सम्पादकीय

सुकून के सफर का मुकाम

Subhi
28 Oct 2022 6:02 AM GMT
सुकून के सफर का मुकाम
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शांति की तलाश में सत्संग पंडालों से लेकर धर्मस्थलों तक और पुस्तक ज्ञान से लेकर योग या ध्यान, सब कुछ करने के बाद भी बेचैनी इस कदर छायी रहती है कि लोगों का पीछा नहीं छोड़ रही। कभी यहां ये करते और कभी वहां वह काम करते लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि जीवन में सुकून पाने के लिए आखिर करें तो क्या करें?

मोहन वर्मा: शांति की तलाश में सत्संग पंडालों से लेकर धर्मस्थलों तक और पुस्तक ज्ञान से लेकर योग या ध्यान, सब कुछ करने के बाद भी बेचैनी इस कदर छायी रहती है कि लोगों का पीछा नहीं छोड़ रही। कभी यहां ये करते और कभी वहां वह काम करते लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि जीवन में सुकून पाने के लिए आखिर करें तो क्या करें?

बहुत बड़े सवाल के बहुत छोटे-छोटे जवाब हैं और सामना चूंकि हमारा-आपका है तो जाहिर है कि जवाब भी हमारे-आपके पास ही हैं। जरूरत उन्हें जानने-समझने की है। जैसे परमपिता को खोजने हम तीर्थस्थलों, धर्मस्थलों और सत्संग पंडालों में जाते है और यह नहीं जान पाते कि वह दरअसल किसी जरूरतमंद की मदद करने और किसी रोते को हंसाने में मौजूद है।

सच यह है कि जिस आत्मा-परमात्मा की खोज में हम अपनी ऊर्जा खपाते हैं, वह हमारे भीतर ही है। यानी दिल के आईने में है वह तस्वीरे-यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख लिए। इसी तरह सुकून पाने का भी कोई बड़ा राज नहीं है। पहला राज है खुद के शौक को जिंदा रखते हुए जो करना है, वह करें, इस बात की परवाह किए बगैर कि कौन क्या कहेगा। यहां किसी की उम्र या शारीरिक स्थिति बहुत मायने नहीं रखती है। हां, यह जरूर है कि जो भी किया जाए, अपनी क्षमता को सामने रख कर करना चाहिए।

मेंढ़कों की दौड़ में जीते हुए मेंढ़क से जब उत्साह के हो-हल्ले के बीच ये जानने के लिए सवाल किया गया कि जीत के लिए उसने क्या किया तो मालूम पड़ा कि वह बहरा है। दौड़ के दौरान शोर या चिल्ल-पों सुने बगैर अपने लक्ष्य पर सारा ध्यान केंद्रित करने का नतीजा ही उसकी जीत होती है। इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि हमारे लिए कौन क्या कह रहा है। हमारी जीत या हार से दूसरों को नहीं, हमें और हमारे अपनों को फर्क पड़ेगा।

एक और राज है अपेक्षा और उपेक्षा की परवाह किए बिना जीने का प्रयास किया जाए। हमें अपने भीतर के बजाय बाहर की दुनिया ज्यादा प्रभावित करती है। यह मुश्किल तो है, मगर लगातार प्रयास किया जाए कि दूसरों द्वारा की जा रही उपेक्षा से हम विचलित न हों। इसी तरह दूसरों से अपेक्षा भी कम से कम रखा जाए तो उम्मीद टूटने के दौर से गुजरने से बचने का मौका मिलता है।

इसी तरह किसी संवेदनशील व्यक्ति और उचित बातों की उपेक्षा करना भी अनुचित है और इस बर्ताव या स्वभाव को अपने ही व्यक्तित्व की कमी के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए। साथ ही किसी की उपेक्षा करने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है, जिसका हासिल शायद ही कुछ होता है। सच यह है कि अपेक्षा और उपेक्षा दोनों ही हमारे सुकून के मार्ग की बाधाएं हैं।

इसलिए जरूरी है कि दिल-दिमाग पर अनावश्यक बोझ लेकर न चला जाए। सोचने की जरूरत है कि दो फर्लांग का सफर भी हमें अगर पत्थरों से भरी एक तगारी सिर या कंधों पर लेकर चलना पड़े तो नकारात्मक विचारों के साथ बेतरह थकान और बोझ को लेकर चिंता से हम मुक्त नहीं हो सकेंगे। इसके उलट वापसी में हमारे सिर या कंधों पर अगर एक तगारी में खुशबूदार फूल हों तो उनकी महक और हल्केपन से हमें पता भी नहीं चलेगा कि मंजिल कब आ गई। छोटी-छोटी चीजों में खुशियां ढूंढ़ी जा सकती हैं।

जेब में चाकलेट रख कर गरीब बच्चों को बांट दिया जाए तो उससे हासिल सुख की व्याख्या मुश्किल होगी। निदा फाजली ने कहीं लिखा है- 'घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यों कर लें/ किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।' अलसुबह टहलते हुए जब हम घर से निकलें तो सड़क साफ करते कर्मियों की तारीफ में दो बोल बोलकर उनके घर परिवार के हाल पूछ ले सकते हैं। हम शायद नहीं जानते कि अनजाने में उसे हम कितनी खुशी दे रहे हैं और बदले में खुद के लिए कितना सुकून पा रहे हैं।

इसी तरह किसी भी बात पर अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया तुरंत जाहिर करना भी बेमानी हो जाता है। थोड़ा-सा रुक कर और सोचकर ही अपनी प्रतिक्रिया दें तो उसका नतीजा कुछ और भी हो सकता है। किसी की बात पर हो या अपने क्रोध पर या फिर और कोई अवसर हो, आनन-फानन में अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया का कई बार विपरीत असर भी हो सकता है जो शायद तनाव का कारण भी बन जाए।

कभी लिखा था कि ऐसे कोई प्रश्न नही हैं, हो न सकें जो हल/ दुख के दिन सुख में बदलेंगे आज नहीं तो कल। और कल भी क्यों, आज और अभी क्यों नहीं? जरूरत है सुकून और शांति पाने के लिए कुछ छोटी-छोटी बातों को अपनाने की। फिर हमें अपने सवालों के जवाब और समस्याओं के हल खुद हमसे ही मिल जाते हैं, बगैर किसी कठिन प्रयास के।


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