिन मुकदमे की इतनी लंबी अवधि में पुलिस अपने आरोपों के पक्ष में क्या कर सकी, इसका उदाहरण अदालत के फैसले में देखा जा सकता है। सबूतों के अभाव में सोनी सोरी को बरी करते हुए अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष सिवाय शक के आरोपियों के खिलाफ कोई भी आरोप साबित नहीं कर पाया।
अदालत की टिप्पणी यह बताने के लिए काफी है कि इस समूचे मामले में पुलिस तंत्र किस तरह के आग्रहों से संचालित होकर काम कर रहा था। सोनी सोरी पर लगाए गए जो आरोप एक दशक से ज्यादा वक्त में अदालत में साबित नहीं हुए, उसके बारे में क्या खुद पुलिस महकमे को अंदाजा नहीं था? सिर्फ शक की बुनियाद पर किसी को गिरफ्तार करके सजा दिलाने की कोशिश के पीछे आखिर क्या कारण थे? आखिर क्यों पुलिस अदालत में अपने आरोप के पक्ष में कोई पुख्ता सबूत नहीं पेश कर पाई? क्या महज शक के आधार पर किसी के सामान्य जीवन का हक उससे छीना जा सकता है?
अपनी गिरफ्तारी और उस दौरान खुद को यातना देने को लेकर सोनी सोरी ने गंभीर आरोप लगाए थे और यहां तक कहा कि उन्हें बेहद बर्बर तरीके से प्रताड़ित किया गया। सोनी सोरी पर तो महज आरोप थे, जो आखिरकार गलत साबित हुए। अगर ये आरोप सही भी होते, तो आम नागरिकों की सुरक्षा के लिए जानी जाने वाली पुलिस को किसी अपराधी के साथ भी ऐसा बर्ताव करने का हक कैसे मिल जाता है?
हमारे देश में हाशिये के समुदायों की जिंदगी कैसी रही है, यह छिपा नहीं है। सरकार या समूचे सत्ता तंत्र को जहां उनकी मुश्किलों को कम करने के लिए अपनी ओर से पहल करनी चाहिए, वहां कई बार उसका व्यवहार इन वर्गों के लोगों के खिलाफ बेहद अमानवीय और भेदभाव से भरा होता है। ऐसे मामले सामने आते रहे हैं, जिनमें समाज के दबंग तबकों या खुद पुलिस की ओर से दलितों या आदिवासियों के खिलाफ दमन-चक्र चलाया जाता है और ऐसे मामलों में भी इंसाफ मिलना मुश्किल होता है।
नक्सलियों या माओवादियों से जुड़े होने के शक में आदिवासियों की गिरफ्तारी और उन पर लगाए गए आरोप साबित हो पाने के मामले अपने आप में अध्ययन का विषय हैं। सोनी सोरी शिक्षिका थीं और अपना जीवन सामान्य तरीके से गुजारती थीं। उन्हें अपने ऊपर लगे आरोपों से बरी होने में लंबा वक्त लग गया। संसाधनों से वंचित वैसे लोगों के बारे में अंदाजा भर लगाया जा सकता है, जिन्हें सिर्फ शक के आधार पर गिरफ्तार कर लिया जाता है।अदालत के फैसले के बाद सोनी सोरी ने कहा कि मेरे वे ग्यारह साल कौन लौटाएगा! उनका यह सवाल उन्हें आरोपों के कठघरे में खड़ा करने वाली पुलिस सहित समूचे सत्ता तंत्र के सामने है कि उनकी नजर में इंसाफ की परिभाषा क्या है!