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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। किसी के कार्य-कथन से किसी अन्य का आहत होना कोई नई-अनोखी बात नहीं। यह मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसी तरह यह भी स्वाभाविक है कि कोई आहत व्यक्ति, समूह या समुदाय अपनी आहत भावनाओं को प्रकट करे, लेकिन जब आहत होने के नाम पर हिंसा, हत्या और बर्बरता का सहारा लिया जाता है अथवा उसका समर्थन करते हुए नफरत फैलाई जाती है तो उससे न केवल दहशत पैदा होती है, बल्कि ऐसे कृत्य को आतंकी हरकत के रूप में जाना जाता है। पेरिस में एक शिक्षक सैम्युल पैटी का सिर कलम किए जाने के बाद ऐसी हरकतें दुनिया के अनेक हिस्सों में और दुर्भाग्य से भारत में भी हो रही हैं। भोपाल और अलीगढ़ में-गुस्ताखे रसूल की एक ही सजा, सिर तन से जुदा-जैसे खौफनाक नारे लगाए गए तो मुनव्वर राणा सरीखे कथित शायर ने भी सैम्युल की बर्बर हत्या को जायज ठहराया। जो सैम्युल पैटी के साथ हुआ, वैसा ही कुछ भारत में हो चुका है।
आहत होने के नाम पर हिंसा, हत्या और बर्बरता का सहारा
वर्ष 2010 में केरल में एक प्रोफेसर टीजे जोसेफ की हथेली काट दी गई थी। यह आरोप लगाकर कि उन्होंने कॉलेज की आंतरिक परीक्षा में एक ऐसा सवाल पूछा, जो मुहम्मद साहब से संबंधित था। इस सवाल को ईशनिंदा करार दिया गया और फिर एक दिन जब वह चर्च से घर लौट रहे थे तो पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआइ के कुछ सदस्यों ने उन पर हमला कर उनकी दाहिनी हथेली काट दी, यह मानकर कि उसी से वह प्रश्न तैयार किया गया होगा। इसके बाद प्रोफेसर को कॉलेज से निलंबित कर दिया गया। वह परेशानियों से घिर गए। इन परेशानियों के बीच उनकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली। बाद में वह बहाल हुए। उनकी हथेली काटने वालों को सजा भी हुई। अब वह रिटायर हो चुके हैं। टीजे जोसेफ का स्मरण करते समय हमें कमलेश तिवारी को भी नहीं भूलना चाहिए। सैम्युल पैटी टीजे जोसेफ जितने सौभाग्यशाली नहीं रहे। उनका सिर ही कलम कर दिया गया, क्योंकि नागरिक शास्त्र की कक्षा में उन्होंने छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे बताते हुए ईसा मसीह, रब्बी, मुहम्मद साहब और अन्य धार्मिक हस्तियों पर बनाए गए कार्टून दिखाए। इनमें से कुछ व्यंग्य पत्रिका शार्ली आब्दो में प्रकाशित किए गए थे।
तुर्की, पाकिस्तान और मलेशिया ने फ्रांस की घटना को इस्लामोफोबिया का नाम दिया
सैम्युल ने कार्टूनों को दिखाने के पहले मुस्लिम समुदाय के बच्चों से कक्षा से बाहर जाने को भी कहा। कुछ चले गए। कुछ बैठे रहे। इनमें से एक लड़की ने घर जाकर इस बारे में बताया। उसका पिता जिहादी सोच वाला था। उसने सोशल मीडिया पर सैम्युल के खिलाफ आग उगली। इसके बाद एक मस्जिद में इस पर तकरीरें हुईं। सैम्युल का हत्यारा उस लड़की के पिता के संपर्क में आया। उसने सैम्युल की पहचान की और फिर उनका सिर कलम कर दिया। फ्रांस ही नहीं, दुनिया ने भी इसे आतंकी घटना माना। इसके बाद फ्रांस में मुहम्मद साहब पर बनाए गए कार्टून सार्वजनिक स्थलों पर दिखाए गए। तुर्की के राष्ट्रपति आरटी एर्दोगन, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद ने इसे इस्लामोफोबिया का नाम तो दिया, लेकिन सैम्युल की बर्बर हत्या पर एक शब्द नहीं कहा।
सैम्युल की हत्या की निंदा करने के बजाय 'सिर तन से जुदा' के नारे लगे
यही रवैया भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, कतर, कुवैत आदि देशों में फ्रांसीसी उत्पादों का बहिष्कार करने सड़कों पर उतरे लोगों ने दिखाया। इन लोगों ने भी सैम्युल की हत्या की निंदा करने के बजाय 'सिर तन से जुदा' के नारे ठसक के साथ लगाए। इस तरह की नारेबाजी के बीच फ्रांस के नीस शहर में एक चर्च के पास तीन लोगों की चाकू मारकर हत्या कर दी गई। इनमें से एक महिला का सिर काट दिया गया। एर्दोगन, इमरान, महातिर या फिर फ्रांसीसी उत्पादों का बहिष्कार करने सड़कों पर उतरे और उन्हें उतारने वाले मजहबी-सियासी लोगों में से किसी ने भी इन बर्बर हत्याओं की निंदा नहीं की और वह भी तब जब इनमें से किसी का कार्टून से कोई लेना-देना नहीं था। यह आहत होने के बहाने हिंसा और हत्या के समर्थन के अलावा और कुछ नहीं।
विरोध के नाम पर हिंसा और हत्या का समर्थन करना आतंक को दिया जाने वाला समर्थन है
नि:संदेह आहत होने का अधिकार विरोध का भी अधिकार देता है, लेकिन विरोध के नाम पर हिंसा और हत्या का समर्थन करना अथवा उपद्रव करना आतंक को दिया जाने वाला समर्थन ही है। फ्रांस में मुहम्मद साहब के कार्टूनों के सार्वजनिक प्रदर्शन से अन्य अनेक लोगों ने भी असहमति जाहिर की, लेकिन उन सबने अपनी असहमति जताने के साथ ही सैम्युल की हत्या की निंदा भी की और बिना किसी किंतु-परंतु इस हत्या को एक आतंकी कृत्य बताया। असहमति, आपत्ति जताने का यही सभ्य तरीका है। इस तरीके का इस्तेमाल आए दिन होता भी है। किसी कृत्य, कथन या अन्य गतिविधि से नाराज लोग शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करते हैं या पुलिस में शिकायत करते हैं अथवा अदालत की शरण लेते हैं और यदि मामला किसी कंपनी, फिल्म, नाटक, किताब आदि से जुड़ा होता है तो उसके बहिष्कार का अभियान भी छेड़ते हैं। यह कभी असर करता है और कभी नहीं। जो हिंसा, हत्या की वकालत करता है या फिर धमकियां देने पर उतर आता है, उसकी खबर पुलिस लेती है।
जिन्होंने सैम्युल की हत्या को सही ठहराया, उन्होंने आतंक की खुली वकालत की
यही दुनिया का चलन है, लेकिन सैम्युल की हत्या के बाद दुनिया के अनेक हिस्सों में इस चलन की सिरे से अनदेखी कर सिर तन से जुदा करने के बर्बर कृत्य को सही ठहराया गया। यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति का परिचय देने वाले लोग केवल दहशत ही नहीं फैलाते, बल्कि उन लोगों के अधिकारों पर कुठाराघात भी करते हैं, जो उसी या किसी अन्य मसले पर अपना विरोध-अपनी असहमति सभ्य और कानूनसम्मत तरीके से प्रकट करना चाह रहे होते हैं। साफ है कि जिन्होंने भी सैम्युल की हत्या को सही ठहराया, उन्होंने आहत होने के अधिकार का हरण ही नहीं किया, बल्कि आतंक की खुली वकालत भी की।