सम्पादकीय

जरा 'कटौती' : राज्यों को उनका हिस्सा क्यों नहीं, केंद्र-राज्य संबंध पहले कभी इतने भयावह नहीं रहे

Neha Dani
29 May 2022 1:46 AM GMT
जरा कटौती : राज्यों को उनका हिस्सा क्यों नहीं, केंद्र-राज्य संबंध पहले कभी इतने भयावह नहीं रहे
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अधीनस्थ राज्यों में अमानवीयता लाने वाली एकता और एकरूपता बनाने वाला एक भारत या एक संघीय भारत, जो जीवंत, सहकारी और प्रतिस्पर्धी राज्यों से समृद्ध है?

मैंने हाल ही में लिखा था कि 'केंद्र-राज्य संबंध पहले कभी इतने भयावह नहीं रहे।' पिछले कुछ दिनों में उनमें टकराव का एक और बिंदु जुड़ गया है : करों में कटौती के लिए कौन अधिक पहल कर रहा है? 21 मई को वित्त मंत्री ने घोषणा की कि सरकार ने पेट्रोल में प्रति लीटर आठ रुपये और डीजल में प्रति लीटर छह रुपये की उत्पाद शुल्क कटौती करने का फैसला किया है।

हालांकि अधिसूचना देर शाम जारी की गई। उस दिन सारे चैनल और अगले दिन सुबह आए अखबारों ने यह मानते हुए खबर दी कि कटौती उत्पाद शुल्क में होगी, राज्य जिसमें साझा करते हैं। पर ऐसा नहीं था; कटौती अतिरिक्त उत्पाद शुल्क में की गई, जिसे राज्यों से साझा नहीं किया जाता।
22 मई को वित्त मंत्री ने राज्यों को शर्मसार करने की कोशिश की : 'मैंने शुल्क में कमी की है और अब आप वैट में कमी कीजिए।' यह अपना वर्चस्व बताने की कोशिश थी। जैसे ही आंकड़े सामने आए, यह स्पष्ट हो गया कि केंद्र का राज्यों से पेट्रोल और डीजल में वैट कम करने के लिए दबाव बनाने का कोई मामला ही नहीं है।
आंकड़े झूठ नहीं बोलते
पहली बात, जरा 'कटौती' का विश्लेषण कीजिए। केंद्र को होने वाला लाभ अतिरिक्त उत्पाद शुल्क (जिसे सड़क और बुनियादी ढांचा अधिभार या आरआईसी भी कहते हैं), विशेष अतिरिक्त उत्पाद शुल्क (एसएईडी) और कृषि तथा बुनियादी ढांचा विकास अधिभार (एआईडीसी) से प्राप्त होता है, जिसे राज्यों के साथ साझा नहीं किया जाता।
मई, 2014 में प्रति लीटर पेट्रोल में कुल उत्पाद शुल्क 9.48 रुपये था और प्रति लीटर डीजल में 3.56 रुपये। 21 मई, 2022 के आते-आते केंद्र ने इसमें वृद्धि कर प्रति लीटर पेट्रोल में 27.90 रुपये और प्रति लीटर डीजल में 21.80 रुपये कर दिया। यानी प्रति लीटर 18 रुपये से भी अधिक की बढ़ोतरी! अब जरा साझा किए जाने वाले बुनियादी उत्पाद शुल्क और साझा नहीं किए जाने वाले आरआईसी पर गौर कीजिए, जिसे कम किया गया है। (देखें टेबल)
तारीख बुनियादी उत्पाद शुल्क अतिरिक्त उत्पाद शुल्क (सड़क और बुनियादी अधिभार) कुल उत्पाद शुल्क
प्रति लीटर (साझा किया गया) प्रति लीटर (साझा नहीं किया गया)
21 मई को
पेट्रोल
डीजल 1.40 रुपये
1.80 रुपये 13.00 रुपये
8.00 रुपये 27.90 रुपये
21.80 रुपये
21 मई के बाद
पेट्रोल
डीजल 1.40 रुपये
1.80 रुपये 5.00 रुपये
2.00 रुपये 19.90 रुपये
15.80 रुपये
वित्त आयोग द्वारा निर्धारित प्रतिशत के आधार पर साझा किए जाने वाले कर राजस्व में से 59 फीसदी केंद्र अपने पास रखता है और सारे राज्य बचे 41 फीसदी में साझा करते हैं। सारे राज्यों को मिलाकर पेट्रोलियम उत्पादों से बहुत मामूली हिस्सा मिलता है : प्रति लीटर पेट्रोल में 57.4 पैसे और प्रति लीटर डीजल में 73.8 पैसे! बुनियादी उत्पाद शुल्क से न तो कोई महत्वपूर्ण लाभ होता है और न ही नुकसान।

राजस्व का वास्तविक स्रोत है साझा न किए जाने वाला उत्पाद शुल्क। इनमें 21 मई, 2022 को प्रति लीटर पेट्रोल तथा डीजल में 18 रुपये से अधिक की बढ़ोतरी कर वित्त मंत्री ने इसमें प्रति लीटर में क्रमशः आठ रुपये और छह रुपये की कमी की है! यानी कम देकर अधिक की वसूली।

वैट मुख्य राजस्व है
यह साफ है कि राज्यों को व्यावहारिक रूप में पेट्रोल और डीजल के जरिये केंद्र द्वारा जुटाए जाने वाले राजस्व से कुछ नहीं मिलता। राजस्व का उनका मुख्य स्रोत पेट्रोल और डीजल पर लगाया जाने वाला वैट है। उनका अन्य स्रोत शराब पर लगाया जाने वाला कर है। उल्लेखनीय है कि कुल राजस्व के अनुपात में राज्यों के अपने संसाधन घट रहे हैं।

राज्यों को पेट्रोल और डीजल पर वैट में कटौती करने के लिए प्रोत्साहित करना राज्यों को खुद भीख मांगने के लिए कहने के समान है : वे पस्त हो जाएंगे और अधिक उधार लेने के लिए बाध्य होंगे (बेशक केंद्र सरकार की अनुमति से) या अधिक अनुदान के लिए केंद्र के सामने कटोरा लेकर हाजिर हो जाएंगे। इससे राज्यों के पास जो थोड़ी-सी वित्तीय स्वतंत्रता है, वह भी हवा हो जाएगी। फिर भी, चार राज्यों तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और राजस्थान ने वैट में कटौती की है।

पूर्ण समीक्षा की जरूरत
तटस्थ पर्यवेक्षकों का तर्क है कि केंद्र-राज्यों की वित्तीय शक्तियों और संबंधों के सभी पहलुओं की व्यापक समीक्षा की जानी चाहिए। विशेष रूप से जीएसटी कानूनों से संबंधित कामकाजी अनुच्छेद 246 ए, 269 ए और 279 ए की समीक्षा की जानी चाहिए। राज्यों को अपने संसाधन पैदा करने के लिए और अधिक वित्तीय शक्ति दी जानी चाहिए।

यह एक तथ्य है कि जो राज्य संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, वे शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों को पर्याप्त धन नहीं देते हैं और इसका परिणाम यह है कि संविधान के 73वें और 74वें संशोधन ठंडे बस्ते में पड़े हैं। नगरपालिका और पंचायत संस्थाओं के लिए न तो धन उपलब्ध कराया जाता है, न ही कार्य और न ही पदाधिकारी।

केंद्र सरकार के हाथों में वित्तीय शक्तियों के आभासी एकाधिकार ने केंद्र सरकार में अन्य शक्तियों का केंद्रीकरण किया है। केंद्र ने राज्यों के विधायी क्षेत्र में अतिक्रमण किया है। कृषि कानून इसका उदाहरण हैं। केंद्र अक्सर अपनी कार्यकारी शक्ति का इस्तेमाल राज्यों की कार्यकारी शक्ति को दबाने के लिए कर रहा है। (मसलन, पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव को दंडित करने और राज्य को डराने के लिए संबंधित अधिकारी की सेवानिवृत्ति के दिन ही उनका स्थानांतरण और उनकी 'पदस्थापना' की।) केंद्र की नीतियां पूरे देश में एकरूपता थोपना चाहती हैं। (मसलन नीट, एनईपी और सीयूईटी)। संघीय सिद्धांतों का गंभीर क्षरण हुआ है।

खतरा यह है कि, आने वाले समय में, संघवाद समाप्त हो जाएगा और भारत एक एकात्मक राज्य बन जाएगा- यह एक ऐसा प्रस्ताव है, जिसे संविधान सभा ने स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया था।
यह आपको तय करना है कि आप क्या चाहते हैं? अधीनस्थ राज्यों में अमानवीयता लाने वाली एकता और एकरूपता बनाने वाला एक भारत या एक संघीय भारत, जो जीवंत, सहकारी और प्रतिस्पर्धी राज्यों से समृद्ध है?

सोर्स: अमर उजाला

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