सम्पादकीय

JNU विवाद: क्यों हो रही है खाने की पाबंदी के बहाने धार्मिक बेड़ियों में जकड़ने की शुरुआत!

Rani Sahu
11 April 2022 9:46 AM GMT
JNU विवाद: क्यों हो रही है खाने की पाबंदी के बहाने धार्मिक बेड़ियों में जकड़ने की शुरुआत!
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खैर, शाम होते ही पूजा शुरू हो गई लेकिन हमेशा की तरह हर रविवार को नॉनवेज भोजन का स्वाद चखने वाले छात्रों को जब वह नहीं मिला

नरेन्द्र भल्ला

खैर, शाम होते ही पूजा शुरू हो गई लेकिन हमेशा की तरह हर रविवार को नॉनवेज भोजन का स्वाद चखने वाले छात्रों को जब वह नहीं मिला, तो सवालों से शुरू हुई दो गुटों के बीच इस लड़ाई ने ऐसा हिंसक रूप धारण कर लिया कि कई छात्र-छात्राएं जख्मी हो गए. कुछ छात्राओं के सिर से खून बहने वाली तस्वीरें ट्वीटर पर पोस्ट करते हुए कई न्यूज़ चैनलों में रह चुके वरिष्ठ पत्रकार विनोद कापड़ी ने उन्हें सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को टैग करते हुए ये तक लिख डाला कि
"लाज नहीं आती ऐसी तस्वीरों पर? @narendramodi नफ़रत, ज़हर, खून से भर दिया है देश को!! #JNU"
उनके गुस्से को कोई एक गुट तो अवश्य ही दुर्भावनापूर्ण और अपने खिलाफ ही बताएगा लेकिन देश के संविधान से मिले अधिकार और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की आत्मा को जिंदा रखने के लिए हर पत्रकार का पहला धर्म ये बनता है कि वो शिक्षा के सबसे बड़े मंदिर में होने वाली ऐसी किसी भी गुंडई के ख़िलाफ़ खुलकर लिखे, दिखाए और बोले. ताकि देश की युवा पीढ़ी को भी ये अहसास हो कि मीडिया आज भी निष्पक्ष है और वो किसी शहंशाह के दरबार में बिछे लाल कालीन पर नंगे पैरों चलने का मोहताज नहीं है.
इस पूरे मामले को शुरू करने वाला, उसे धार्मिकता का चोला ओढ़कर दूसरे की निजी आज़ादी छीनने वाला और उसे हिंसा का रूप देने के लिए छात्रों का कौन-सा गुट कसूरवार है. इसका फैसला आप या हम नहीं बल्कि कानून ही करेगा. इसलिए कोई भी समझदार इंसान इस पचड़े में नही पड़ेगा कि इसकी शुरुआत लेफ्ट विंग के गुट से हुई या फिर राइट विंग के गुट ने ऐसा माहौल पैदा किया. लेकिन जेएनयू से निकले हजारों छात्रों ने जब न्यूज़ चैनलों पर ये तस्वीरें देखी होंगी, तो एक बारगी तो ये जरूर सोचा होगा कि हमारा इतना बड़ा संस्थान आज किस पतन के रास्ते की तरफ जा रहा है.
लेकिन यहां सवाल ये नहीं है कि जेएनयू में इस हिंसक गुंडई की शुरुआत किसने की. बड़ा सवाल ये है कि ऐसे हालात पैदा करने की शह उन्हें किसने दी और वे कौन हैं, जो पर्दे के पीछे से अपने नापाक सियासी मंसूबों को अंजाम देने के लिए एक पूरी ऐसी पीढ़ी के भीतर नफ़रत का जहर घोल रहे हैं, जो कल इस देश की ब्यूरोक्रेसी से लेकर शिक्षा, विज्ञान और न जाने कितने क्षेत्रों को संभालने के क़ाबिल बनने वाली है.
सच तो ये है कि जेएनयू देश का इकलौता ऐसा संस्थान है, जो 1969 में अपने वजूद में आने से लेकर अब तक देश को हर फील्ड में लगातार प्रतिभाओं की ऐसी सौगात देता आया है, जिनका फलसफा अपने धर्म-मजहब से पहले इंसानियत को मानना और इंसाफ करना रहा है. आज भी देश में सैकड़ों ऐसे आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अफसर हैं, जो इस पर फख्र करते हैं कि वे जेएनयू के छात्र रहे हैं. आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक में अपनी सेवाएं दे चुके अर्थशास्त्री आज तक जेएनयू को एक ऐसा संस्थान मानते आए हैं, जहां न सियासत है, न नफ़रत है और न ही किसी दूसरे को अपने से नीचा साबित करने की आदत है.
जेनयू में पढ़ने वाले छात्र इस तथ्य से तो वाकिफ़ होंगे ही कि इस देश का खज़ाना संभालने वाली वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और रूस-यूक्रेन के बीच चल रही इस जंग में पीएम मोदी को भारत की विदेश नीति समझाने वाले विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी इसी जेनयू से निकलकर उस मुकाम तक पहुंचे हैं. बेशक अब वे पूर्व मंत्री हो चुकी हैं लेकिन बीजेपी सांसद मेनका गांधी ने भी यहीं से जर्मन भाषा में अपनी डिग्री हासिल की है. अगर विदेशी नेताओं की बात करें, तो नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई ने भी यहीं से पीएचडी की है. उन्होंने अपनी बेटी को भी यहां से पढ़ाया है. लीबिया के पूर्व प्रधानमंत्री अली जैदान भी यहां के पढ़े हुए हैं. अफगानिस्तान की तत्कालीन सरकार में रहे मिनिस्टर ऑफ इकोनॉमी अब्दुल सैतार मुराद भी यहां पढ़ाई कर चुके हैं. एतिहाद एयरवेज के चेयरमैन अहमद बिन सैफ अल नहयान भी यहां पढ़ चुके हैं. तो फिर ऐसा क्या हो गया कि पिछले 53 सालों से जो संस्थान अपना नाम रोशन करता आया है, उसके मुंह पर कालिख पोतने में 53 मिनट लगाने की देर करने में भी शर्म नहीं आई?
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