सम्पादकीय

'सिर्फ हिंदी और कुछ नहीं' : अजय देवगन के इस दावे को दो टूक जवाब

Rani Sahu
29 April 2022 12:01 PM GMT
सिर्फ हिंदी और कुछ नहीं : अजय देवगन के इस दावे को दो टूक जवाब
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एक जंगल में हजारों हाथी, बाघ, शेर, बंदर, तेंदुए, हिरण, भालू, लोमड़ी, भेड़िये, सांप, बिच्छू, मकड़ी, कोयल, मोर, गौरैया, कैटरपिलर, गिलहरी, तितलियां, कीड़े, मृग, मछली, मगरमच्छ, बत्तख, केकड़े और विभिन्न प्रकार के जानवर रहते थे

आनंद गुरुराया :- एक जंगल में हजारों हाथी, बाघ, शेर, बंदर, तेंदुए, हिरण, भालू, लोमड़ी, भेड़िये, सांप, बिच्छू, मकड़ी, कोयल, मोर, गौरैया, कैटरपिलर, गिलहरी, तितलियां, कीड़े, मृग, मछली, मगरमच्छ, बत्तख, केकड़े और विभिन्न प्रकार के जानवर रहते थे. यहां हाथियों की संख्या अधिक थी, एक दिन उन्होंने कहा, "ओह! विभिन्न प्रकार के जानवर, जो कई तरह की आवाजें निकालते हैं और अलग-अलग प्रकार के भोजन करते हैं, उन्होंने जंगल की एकरूपता को बर्बाद कर दिया है. जंगल ने अपनी पहचान खो दी है. इसलिए, अब से यहां केवल हाथी होने चाहिए. या फिर सभी जानवरों को हाथी जैसे चलना चाहिए, घास और बांस वगैरह खाना चाहिए." नतीजतन, शेर की मांद से लेकर कोयल के घोंसले तक, सभी को हाथियों की तरह बांस वगैरह खाने की सीख दी गई. बाघों और शेरों को शिकार करना बंद करना पड़ा, मछलियों और मगरमच्छों को तैरना बंद करना पड़ा, सारस और हंस को उड़ना छोड़ना पड़ा. हाथियों की तरह जीना सीखने के लिए सभी जानवरों को एक स्कूल में दाखिला लेना पड़ा. उन्हें भोजन और सुरक्षा तभी मिलती थी जब वे इस स्कूल में दाखिला लेते थे.

हाथियों के वर्चस्व वाले जंगल की यह कहानी बेतुकी लग सकती है. लेकिन, यह हमारे महान देश की कहानी है. जी हां, यह कहानी है भारत की, जहां सैकड़ों भाषाएं (Languages Spoken in India) बोली जाती हैं. जहां एकता के किस्से सुनाए जाते हैं, लेकिन लोगों पर हिंदी थोपी जाती है. भारत की कहानी, जहां अगर लोग इस भाषा को नहीं सीखते तो उन्हें अवसरों से वंचित किया जाता है और सीखने पर उन्हें पुरस्कृत किया जाता है. भारत सरकार, देश की इस भाषाई विविधता को मिटाने का जो प्रयास कर रही है, वह इन जंगली हाथियों की कहानी की तरह है. (यहां हाथी शब्द केवल हिंदी (Hindi) बोलने वालों का प्रतिनिधित्व करता है, और अन्य जानवर गैर-हिंदी भाषी लोगों की तरह हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे की तुलना में, पहला अधिक मजबूत है.)
'भाषा केवल एक भावना नहीं है'
किसी भी समाज में भाषा की अहम भूमिका होती है. प्राचीन समय में, भाषा लोगों के बीच संचार का माध्यम थी. लेकिन अब यह इतने तक ही सीमित नहीं है. यह सहयोग का माध्यम भी है. यह सही और उचित है कि बच्चे की लोरी, स्कूली शिक्षा, आगे की पढ़ाई, नौकरी, कारोबार, सरकारी सेवा, पासपोर्ट, बैंक, बीमा, यात्रा, स्वास्थ्य संबंधी बातें, मनोरंजन, वगैरह अपनी मातृभाषा में होनी चाहिए. इस तरह, समाज में भाषा की स्थिति को निर्धारित करने में आम लोगों, सरकार और संविधान की अहम भूमिका है.
प्रशासन चलाने के लिए नियम-कानून बनाने में सरकार की बड़ी भूमिका होती है और इसी संदर्भ में सरकार को भाषा नीति भी बनानी चाहिए. न केवल सरकार, बल्कि बाजार में मौजूद निजी कंपनियों को भी कन्नड़ में अपने उत्पादों के बारे में बताना चाहिए और सरकारी नियमों से बंधे निजी कारोबारी घरानों को भी इसमें भूमिका निभानी चाहिए. कुल मिलाकर, देश को ठीक तरह से व्यवस्थित रखने के लिए सरकारी नियम अहम भूमिका निभाते हैं. अगला सवाल यह है कि क्या भारत के संविधान के माध्यम से अपनाई गई भाषाई नीतियां अपने सभी नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई हैं?
भारत की भाषा नीति
संवैधानिक रूप से भारत की भाषा नीति का जन्म 1950 में हुआ. संविधान के अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अनुसार, हिंदी और अंग्रेजी को राजभाषा का दर्जा दिया गया. इनमें कहा गया है कि भारत के कोने-कोने में सभी सेवाएं हिंदी में उपलब्ध कराई जानी चाहिए. यह हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में हिंदी को आगे बढ़ाने के प्रयासों को दर्शाता है.
हिंदी के विस्तार के लिए भाषाई योजना
सभी राज्यों को एक ही नौका में कैसे सवार किया जाए? इसके लिए भारत सरकार ने भाषाई योजना पेश की और एक समिति का गठन किया है. संसद के 20 सदस्यों वाली समिति के माध्यम से, यह अध्ययन किया जाता है कि प्रशासन में हिंदी को कैसे लागू किया जाए और राष्ट्रपति को सिफारिशें भेजी जाती हैं. इन्हीं सिफारिशों के आधार पर कानून लागू किया जा रहा है. इससे पता चलता है कि भारत सरकार का एकमात्र उद्देश्य, भारत के हर कोने में हिंदी को लागू करना है. इन प्रयास से राज्यों के बीच संवाद को लेकर हिंदी को बढ़ावा मिला है और लेकिन, वास्तव में प्रशासन रूप में हिंदी को बढ़ावा देने से भारत की विविधता को चोट पहुंची है.
सरकार का मकसद, अंग्रेजी को हटाना चाहती है. जो हमारे देश की पराधीनता का प्रतीक रही है, हालांकि सरल हिंदी के साथ इसने देश की समृद्धि में योगदान भी दिया है. गृह मंत्री अमित शाह ने भी हाल ही में यह बात कही है. यहां समस्या यह है कि भारत सरकार, अंग्रेजी के विकल्प के रूप में हिंदी को ही देख रही है. यह कहना कि भारत केवल हिंदी भाषी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, हम सभी को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बनाता है. यह ऐसा है जैसे सरकार, चांदी के चाकू को सोने से बदल रही है, जिसके पीछे उसका तर्क है कि चांदी का चाकू सभी को चोट पहुंचा रहा था. क्योंकि 60 फीसदी से अधिक आबादी के लिए, अंग्रेजी की तरह, हिंदी भी एक विदेशी भाषा है. जो लोग कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मलयालम, उड़िया, बंगाली, गुजराती, पंजाबी आदि में बोलते हैं, उन्हें अंग्रेजी के बजाय अपनी मातृभाषा मिलनी चाहिए, न कि दूसरी विदेशी भाषा.
आजादी से पहले, अंग्रेजी का इस्तेमाल केवल प्रशासन के लिए किया जाता था, जबकि लोग सार्वजनिक जीवन में अपनी भाषा का उपयोग करते थे. आजादी के बाद, सरकार द्वारा अपनाई गई भाषाई नीति के के कारण आज कन्नड़ का स्थान हिंदी ने ले लिया है. गैर-हिंदी भाषी लोगों का जीवन जांच के दायरे में आ गया है. यह एक दुखद स्थिति है जहां हमें अपनी शिक्षा, काम और दूसरी सेवाओं में कन्नड़ के उपयोग लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. भारत में हिन्दी के प्रसार की भाषाई नीति के कारण क्षेत्रीय भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं. त्रिभाषा नीति, जिसका उद्देश्य स्कूल स्तर पर हिंदी पढ़ाना है, हिंदी बोलने वाले प्रवासियों की सहायता के लिए बनाया गया सिस्टम है.
हिंदी का प्रोपेगेंडा
संविधान में अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के आधार पर, जिसने हिंदी को राजभाषा बनाया, राजभाषा विभाग, राजभाषा नियम और राजभाषा अधिनियम का जन्म हुआ. इसके तहत, यह घोषणा की गई थी सरकार की नीति पूरे भारत में हिंदी का उपयोग और प्रसार करना है. केंद्र सरकार, पूरे देश में हिंदी को लागू कर रही थी और कहने लगी कि हिंदी एक संपर्क भाषा है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदी को आधिकारिक भाषा बना दिया गया क्योंकि यह एक भारतीय भाषा है और देश में ज्यादातर लोग इसे समझते हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंदी थोपने का कारण, दीर्घकालिक सोच, उसके परिणाम और वास्तविकता की समझ नहीं थी, बल्कि इसका कारण भावनात्मक था.
"एकता की कमी के कारण, भारत पर दूसरों का कब्जा हुआ था. एकता के लिए एक भाषा होना जरूरी है. राज्यों और केंद्र-राज्यों को जोड़ने के लिए केवल एक भारतीय भाषा होनी चाहिए. इसके लिए हिंदी उपयुक्त भाषा है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लोगों की भाषा हिंदी थी. इसलिए, हिंदी देशभक्ति का प्रतीक है. हिंदी, भारत को एकजुट करने वाला एक उपकरण है." दुनिया को यह दिखाने के लिए कि, एक देश की एक भाषा होनी चाहिए, इस तरह का तर्क पेश किया गया. असल में, महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय नेता ऐसे विचारों में विश्वास करते थे, इसलिए सभी ने आंखें मूंद लीं और अपने राज्यों में हिंदी को लागू करने की कसम खाई. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आज भारत के राष्ट्रीय दलों की आकांक्षा 'एक राष्ट्र, एक भाषा' है."
हिंदी का थोपा जाना
हमें आजादी के 75 वर्ष हो गए हैं. हिंदी को देश की प्रशासनिक भाषा के रूप में लागू करने के कदम से गैर-हिंदी भाषाई राज्यों के लोगों का जीवन काफी प्रभावित हुआ है. ऐसे में जबकि हिंदी को लागू करने की योजना उम्मीद के मुताबिक नहीं चली, इसलिए दूरदर्शन और आकाशवाणी का इस्तेमाल हिंदी के प्रचार के लिए किया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि गैर-हिंदी भाषाई राज्यों के लोगों अपनी भाषा में मनोरंजन नहीं मिला. इसने हिंदी फिल्मों के विकास को भी जन्म दिया, जबकि एक वक्त पर जीवंत रहे पंजाबी, गुजराती और मराठी जैसी भाषाओं के रंगमंच को नुकसान हुआ. यदि आप भारतीय रेलवे सहित कई संगठनों में नौकरियों को देखें, तो गैर-हिंदी भाषी राज्यों के उम्मीदवारों को नुकसान हुआ. बैंकिंग क्षेत्र में नौकरियों के लिए, मार्क शीट हिंदी में होनी चाहिए. भारतीय रेलवे में 'डी' समूह की नौकरियों के लिए हिंदी में आवेदन जमा करना होता था.
थल सेना में नौकरी के लिए आवेदकों के आवेदन वापस कर दिए गए थे, क्योंकि उनके जन्म प्रमाण पत्र कन्नड़ भाषा में थे न कि हिंदी या अंग्रेजी में. त्रिभाषा फार्मूले के तहत अगर हमारे बच्चों को कन्नड़ सीखनी है तो अनिवार्य रूप से हिंदी भी सीखनी होगी. अगर कर्नाटक से संसद में निर्वाचित प्रतिनिधियों को कन्नड़ में बोलना होता है तो उन्हें स्पीकर की अनुमति लेनी पड़ती है. कर्नाटक हाई कोर्ट में हिंदी या अंग्रेजी का ही उपयोग होता है. आज अगर कर्नाटक हाई कोर्ट का कोई जज कन्नड़ में फैसला सुनाता है तो उनका प्रोत्साहन किया जाना चाहिए. विडंबनापूर्ण यह स्थिति भाषा नीति के कारण बनी है.
यह सब एक ऐसी स्थिति को जन्म देता है जहां 'विविधता में एकता' का नारा, सही मायने में प्रतिध्वनित नहीं होता और एक ऐसे हालात पैदा हो गए हैं जहां स्थानीय भाषाओं का उपयोग पर प्रतिबंध है और रोजमर्रा के संवाद में हिंदी का उपयोग करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है. हिंदी को केंद्र सरकार की प्रशासनिक भाषा बनाने से पूरे देश में नाराजगी पैदा हुई है. दूसरे शब्दों में, गैर-हिंदी भाषी लोगों को हल्की दृष्टि से देखा जाता है. हिंदी भाषी बेल्ट में जनसंख्या में वृद्धि का उपयोग, वहां के लोगों को कर्नाटक जैसे राज्यों में भेजने के लिए किया जा रहा है, जहां जनसंख्या में अपेक्षाकृत कम वृद्धि हुई और उन्हें अतिरिक्त कामकाजी लोगों की आवश्यकता है.
हिंदी थोपे जाने का असर
त्रिभाषा फार्मूले के तहत कर्नाटक के स्कूलों में हिंदी अनिवार्य है. लेकिन उत्तर प्रदेश का दसवीं का छात्र हिंदी और अंग्रेजी पढ़ता है, लेकिन हम दक्षिण भारतीय तीन भाषाएं पढ़ते हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत हिंदी माध्यम के छात्रों को अपनी पसंद की भाषा चुनने का विकल्प दिया गया है, जबकि कन्नड़ भाषी बच्चों को ऐसा अवसर नहीं दिया जाता है. क्या यह भेदभाव नहीं है? क्या हमारे बच्चों को यह पढ़ाना गलत नहीं है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है? क्या प्रदेश में होने वाले यूथ फेस्टिवल में मोनो एक्टिंग प्रतियोगिता को हिंदी में आयोजित करना गलत नहीं है? भारतीय सिविल सेवा (UPSC) परीक्षा, हिंदी और अंग्रेजी में आयोजित होती है. यहां तक कि बैंक भर्ती परीक्षाएं भी हिंदी में ही होती हैं.
क्या यह बराबरी के मौके को छीनने का प्रयास नहीं है? इन परीक्षाओं में हिंदी भाषी उम्मीदवारों का दबदबा है. विडंबना देखिए. आठवीं पास उम्मीदवार, दक्षिण-पश्चिम रेलवे में डी-ग्रेड पदों के लिए आवेदन करने के लिए योग्य है, लेकिन उसे केवल हिंदी या अंग्रेजी भाषा में हाथ से लिखा आवेदन भरना होगा. क्या इस नियम को खत्म नहीं किया जा सकता? यदि इन नियमों का पालन नहीं किया जाता, तो आवेदन स्वीकार नहीं किए जाते हैं. क्या यह नियम अन्याय नहीं है? क्या यह गलत नहीं है कि एसबीआई भर्ती परीक्षा के लिए आवेदक को केवल हिंदी भाषा में एसएसएलसी मार्क्स कार्ड जमा करना चाहिए?
क्या बीमा कंपनियों के एग्जाम हिंदी और अंग्रेजी में ही आयोजित करना ठीक है? क्या यह भेदभाव नहीं है कि भारतीय सिविल सेवा उत्तीर्ण करने वाले उम्मीदवारों को अंग्रेजी और हिंदी माध्यम में साक्षात्कार देना होता है? क्या इस तरह के कदमों से दूसरे भाषा वाले लोगों की तुलना में हिंदी भाषा के उम्मीदवारों की भर्ती ज्यादा नहीं होती? ऐसे नियमों के तहत नियुक्ति पक्षपातपूर्ण है और क्या यह गैर-हिंदी भाषी उम्मीदवारों को प्रतिस्पर्धा से बाहर रखने का बहाना नहीं है?
पहले ग्रामीण बैंक परीक्षा के नियम स्थानीय लोगों के पक्ष में थे, परिणामस्वरूप, सभी पद स्थानीय उम्मीदवारों से भरे गए थे. इन परीक्षाओं को केवल हिंदी या अंग्रेजी में आयोजित करने और भारत के किसी भी व्यक्ति के लिए आवेदन करने की छूट के पीछे क्या रहस्य है? क्या आईबीपीएस भर्ती नियमों में बदलाव, अनावश्यक और धोखाधड़ी नहीं है? भारत सरकार के अधिनियम की ड्राफ्ट कॉपियां सार्वजनिक की गई हैं और लोगों से इस पर प्रतिक्रिया देने के लिए कहा गया है. क्या यह नियम कठोर नहीं है, जो जनता से केवल हिंदी और अंग्रेजी में प्रतिक्रिया देने के लिए नहीं कह रहा है? यदि भारत सरकार कन्नड़ में पर्यावरण नीति के मसौदे को साझा नहीं करती है, तो वह कन्नड़ लोगों को प्रशासन से दूर रखेगी. क्या यह गलत नहीं है कि एलपीजी सिलेंडरों पर सुरक्षा निर्देश अंग्रेजी या हिंदी में दिए गए हैं, क्या यह गलत नहीं है कि फ्लाइट और ट्रेन टिकटों पर निर्देश और अन्य जानकारी अंग्रेजी और हिंदी में जारी किए जा रहे हैं? 70 साल पुरानी भारतीय भाषा नीति, देश के लोगों की एकता पैदा करने के बजाय एक तरह का संकट पैदा कर रही है.
भारत के संविधान में-समस्या की जड़!
हम भारतीय संविधान के 343 से 351 तक के अनुच्छेदों को देखें तो ऐसा लगता है कि समस्या की जड़ संविधान के भीतर ही है. हमारे गांव में जारी चेक बुक में, हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों पर कन्नड़ की अनुपस्थिति है और कन्नड़ फिल्म उद्योग में हिंदी फिल्मों कब्जा जमा रही हैं. कन्नड़ लोगों के जीवन का हर पहलू हिंदी फिल्मों से प्रभावित हुआ है और यह एकतरफा भाषाई नीति के कारण हुआ है.
कन्नड़ के लिए न यहां जगह है और न ही वहां. हमने कन्नड़ साइन बोर्ड, रेलवे पोस्ट प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया. कन्नड़ लोग बैंक नियुक्तियों के लिए लड़ रहे हैं. न चाहते हुए भी हमने मेट्रो रेल सेवाओं में हिंदी थोपने के खिलाफ आवाज उठाई. हमने भारतीय सेना के लिए जारी जाति प्रमाण पत्र का कन्नड़ में नहीं रहने का विरोध किया. हमने समस्या की शाखाओं और तनों को तो काट दिया, लेकिन इसकी जड़ें भारतीय संविधान में निहित हैं. जब तक हम इसे नहीं बदलते, हमारा कोई अस्तित्व नहीं है. यदि यह नीति जारी रही, तो गैर-हिंदी भाषी लोग भारत के दूसरे दर्जे के नागरिक बन जाएंगे. भले ही नीति बनाने वालों के पास भाषा से संबंधित उच्च विचार हो सकते हैं. इस नीति ने गैर-हिंदी भाषी नागरिकों को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया है.
यदि किसी को संविधान के मूल उद्देश्य की रक्षा करनी है और सभी के बीच सद्भाव सुनिश्चित करना है, तो भारतीय संविधान के भाग-XVII पर फिर से विचार करने की तत्काल आवश्यकता है. यदि भाषाई समानता प्राप्त नहीं की जाती है तो समानता अधूरी है और यदि स्थानीय भाषाओं में प्रशासन नहीं चलाया जाता है तो स्वतंत्रता अर्थहीन है. अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह रहना अपमानजनक है. यह लोकतंत्र के लिए घातक है. केंद्र सरकार को उन सभी भाषाओं को प्रशासनिक भाषा का दर्जा देना चाहिए जिनका उल्लेख भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में किया गया है. इसी तरह समानता प्राप्त की जा सकती है और समान अवसर पैदा किए जा सकते हैं. भारत को एकजुट रखने का यही एकमात्र तरीका है.
Rani Sahu

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