सम्पादकीय

सत्ता को सीमा बताने वाले जेपी

Rani Sahu
7 Oct 2022 6:59 PM GMT
सत्ता को सीमा बताने वाले जेपी
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आजादी और देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के बाद महात्मा गांधी की परम्परा को आगे ले जाने में जिन नेताओं की भूमिका को सबसे ज्यादा याद किया जाता है उनमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) सबसे महत्वपूर्ण हैं। आजादी के बाद हुए पहले आम चुनाव के बाद से ही जेपी यह मानने लगे थे कि राजसत्ता चाहे जिस रूप में हो, कल्याणकारी नहीं हो सकती। उनका कहना था कि उसमें जनता की भागीदारी का प्रभाव नहीं होता है। जब उन्होंने देखा कि राजसत्ता आक्रामक तानाशाह की तरह काम करने लगी है, जिसमें लोकतंत्र सिर्फ वोट भर है, तो वे उठ खड़े हुए और उसे उखाडक़र फेंकने में सफल भी हुए। 11 अक्टूबर 1902 को बिहार के एक छोटे से गांव सिताब-दियारा में जन्मे जेपी 1922 से 1929 तक पढ़ाई के लिए अमेरिका में रहे। इस दौरान पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए उन्हें खेतों, कंपनियों, होटलों आदि में काम करना पड़ा। काम और अध्ययन के दौरान उन्हें श्रमिक वर्ग की कठिनाइयों को करीब से जानने का मौका मिला। समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के प्रति उनके विचारों को इन अनुभवों से और ज्यादा मजबूती मिली।
भारत लौटने पर जवाहर लाल नेहरू के कहने पर जेपी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने पर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। नासिक जेल में ही वे राम मनोहर लोहिया, अशोक मेहता, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, सीके नारायणस्वामी और अन्य नेताओं के संपर्क में आए। इस संपर्क ने उन्हें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जो आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में कांग्रेस के भीतर वामपंथी झुकाव वाला एक समूह था। दिसंबर 1939 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव के रूप में जयप्रकाश ने लोगों से आह्वान किया कि दूसरे विश्व युद्ध का फायदा उठाते हुए भारत में ब्रिटिश शोषण को रोका जाए और ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंका जाए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेपी को गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल में रखा गया था, लेकिन 9 नवंबर 1942 को दिवाली के मौके पर वे अपने छह साथियों के साथ जेल से फरार हो गए। ब्रिटिश शासन के अत्याचार से लडऩे के लिए नेपाल में उन्होंने एक आज़ाद दस्ता भी बनाया। जेल से भागने की घटना ने उन्हें देश के युवाओं में अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया। इस घटना ने यह भी दर्शा दिया कि जेपी जितने शालीन और मर्यादित थे, उतने ही बड़े क्रांतिकारी भी। जेपी ने देश को अपने समाजवादी विचारों के अनुकूल बनाने की कोशिश की। पचास के दशक में आई उनकी किताब 'भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना : एक सुझाव' में आज के जमाने में हमारे लिए सबसे उपयुक्त राज्य पद्धति और शासन व्यवस्था के स्वरूप को स्पष्ट करती है। जेपी ने राष्ट्र के समतामूलक आदर्श को उन प्रजातांत्रिक मानकों के रूप में देखने की कोशिश की जिन पर सत्ता का नहीं, जनता का अधिकार होता है। जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से असहमति के कारण ही उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होना स्वीकार नहीं किया।
सत्ता को अपने स्वभाव के विपरीत मानकर ही उससे दूरी बनाई। वे सही मायने में गांधीजी के उस उत्तराधिकार को मानते थे जिसमें बिना किसी स्वार्थ के सेवाभाव प्रमुख था। यही वजह है कि 1967 में जब सर्वसम्मति से उन्हें देश के राष्ट्रपति पद पर बैठाने की बात आई तो उन्होंने इनकार कर दिया। इस इनकार के जरिए उन्होंने जो आदर्श पेश किया, उसकी मिसाल खोजना मुश्किल है। 'सम्पूर्ण क्रांति' में एक नारा गूंजा था…'जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो, समाज के प्रवाह को नई दिशा में मोड़ दो।' इस नारे की गूंज काफी दूर तक गई। दरअसल सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी तेज थी कि इसकी वजह से केंद्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। जेपी की हुंकार पर नौजवानों का जत्था सडक़ों पर निकल पड़ा था। बिहार से उठी क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भडक़ उठी और जेपी घर-घर में क्रांति के पर्याय बन गए। दरअसल आजादी के दो दशक बाद देश की राजनीतिक, आर्थिक और कानून व्यवस्था की खराब हालत ने जेपी को विचलित कर दिया था। यही वजह थी कि सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुकने के बाद उन्होंने दोबारा राजनीति में आने का निर्णय लिया। दिसंबर 1973 में जेपी ने 'यूथ फॉर डेमोक्रेसी' नामक संगठन बनाया और देशभर के युवाओं से अपील की कि वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं। गुजरात के छात्रों ने जब 1974 में चिमनभाई पटेल की सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो जेपी वहां गए और नवनिर्माण आंदोलन का समर्थन किया। तब जेपी ने कहा था कि 'मुझे क्षितिज पर वर्ष 1942 दिखाई दे रहा है।' इसके बाद मार्च में विद्यार्थियों के जोर देने पर जेपी ने बिहार में आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया और यही बिहार आंदोलन बाद में सम्पूर्ण क्रांति में बदल गया। बिहार का छात्र आंदोलन उन समस्याओं का परिणाम था जिन्हें लेकर छात्रों और आम जनता में जबरदस्त आक्रोश और असंतोष था। शैक्षिक स्तर में गिरावट, बेलगाम महंगाई, बेरोजगारी, शासकीय अराजकता और राजनीति में बढ़ता अपराधीकरण ऐसे मुद्दे थे जिन्हें लेकर आम आदमी काफी परेशान था। ऐसे में छात्र-युवाओं का संगठित आंदोलन एक स्वाभाविक घटना थी। लिहाजा यह एक ऐसा आंदोलन बन गया जिसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ा। जेपी ने कहा था कि 'यह क्रांति है मित्रो! और सम्पूर्ण क्रांति है। विधानसभा का विघटन मात्र इसका उद्देश्य नहीं है। यह तो महज मील का पत्थर है। हमारी मंजिल तो बहुत दूर है और हमें अभी बहुत दूर तक जाना है।' सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान करते हुए जेपी ने घोषणा की थी कि 'भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं।
वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं और तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रांति-सम्पूर्ण क्रांति आवश्यक है। इस व्यवस्था ने जो संकट पैदा किया है वह सम्पूर्ण और बहुमुखी है, इसलिए इसका समाधान सम्पूर्ण और बहुमुखी ही होगा। व्यक्ति का अपना जीवन बदले, समाज की रचना बदले, राज्य की व्यवस्था बदले, तब कहीं बदलाव पूरा होगा और मनुष्य सुख और शांति का मुक्त जीवन जी सकेगा।' अपने आदर्श और विचारों को धरातल पर उतारने के लिए लोकनायक ने सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियों को शामिल किया था, जिसमें उन्होंने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति शामिल की थी। जेपी के मुताबिक इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रांति पूरी होती है। इस दर्शन के जरिए वे पूरे देश में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे जिसमें सामाजिक जीवन का कोई पक्ष अछूता नहीं था। जेपी की सम्पूर्ण क्रांति का दर्शन अंग्रेजी में प्रकाशित उनके दो महत्वपूर्ण निबंधों में दिखाई देता है।
इसके आधार पर उन्होंने एक समग्र विचार देने की कोशिश की और अपने कर्मों से उसे चरितार्थ भी किया। संपूर्ण क्रांति का दर्शन आज पहले के मुकाबले ज्यादा प्रासंगिक है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के इस युग में अगर हम एक राष्ट्र के रूप में अपने को सही अर्थों में पाना चाहते हैं तो इस दर्शन का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। सम्पूर्ण क्रांति को सभी गैर-वामपंथी पार्टियों का पूरा समर्थन मिला। दरअसल, 1971 के चुनावों में हारने के बाद इन पार्टियों ने जेपी के रूप में एक ऐसे जन-नेता की छवि देखी जो उन्हें कांग्रेस के विकल्प के रूप में मान्यता दिलवाने योग्य बना सकता था। इसके बदले में जेपी यह समझते थे कि बिना इन पार्टियों के सांगठनिक ढांचे के वे न तो सडक़ पर और न ही चुनावों में इंदिरा गांधी का मुकाबला कर सकते हैं। आंदोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन सरकारों ने हरसंभव उपाय अपनाए। 4 नवंबर 1974 को पटना में घटी घटना आज भी पुलिसिया बर्बरता की याद दिलाती है जब शांतिपूर्ण जुलूस की अगुवाई कर रहे जेपी को पुलिस कार्रवाई में गंभीर चोटें आई थी। लोकतांत्रिक तानेबाने की सुरक्षा के लिए जेपी की प्रतिबद्धता को भुलाया नहीं जा सकता। -सप्रेस
कुमार कृष्णन
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimacha
Rani Sahu

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