सम्पादकीय

झारखंड की बिसात

Subhi
30 Aug 2022 5:37 AM GMT
झारखंड की बिसात
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झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा सदस्यता को लेकर अनिश्चितता के चलते राज्य में सियासी संकट गहराता जा रहा है। प्रदेश की सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार को डर सताने लगा है

Written by जनसत्ता; झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा सदस्यता को लेकर अनिश्चितता के चलते राज्य में सियासी संकट गहराता जा रहा है। प्रदेश की सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार को डर सताने लगा है कि कहीं उनके विधायक टूट कर न चले जाएं। इसी के चलते सीएम आवास पर शनिवार को हुई बैठक में सत्तारूढ़ गठबंधन विधायक अपने बोरिया बिस्तर के साथ पहुंचे थे। बैठक के बाद सोरेन अपने सभी विधायकों को लेकर झारखंड के खूंटी जिले में स्थित एक रिसार्ट में पहुंच गए। हेमंत सोरेन पर मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए खदान आवंटन का आरोप है।

चुनाव आयोग ने इसे लेकर राज्यपाल रमेश बैस से सिफारिश कर दी है। ऐसे में हेमंत सोरेन की सदस्यता समाप्त होगी। इस संकट से निपटने के लिए सत्तारूढ़ गठबंधन के विधायकों की तीन बार बैठक बुलाई जा चुकी है। अगर राज्यपाल बैस चुनाव आयोग की रिपोर्ट पर मुहर लगाते हैं, तो हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना होगा। हालांकि वे फिर से चुनाव लड़ कर सदन में पहुंच सकते हैं। वहीं अगर धारा 9ए के तहत उन्हें दोषी ठहराया गया, तो उनकी सदस्यता तो जाएगी ही, साथ में पांच साल तक उनके चुनाव लड़ने पर रोक लग जाएगी, जिससे फिर सत्ता में वापसी हो पाना थोड़ा मुश्किल है।

ऐसे में हेमंत सोरेन की कोशिश होगी कि मुख्यमंत्री का पद उनके परिवार से बाहर न जाए। मुख्यमंत्री पद के लिए हेमंत सोरेन की पहली पसंद उनकी पत्नी कल्पना सोरेन हो सकती हैं। मगर कल्पना सोरेन आदिवासी नहीं हैं, इसलिए थोड़ी दिक्कत हो सकती है। दूसरी पसंद उनके भाई बसंत सोरेन हो सकते हैं, लेकिन बसंत सोरेन के खिलाफ भी जांच चल रही है। तीसरी पसंद उनके पिता और प्रदेश के तीन बार के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन हो सकते हैं।

लेकिन वे लंबे समय से बीमारी के चलते राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं। चौथा विकल्प हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन हो सकती हैं, जो उनके बड़े भाई की पत्नी हैं और अभी विधायक भी हैं। साफ है कि झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता का दौर है। यह राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, कहना मुश्किल है। इस उठापटक से राज्य के आम लोग प्रभावित होंगे और राज्य के विकास पर भारी असर पड़ेगा।

भारत की राजनीति में पिछले पांच दशक से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री, पांच बार के राज्यसभा सांसद और लोकसभा सांसद रहे गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ कर कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है। पिछले पांच वर्षों से वे असंतुष्ट थे। पिछले दिनों उन्होंने कांग्रेस की चुनाव संबंधी संचालन समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर स्पष्ट कर दिया था कि अब वे कांग्रेस के सदस्य नहीं रहेंगे।

गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे से कांग्रेस में भारी निराशा है। विपक्षी सुदृढ़ीकरण पर भी इसका असर पड़ा है, लेकिन सबसे ज्यादा असर जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक संभावनाओं पर पड़ा है। वे अपनी नई पार्टी बनाना चाहते हैं और विधानसभा चुनाव में जिस पार्टी का पलड़ा भारी होगा उसी के साथ गठबंधन करके जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन जाएं तो आश्चर्य नहीं। जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने की सारी योग्यताएं उनके पास हैं।

पांच दशक का अनुभव, एक मंजे हुए नेता, रणनीतिकार और सभी दलों के साथ अच्छे संबंध इनको जम्मू-कश्मीर की राजनीति के शिखर पर ले जाएंगे। अगर गुलाम नबी आजाद की पार्टी भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिला कर जम्मू-कश्मीर विधानसभा का चुनाव लड़ती नजर आए तो कोई बड़ी बात नहीं। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस, बीजेपी, नेशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी के अलावा एक और मजबूत पार्टी का गठन और जातिगत समीकरण जम्मू कश्मीर की राजनीतिक पृष्ठभूमि में आगामी विधानसभा चुनाव बेहद रोचक होने वाले हैं।


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