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झारखंड की भाषा नीति
स्थानीयता के सवाल पर 22 वर्षों से जूझ रहे झारखंड में अब भाषा नीति ने नया विवाद खड़ा कर दिया है. सरकार ने 5 जिलों की जिलास्तरीय सरकारी नौकरियों में बिहार मूल की बोलियों- भोजपुरी, मगही, अंगिका को स्थानीय भाषा की मान्यता देने से मना कर दिया है. पहले इन जिलों में इनकी मान्यता सरकार ने दी थी. ये पांच जिले हैं हैं- गढ़वा, पलामू, चतरा, धनबाद और बोकारो. आश्चर्य की बात यह है कि उर्दू, बांग्ला, उड़िया को स्थानीय भाषा की श्रेणी में रखा गया है. यहां यह उल्लेख प्रासंगिक है कि स्थानीयता नीति के मुद्दे पर ही बाबूलाल मरांडी को सत्ता गंवानी पड़ी थी. इस बार भाषा नीति हेमंत सोरेन के गले की हड्डी बन जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी.
दो महीने में सरकार ने बदला अपना ही फैसला
जिला स्तरीय पदों पर बहाली के लिए हेमंत सरकार की ओर से जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं की सूची 24 दिसंबर 2021 को जारी की गई. लिस्ट में भोजपुरी-मगही को शामिल देख बोकारो और धनबाद में विरोध की शुरुआत हो गई. भोजपुरी और मगही को सूची से हटाने की मांग को लेकर प्रदर्शन होने लगे. बोकारो-धनबाद में इसके खिलाफ प्रदर्शनकारियों ने भाजपा के पूर्व सांसद रवींद्र कुमार रायकी गाड़ी पर हमला कर दिया. बोकारो-धनबाद जिलों के ज्यादातर जनप्रतिनिधि प्रदर्शनकारियों के समर्थन में आ गए.
शिक्षामंत्री जगरनाथ महतो और झामुमो विधायक मथुरा प्रसाद महतो ने तो मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मुलाकात कर बोकारो-धनबाद जिले में क्षेत्रीय भाषा की सूची से भोजपुरी और मगही को हटाने की मांग की. कांग्रेस के नेताओं ने भी मुख्यमंत्री से मिल कर समस्या के समाधान की मांग की. उसके बाद मुख्यमंत्री ने सरकार का फैसला पलट दिया और 18 फरवरी 2022 को क्षेत्रीय भाषाओं की संशोधित सूची देर रात जारी कर दी. बोकारो-धनबाद में क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से भोजपुरी और मगही को हटा दिया गया. अब मैट्रिक और इंटर स्तरीय प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए इन क्षेत्रीय भाषाओं को तरजीह नहीं मिलेगी.
किसके दबाव में सरकार ने पलटा अपना फैसला
हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार ने जिलास्तरीय नौकरियों के लिए जो भाषा नीति तैयार की थी, उसका विरोध उनके ही एक मंत्री जगरनाथ महतो और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के विधायक मथुरा महतो ने शुरू किया. दोनों क्रमशः बोकारो और धनबाद के रहने वाले हैं.
भाजपा के साथ गंठबंधन में शामिल आजसू पार्टी ने भी सबसे पहले भाषा नीति के विरोध में आवाज उठाई. वह कुड़मी जाति से आते हैं. इस जाति की खासा आबादी झारखंड में है. भाषा नीति के समर्थन में भाजपा अकेले दिख रही है. भाषा नीति को लेकर जो नया सर्कुलर जारी हुआ है, उसके समर्थन और विरोध की गूंज भी सुनाई पड़ने लगी है.
फिर उठने लगी स्थानीयता नीति की मांग
भाषा नीति पर सरकार का समर्थन करने वाले तो अब स्थानीयता का आधार 1932 के खतियान को बनाने की मांग भी उठाने लगे हैं. हेमंत सरकार ने 2016 में रघुवर दास की सरकार द्वारा बनाई गई स्थानीयता नीति में परिवर्तन करने की बात कही भी थी. इसके लिए तीन सदस्यीय कमेटी बनाई जानी थी. कमेटी बनाने का दायित्व हेमंत सोरेन को ही सौंपा गया था.
उन्होंने यह काम तो नहीं किया, लेकिन भाषा नीति के बहाने उन्होंने स्थानीयता के मुद्दे को भी हल करने की कोशिश की है. इस काम के जरिये उन्होंने अपने वोट बैंक का भी पूरा ख्याल रखा है. उनकी कोशिश कितनी कारगर होती है, यह तो समय पर पता चलेगा, लेकिन जिस तरह से इस पर सवाल उठने लगे हैं, उसे देखते हुए लक्षण अच्छे नहीं दिख रहे.
अब तक 4 बार बनी स्थानीयता नीति
वर्ष 2000 में झारखंड गठन के बाद बाबूलाल मरांडी के कार्यकाल में दो बार स्थानीयता नीति बनी. सबसे पहले तो बिहार की स्थानीयता नीति को ही झारखंड ने अंगीकार किया. दूसरी बार 2001 में मरांडी की सरकार ने जो स्थानीयता नीति बनाई, उसे लेकर राज्यभर में जबरदस्त बवाल हुआ. कई जगहों पर मार-पीट, आगजनी और खूनखराबा हुआ.
हालात इस कदर बिगड़े कि मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने उस नीति के कई प्रावधानों को संविधान सम्मत नहीं माना और उसे रद कर दिया. इसके बाद, कुछ दिनों के लिए मामला ठंडे बस्ते में चला गया. लेकिन स्थानीयता के सवाल पर समय-समय पर आवाज उठती रही. अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने नयी नीति बनाई. उस समय इस पर कोई विवाद नहीं हुआ, लेकिन यह नीति भी सबको संतुष्ट नहीं कर सकी. रघुवर दास जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने 2016 में नयी स्थानीयता नीति बनाई.
इससे झारखंड का मूलवासी समाज तो नाखुश था, लेकिन दूसरे राज्यों से आकर झारखंड में बस गए लोग इससे प्रसन्न थे. चूंकि झारखंड में बीजेपी की बहुमत वाली सरकार थी, इसलिए पांच साल तक किसी की कोई कसमसाहट सामने नहीं आयी, लेकिन उनकी सरकार जाते और हेमंत सोरेन की सरकार बनते ही यह मुद्दा शिद्दत से उभरा.
लालू और नीतीश ने फैसले का विरोध किया
हेमंत सोरेन की सरकार में शामिल आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भोजपुरी-मगही को क्षेत्रीय भाषा से हटाने का विरोध किया है. चारा घोटाले में अपनी सजा सुनने रांची आए लालू प्रसाद ने कहा कि जो लोग भोजपुरी-मगही का विरोध कर रहे हैं, उनका भी विरोध किया जाएगा. उधर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी इसका विरोध किया है.
दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने कहा कि झारखंड सरकार का यह फैसला राज्य के हित में नहीं है. बिहार और झारखंड पहले एक ही थे. दोनों राज्यों में मगही और भोजपुरी बोली जाती है. भोजपुरी तो यूपी में भी बोली जाती है. आश्चर्य की बात है कि झारखंड सरकार ने इस तरह का फैसला क्यों लिया है. कारण जो हो, पर जिन्होंने यह फैसला लिया है, वे अपना ही नुकसान कर रहे हैं.
वोट बैंक को लेकर है भाषा पर सारा विवाद
हेमंत सोरेन को यह चिंता सता रही है कि कभी भी उनकी कुरसी जा सकती है. इसलिए वे अपने वोट बैंक को मजबूत करना चाहते हैं. चूंकि भाजपा की सहयोगी आजसू पार्टी ने सबसे पहले भोजपुरी-मगही को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से हटाने की मांग की, इसलिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के दो नेता मुखर रूप से सामने आए. इसी दबाव में नयी नीति की घोषणा में हेमंत सोरेन ने देर नहीं की. झारखंड में कुड़मी की खासा आबादी है. आदिवासी वोटों पर झारखंड मुक्ति मोर्चा अपना अधिकार तो समझता ही है, उसने इसी बहाने कुड़मी वोटों को भी साधने का प्रयास किया है. हेमंत सोरेन परिवार के खिलाफ पुराने कई ऐसे मामले हैं, जो केंद्रीय एजेंसियों के पास हैं और कुछ हाईकोर्ट में हैं.
कांग्रेस के झारखंड प्रभारी आरपीएन सिंह के भाजपा में जाने के बाद हेमंत सरकार पर खतरा मंडरा रहा है. सरकार की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी कांग्रेस के तेवर भी बदल गए हैं. रविवार को कांग्रेस के प्रदेश स्तरीय मंथन शिविर में यह बात तल्खी से स्वीकारी गई कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जो वादे किये थे, उनमें एक पर भी अब तक अमल नहीं हुआ है. कांग्रेस कोटे के मंत्रियों पर झामुमो हावी रहता है. कांग्रेस ने एक तरह से चेतावनी भी दी कि झामुमो के साथ रहेंगे, लेकिन लाचार होकर नहीं. माना जा रहा है कि कांग्रेस का एक खेमा नाराज है. कई लोग आरपीएन सिंह के संपर्क में भी हैं. इसलिए कांग्रेस में टूट के खतरे भी हैं. आरजेडी भाशा के सवाल पर खफा है.
इन सबके बीच भाजपा तमाशबीन बन कर या मुद्दे खोज कर हेमंत सोरेन सरकार को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूक रही. हेमंत सोरेन इन्हीं वजहों से अपने आदिवासी-मूलवासी वोट बैंक को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ओमप्रकाश अश्क
प्रभात खबर, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में संपादक रहे. खांटी भोजपुरी अंचल सीवान के मूल निवासी अश्क जी को बिहार, बंगाल, असम और झारखंड के अखबारों में चार दशक तक हिंदी पत्रकारिता के बाद भी भोजपुरी के मिठास ने बांधे रखा. अब रांची में रह कर लेखन सृजन कर रहे हैं.
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