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देश के मौजूदा हालात और खास तौर से दिल्ली के आसपास किसान संगठनों के धरना-प्रदर्शन को देखते हुए यह माना जा रहा था कि
देश के मौजूदा हालात और खास तौर से दिल्ली के आसपास किसान संगठनों के धरना-प्रदर्शन को देखते हुए यह माना जा रहा था कि संसद का बजट सत्र हंगामे के चलते बर्बाद हो सकता है, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि सरकार ने विपक्ष को साधते हुए संसद की कार्यवाही को कामकाज लायक बनाए रखा। इसके चलते दोनों सदनों में बखूबी कामकाज हुआ। उत्पादकता के लिहाज से बजट सत्र का पहला हिस्सा खासा सफल कहा जा सकता है। थोड़ा-बहुत शोर-शराबा और हंगामा तो संसद में होता ही है। ऐसा ही इस बार भी हुआ, लेकिन वह मुख्यत: लोकसभा तक अधिक सीमित दिखा।
लोकसभा में हंगामा करके विपक्ष ने अपने को बेनकाब ही किया, क्योंकि राष्ट्रपति के जिस अभिभाषण पर राज्यसभा में चर्चा शुरू हो गई थी, उस पर लोकसभा में कई दिनों तक हंगामा होता रहा। पहले राज्यसभा और फिर लोकसभा में विपक्ष की ओर से कृषि कानूनों और किसानों पर बातें तो बहुत की गईं, लेकिन लगता है वह तैयारी से नहीं आया या फिर उसके पास इन कानूनों के खिलाफ कहने के लिए कुछ ठोस नहीं था। वह कुल मिलाकर वही निराधार आरोप दोहराता रहा, जो किसान नेता उछालने में लगे हुए हैं। जैसे राज्यसभा में विपक्ष कृषि मंत्री के इस सवाल का जवाब नहीं दे पाया कि आखिर कथित काले कानूनों में काला क्या है, वैसे ही वह लोकसभा में प्रधानमंत्री के इस प्रश्न पर अनुत्तरित रहा कि कोई यह बताए कि इन कानूनों में कमी क्या है? प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कहा कि अगर विचार करने लायक कोई कमी होगी तो उस पर गौर किया जाएगा। इसके बाद भी विपक्षी दल यह नहीं बता सके कि आखिर इन कानूनों में खराबी क्या है और है तो उसे कैसे दूर किया जा सकता है? विपक्ष ने आरोप तो खूब लगाए, लेकिन किसी मसले पर ऐसा कुछ नहीं कहा, जिससे देश का ध्यान उसकी ओर आकर्षित होता।
कृषि कानूनों पर किसानों को उकसाने में लगी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा में तो भाग नहीं लिया, लेकिन बजट पर अपने विचार रखते समय कृषि कानूनों पर बोले। इस दौरान भी वह इन कानूनों की कथित खामियों पर प्रकाश नहीं डाल पाए। इसके बजाय उन्होंने हम दो हमारे दो का नारा उछालकर सरकार पर कटाक्ष किया और कृषि कानूनों को लेकर हास्यास्पद आरोप लगाए। उनकी मानें तो सरकार इन कानूनों के जरिये किसानों को उनकी उपज का मूल्य नहीं देना चाहती, अनाज की जमाखोरी कराना चाहती है और उद्योगपतियों की जेब भरना चाहती है। ये सब वही बेतुकी बातें हैं, जो वह न जाने कब से दोहरा रहे हैं। ऐसी बातें करके राहुल अपनी खोखली सोच को ही उजागर कर रहे हैं।
कृषि कानूनों पर विपक्ष के निराधार और मनगढ़ंत आरोप
यह निराशाजनक है कि जब विपक्ष से तर्क और तुक की बात करने की अपेक्षा की जाती है, तब वह निराधार और मनगढ़ंत आरोप उछालता है। ऐसा करने से वह चर्चा में तो आ जाता है, लेकिन इससे विमर्श का स्तर गिरता है और जनता को कुछ हासिल नहीं होता। भाजपा और मोदी सरकार विपक्ष से लगातार पूछ रही है कि आखिर लोकसभा चुनावों के समय कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में उसी तरह के कृषि कानूनों का वादा क्यों किया था, जैसे कानून बनाए गए हैं, लेकिन इसका कोई जवाब सामने नहीं आ रहा है। खुद राहुल भी जवाब देने से इन्कार कर रहे हैं। इसके बजाय वह यह जुमला दोहराने में लगे हैं कि यह सरकार चंद उद्यमियों के फायदे के लिए चलाई जा रही है।
पीएम मोदी ने कहा- निजी क्षेत्र के सहयोग से हुआ अर्थव्यवस्था का विकास
यह सुखद है कि एक ऐसे समय जब राहुल गांधी उद्यमियों को गाली देने और उन्हें खलनायक की तरह पेश करने में लगे हुए हैं, तब प्रधानमंत्री ने लोकसभा में बिना किसी लाग-लपेट यह कहा कि निजी क्षेत्र के सहयोग से अर्थव्यवस्था का जो विकास हुआ है, उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए और देश को ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करना होगा जो धन अर्जन करते हैं। आखिर जब धन होगा तभी तो उसे गरीबों तक पहुंचाया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि यह सोच गुजरे जमाने की है कि सब कुछ सरकार करे। जैसी उम्मीद थी, प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद राहुल नए सिरे से उद्योगपतियों को बुरा बताने लगे। उनकी बातों से यही पता चलता है कि अति वामपंथ से ग्रस्त कांग्रेस यह समझने को तैयार नहीं कि आज के दौर में कोई भी देश निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किए बगैर आगे नहीं बढ़ सकता।
बजट की बेतुकी आलोचना पर वित्त मंत्री ने कांग्रेस और राहुल गांधी को सुनाई खरी-खरी
यह अच्छा हुआ कि बजट की बेतुकी आलोचना पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में कांग्रेस के साथ-साथ राहुल गांधी को भी खरी-खरी सुनाई और दामाद का जिक्र करके उन्हेंं यह अच्छे से समझाया कि क्रोनी कैपिटलिज्म का क्या मतलब होता है। उन्होंने राहुल के हम दो हमारे दो जुमले का भी सटीक जवाब दिया। एक जमाना था जब उद्योगपतियों की पूंजी को काली कमाई कहकर लांछित किया जाता था और सस्ती राजनीति की जाती थी। यह जमाना लद चुका है और आज ऐसा करना उद्यमशीलता पर चोट करने के अलावा और कुछ नहीं। सरकार का काम उद्योग चलाना नहीं, उनके लिए प्रभावी नियम-कानून बनाना और यह देखना है कि उनका उल्लंघन न हो। यह भी समझा जाना चाहिए कि निजीकरण के बिना भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं होने वाला।
कांग्रेस भूलती जा रही है कि मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को खोलने का काम किया था
समस्या यह है कि राहुल गांधी ही नहीं, कांग्रेस भी यह भूलती जा रही है कि कैसे नरसिंह राव के समय मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को खोलने का काम किया था? इससे देश को लाभ मिला, लेकिन राहुल इसकी अनदेखी ही कर रहे हैं। लगता है वह अब भी उसी युग में जी रहे, जब गरीबी को महिमामंडित कर उद्योगपतियों को कठघरे में खड़ा किया जाता था। यह ठीक है कि अभी भी गरीबी है, परंतु बीते तीन दशकों में देश बहुत आगे बढ़ा है। करीब आधी आबादी मध्य वर्ग के दायरे में आ चुकी है और वह बेहतर सुख-सुविधा के लिए लालायित है। यह सुख-सुविधा केवल सरकार नहीं दे सकती।
विपक्ष कृषि कानूनों, बजट और विनिवेश को लेकर संसद में तर्कसंगत बात नहीं रख सका
यह अफसोस की बात है कि विपक्ष न तो कृषि कानूनों पर कोई तर्कसंगत बात रख सका, न ही बजट और खासकर विनिवेश को लेकर। इससे यही पता चलता है कि कमजोर विपक्ष अपनी तर्कहीनता और सतही राजनीति से अपने को और कमजोर करने का ही काम कर रहा है। यह न तो देश की राजनीति के लिए शुभ है और न ही लोकतंत्र के लिए। विपक्ष का काम केवल जुमलेबाजी करना नहीं, बल्कि सत्तापक्ष की कमजोरियों को सही तरह से इंगित करना है।
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