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इस दिवाली दुनिया भर के हिंदू परिवार जब मांगलिक कार्यों के अधिष्ठाता गणेश और धन-धान्य की देवी लक्ष्मी का पूजन करने बैठे होंगे
शशि शेखर इस दिवाली दुनिया भर के हिंदू परिवार जब मांगलिक कार्यों के अधिष्ठाता गणेश और धन-धान्य की देवी लक्ष्मी का पूजन करने बैठे होंगे, तब उनके मन में क्या कामना रही होगी? शायद यही- हे लंबोदर, हमें और हमारे परिवार को कोरोना जैसी महाबला से बचाकर रखना। मां लक्ष्मी से उन्होंने गुहार लगाई कि जैसी पिछली दिवाली बीती, वैसी अब कभी न बीते। इस बार हमारी जेब खाली न रहे
भारत में कोरोना के गिरते मामले और चढ़ते बाजार इन भक्तजनों को आस बंधाने के लिए काफी हैं। इस पर सटीक भविष्यवाणी असंभवप्राय है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस साल कितनी ऊंची और कारगर छलांग लगाएगी, पर महंगाई से बेहाल भारत के महान मध्यवर्ग के लिए जरूर कुछ अच्छी, तो कुछ बुरी खबरें हैं। शुरुआत अच्छी खबर से करते हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, बीते सितंबर के दौरान देश में 85 लाख नौकरियों की बढ़ोतरी हुई। मार्च 2020 में कोविड का प्रकोप शुरू होने के बाद से पहली बार इतनी संख्या में रोजगार उत्पन्न हुए हैं। इसी का नतीजा है कि बेरोजगारी दर 1.5 प्रतिशत घटकर 6.9 फीसदी पर सिमट गई है। यह आंकड़ा सितंबर, 2019 के मुकाबले थोड़ा ही पीछे है।
जीएसटी संग्रह के आंकड़े भी उम्मीद बंधाते हैं। इनमें लगातार बढ़ोतरी दर्ज की गई है और मौजूदा एक लाख 30 हजार करोड़ का आंकड़ा यकीनन कुछ महीनों में अपने ही कीर्तिमान तोड़ता नजर आएगा। धनतेरस और दिवाली पर बाजारों में उमड़ी भीड़ इस तथ्य की ताकीद करती है। आवासीय संपत्तियों के क्षेत्र में भी पिछली तिमाही में 13 फीसदी की बढ़ोतरी हुई और इसी के साथ नए प्रोजेक्ट की लांचिंग में जबरदस्त वृद्धि आंकी गई है। यहां मैं जान-बूझकर शेयर बाजार की बात नहीं कर रहा। उसकी जबरदस्त उछाल ने जहां लोगों को हैरत में डाल दिया है, तो वहीं कई सवाल भी खडे़ कर दिए हैं। क्या हमारा शेयर बाजार वाकई आम हिन्दुस्तानी की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है?
ऐसे तमाम प्रश्न हैं, जो इन गुलाबी आंकड़ों की आभा पर ग्रहण लगा देते हैं। सीएमआईई के ही अनुसार, इसी अक्तूबर में 6.4 लाख लोगों को नौकरियां गंवानी पड़ीं। एक अन्य रिपोर्ट कुछ महीने पहले छपी थी, जिसके अनुसार गुजरी अप्रैल-मई में दो करोड़ से अधिक लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। 'जॉब मार्केट' में इन दिनों यकीनन सुधार आया है, पर लड़खड़ाते लघु और मध्यम दर्जे के उद्योग इसे अगले मुकाम तक ले जाने की सामर्थ्य नहीं संजो पा रहे हैं। ये आंकड़े साबित करते हैं कि अगर किसी सेक्टर में रोजगार बढे़ हैं, तो कुछ क्षेत्रों में लोगों की नौकरियों पर कुठाराघात भी हो रहा है। बेरोजगारों से पटे पड़े इस मुल्क में जरूरत के मुताबिक रोटी-रोजगार के समुचित अवसर कब पैदा किए जा सकेंगे?
जबरदस्त महंगाई ने भी मध्यवर्ग की कमर तोड़ रखी है। केंद्र सरकार की पहल पर हर रोज बढ़ रही डीजल-पेट्रोल की कीमतों में कटौती की गई है, मगर यह कितनी कारगर साबित होगी? खाना पकाने की गैस हो या भोजन के लिए जरूरी सरसों का तेल, सबमें आग लगी हुई है। त्योहारों के मौसम में सब्जियों की महंगाई ने लोगों को अपनी थालियां इस बार हल्की रखने पर मजबूर कर दिया। 'ग्लोबल हंगर इंडेक्स' भी इस हकीकत की मुनादी करता है। भारत इस इंडेक्स में पाकिस्तान और नेपाल तक से नीचे पहुंच चुका है।
अक्सर आरोप लगाया जाता है कि विदेशी सर्वेक्षण एजेंसियां हमारी जमीनी हकीकतों से रूबरू नहीं होतीं और उनके मानक इस तरह गढे़ जाते हैं कि विकासशील देशों की उपलब्धियां कमतर दिखाई पड़ें। यह अर्द्धसत्य है। 'नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे' भी 'ग्लोबल हंगर इंडेक्स' को आधार प्रदान करता दीखता है। सर्वेक्षणकर्ताओं ने 17 प्रदेशों में गहन शोध के बाद पाया कि इनमें से 11 में कुपोषण के मामलों में चौंकाने वाली बढ़ोतरी हुई है। गरीब-गुरबा बिहार हो या अमीर गुजरात, दोनों जगह हालत चिंताजनक है। यहां 40 फीसदी तक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। जब नई उम्र की नई फसल ही पर्याप्त पोषण न मिलने से कुम्हला जाएगी, तब हमारे आने वाले कल का क्या होगा?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ही यह बेजारी फैली हुई है। धरती के स्वर्ग अमेरिका की बात करते हैं। वहां 'सेंटर ऑन बजट ऐंड पॉलिसी प्रॉयोरिटीज'(सीबीपीपी) ने पाया कि अमेरिका में 12 प्रतिशत लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा है। 16 फीसदी अमेरिकियों के पास मकान का किराया चुकाने तक के लिए धन नहीं है। यही नहीं, इस महादेश में लगभग एक तिहाई लोग ऐसे हैं, जो अपना रोजमर्रा का खर्च उठाने में असमर्थ हैं। भारत के दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासियों की भांति वहां भी अश्वेत और लातिनी परिवारों की स्थितियां ज्यादा भयावह हैं। अमेरिका अकेला नहीं है। यूरोप के धनी-मानी देश जर्मनी में असमानता तेजी से पैर पसार रही है। पिछले दिनों बर्लिन में आवासीय किरायों में अवांछित बढ़ोतरी के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुए। प्रदर्शनकारियों का कहना था कि हमारे मकान मालिकों ने किराया तो 30 से 40 फीसदी तक बढ़ा दिया है, पर आवासों के रखरखाव पर उनका कोई ध्यान नहीं है। तमाम पूर्वी यूरोप और लातिन अमेरिकी देशों में भी महंगाई, बेरोजगारी और बदहाली को लेकर होने वाले प्रदर्शनों में बढ़ोतरी देखी गई है।
ऐसे में, बेजारियत न फैले, यह संभव नहीं है। एक तरफ, कर्मचारियों की छंटनी हो रही है, तो वहीं बड़ी संख्या में कुशल कामगार और अधिशासी पुरानी कंपनियों को अलविदा कह रहे हैं। माइक्रोसॉफ्ट ने पिछले दिनों एक विश्वव्यापी सर्वेक्षण में पाया कि लगभग 40 फीसदी लोग अपनी नौकरियां बदलना चाहते हैं। कुछ लोगों ने तो 2020-21 को 'द ग्रेट रेजिग्नेशन ईयर' के विशेषण से ही नवाज दिया है। मतलब साफ है, दुनिया के निजाम में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे तत्काल सुधारने की आवश्यकता है। कोरोना ने दबी-छिपी तमाम तल्ख हकीकतों के मुखौटे नोचकर फेंक दिए हैं। अब धरती के हुक्मरानों के सामने नई चुनौतियां हैं। वे चाहें, तो इसे अवसर में बदल सकते हैं।
उत्तर भारत में यह त्योहारों का मौसम है। दिवाली अभी बीती है और छठ आने को है। सूर्य के इस पवित्र पर्व को पूर्णता तभी प्राप्त होगी, जब मध्य और निम्न वर्ग के लोगों की जेब पूरी भले ही न भरे, पर निरी खाली भी न रह जाए। उम्मीद है, गणेश-लक्ष्मी और छठी मैया इस बरस अपने भक्तों को निराश नहीं करेंगे।
Rani Sahu
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