सम्पादकीय

पत्रकारिता या पूर्वाग्रह

Triveni
11 July 2021 3:38 AM GMT
पत्रकारिता या पूर्वाग्रह
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भारत का भविष्य आज चौराहे पर है। श्री मोदी देश की हिंदू बहुसंख्या पर केंद्रित एक आत्मनिर्भर, बलशाली राष्ट्रवाद की पैरोकारी कर रहे हैं।

भारत का भविष्य आज चौराहे पर है। श्री मोदी देश की हिंदू बहुसंख्या पर केंद्रित एक आत्मनिर्भर, बलशाली राष्ट्रवाद की पैरोकारी कर रहे हैं। यह नजरिया उन्हें आधुनिक भारत के संस्थापकों के अंतर-धार्मिक, बहुसांस्कृतिक लक्ष्यों से अलग करता है। ऑनलाइन भाषणों व मीडिया बहसों को नियंत्रित करने की बढ़ती सरकारी कोशिशों ने स्वतंत्र अभिव्यक्ति की निजता और सुरक्षा को लेकर कठिन सवाल खड़े किए हैं।

किसी अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपे आलेख का हिस्सा लगने वाला यह आख्यान न्यूयॉर्क टाइम्स की वेबसाइट पर चस्पां इश्तेहार का अंश है। इसके जरिये न्यूयॉर्क टाइम्स दक्षिण एशिया में एक वाणिज्य संवाददाता की तलाश कर रहा है। मुझे मालूम नहीं कि यह खोज अभी तक पूरी हुई या नहीं, पर इन विस्मयकारी वाक्यों ने मीडिया के साथ सामाजिक विमर्श में भी स्थान पा लिया है। सवाल पूछे जा रहे हैं कि इस इश्तेहार के जरिये क्या यह अखबार सिर्फ उन पत्रकारों को आमंत्रित कर रहा है, जो नरेंद्र मोदी से निजी विरोध रखते हैं? विज्ञापन के एक हिस्से में भारत और चीन के बीच पसरे सीमा विवाद को 'ड्रामा' भी बताया गया है। क्या 20 भारतीय जवानों की शहादत किसी ड्रामे का हिस्सा थी? एक बड़े मीडिया संस्थान की ऐसी सोच चिंता पैदा करती है।
गौरतलब है कि वांछित संवाददाता के कार्यक्षेत्र में पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान और मालदीव भी आएंगे। यदि अखबार की विचारधारा से सहमत कोई व्यक्ति इतने बड़े भू-भाग की रिपोर्टिंग करेगा, तो उसके आलेखों की ध्वनि कैसी होगी और इस उप-महाद्वीप के विभेदग्रस्त देशों के आपसी रिश्तों पर उसका क्या असर पड़ेगा, यह बताने की जरूरत नहीं है।
ऐसा नहीं कि न्यूयॉर्क टाइम्स पहली बार यह हरकत कर रहा है। इंदिरा गांधी से अटल बिहारी वाजपेयी तक उसके आक्षेपों के कभी न कभी शिकार बने। भारत और हमारे मौजूदा नेतृत्व के प्रति उसका दुराव साफ दिखता है। नरेंद्र मोदी को हिंदू दक्षिणपंथी बताते हुए वह सुविधापूर्वक बिसरा देता है कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन स्वयं को गर्वीला कैथोलिक करार देते हैं। अमेरिका के सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपतियों में से एक बराक ओबामा ने भी अपनी शुरुआती राजनीतिक सभाएं अमेरिका के विभिन्न हिस्सों में मौजूद चर्चों में घूम-घूमकर की थीं। पिछले पांच वर्षों में ऐसे कई मौके आए हैं, जब न्यूयॉर्क टाइम्स ने भारत का तरह-तरह से मजाक उड़ाया है। मसलन, बालाकोट में जब हमारा मिग-21 धराशायी हुआ, तब भारतीय सेना के असलहागार की तुलना पुरातात्विक भंडार से कर दी गई। नवंबर, 2017 में इस अखबार में प्रकाशित एक आलेख में 'साड़ी' को उद्धत राष्ट्रीयता से जोड़ दिया गया। लिखने वाला यह भूल गया या उसने जान-बूझकर भुला दिया कि साड़ी समूचे भारतीय उप-महाद्वीप की महिलाओं का साझा परिधान है। इसी तरह, 2014 में भारत के मंगल अभियान का मखौल उड़ाते हुए एक बेहद भद्दा कार्टून प्रकाशित किया गया था। इसमें धोती पहने एक भारतीय को बैल की रस्सी थामे हुए पश्चिम के 'एलीट स्पेस क्लब'में प्रवेश करते दिखाया गया था। बाद में संपादक मंडल ने इस अपमानजनक कार्टून के लिए क्षमा मांगते हुए कहा था कि हमारा इरादा मंगल-अभियान को कमतर बताने अथवा भारत और उसके नागरिकों का अपमान करने का नहीं था।
बात यहीं खत्म नहीं होती। अपने आलेखों में इस समाचारपत्र ने कभी लता मंगेशकर को 'तथाकथित' गायिका छापा है, तो कभी तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के देहांत पर उन्हें महज 'पूर्व हीरोइन' के रूप में याद कर भारतीयों का मखौल उड़ाया है। कुछ वर्ष पहले मैंने न्यूयॉर्क स्थित इसके मुख्यालय में कुछ संपादकों के साथ घंटों बिताए थे। मैं जानना चाहता था कि तेजी से डिजिटल होती मीडिया की दुनिया में उनके सफल प्रयोगों की वजह क्या है? इस दौर में सत्य और तथ्य को गुमराह होने से कैसे बचाएंगे? अभी तक के प्रयोगों के अनुभव कैसे रहे हैं और हमारे लिए क्या कोई सार्थक सलाह उनके पास है? विश्वसनीयता की चर्चा के दौरान ऊपर गिनाए उदाहरणों में से कुछ के हवाले से पूछा भी था कि आप जैसे संस्थान से ऐसी नाइंसाफी कैसे हो जाती है? उन लोगों का जवाब था कि हम इस तरह की गलतियों के प्रति आगे और भी सचेष्ट रहने का प्रयास करेंगे। अफसोस! ऐसा नहीं हुआ।
अपना एक अनुभव साझा करता हूं। मेरी आदत है कि मैं समय मिलने पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की भीड़-भाड़ वाली मेट्रो, बस या किसी नए-पुराने मोहल्ले-बाजार की सैर पर निकल पड़ता हूं। अपने पाठकों की नब्ज समझने का इससे बेहतर कोई और तरीका नहीं। उन दिनों मोदी हुकूमत का पहला दौर चल रहा था और वह 24 दिसंबर की शाम थी। मैं द्वारका से नोएडा आने वाली मेट्रो में सवार हुआ। शाम के आठ बज रहे होंगे। आसपास ऐसे तमाम नौजवानों की भीड़ थी, जो उल्लासपूर्वक 'क्रिसमस ईव' मनाने निकले थे। पूरी बोगी में उनका जोश बिखरा पड़ा था।
मैं उनकी उत्फुल्लता से खुशी महसूस कर रहा था कि मोबाइल पर न्यूयॉर्क टाइम्स का एक ट्वीट उभरा। एक लंबी-चौड़ी खबर थी कि किस तरह दिल्ली व देश के अन्य हिस्सों में ईसाई समुदाय के लोग क्रिसमस मनाने से डर रहे हैं। आसपास दिखते नौजवान यकीनन सभी धर्मों व संप्रदायों के थे और उनकी उत्सवधर्मिता इस खबर के ठीक उलट थी। अधकचरे तथ्यों से भरी उस रिपोर्ट पर मैंने एक जवाबी ट्वीट कर समझाने की कोशिश की कि आप गलत सोच रहे हैं, पर न तो खंडन छपा, न ही ट्वीट का जवाब आया। क्या आप इसे स्वस्थ पत्रकारिता मानेंगे?
ऐसा नहीं है कि पश्चिमी मीडिया ने मानवता के हित में काम नहीं किए, मगर यह सच है कि एशिया और अफ्रीका के देशों का नंबर आने पर उनसे कुछ गलतियां भी होती आई हैं। बरसों पहले पश्चिमी मीडिया के एक धड़े ने ऐतिहासिक भूल की थी। उसने हिटलर को सही ठहराते हुए स्टालिन को पश्चिमी देशों का सबसे बड़ा दुश्मन बताया था। क्या वहां का मीडिया अभी भी औपनिवेशिक और नस्लवादी कुंठा से ग्रस्त है?
हिटलर से ही याद आया, न्यूयॉर्क टाइम्स पर एक आरोप यह भी है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उसने यहूदियों के भयानकतम कत्लेआम की खबरें हफ्तों तक पहले पन्ने पर नहीं छापी। कहा जाता है कि सितंबर 1939 से मई 1945 के बीच उसने हजारों बार अखबार छापे। इनमें से सिर्फ 26 दिन हिटलर की बर्बरता के समाचार पहले पन्ने पर छपे। ये तमाम उदाहरण गवाह हैं, जो यह बताते हैं कि समय आ गया है, समूचे पश्चिमी मीडिया को अपनी आंखों पर पड़ा पुराना चश्मा उतार देना चाहिए। बदलती दुनिया में इस तरह की थोथी अवमानना के लिए कोई जगह नहीं है।


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