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सम्पादकीय
स्थापित राजनीतिक तौर-तरीके को चुनौती देते झारखंडी युवा आंदोलन
Gulabi Jagat
23 March 2022 8:44 AM GMT
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ओपिनियन
Faisal Anurag
झारखंड में जिस तरह आंदोलनों की लहर उठ रही है वह गहरे सामाजिक आर्थिक असंतोष को प्रकट कर रहा है. आंदोलनों से उठने वाली आवाजों के त्वरित निदान को देर तक टालना राज्यहित में नहीं है. एक ओर भाषा और खतियान आधारित नियोजन नीति की मांग ने पूरे राज्य को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है, वहीं दूसरी ओर आदिवासी विस्थापन आंदोलनों की दस्तक राजसत्ता को बारबार जगाने का प्रयास कर रही है. हाल ही में खूंटी में जमीन के ड्रोन सर्वे और संपत्ति अधिकार को लेकर उठी आवाज के बाद सर्वे को रोकने की घोषणा तो की गयी , लेकिन आदिवासी इलाकों की जमीन को लेकर उठने वाले असंतोष के निदान की दिशा में अब तक सार्थक पहल नहीं की गयी है.
रोजगार के संकट के इस दौर में भाषा का सवाल का संबंध सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ा है. इसी तरह नियोजन नीति को खतियान आधारित बनाने की मांग भी गांवों में पैठ जमा रही है. शहर और गांव के बीच इसके कारण एक महीन विभाजन दिखने लगा है.इसके साथ ही पिछले 28 सालों से नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज का मुद्दा है. हर साल मार्च की 22 और 23 तारीख को नेतरहाट के टुटुआपानी में काफी संख्या में आदिवासी जामा होते हैं और संकल्प लेते हैं कि एक इंच जमीन भी नहीं देंगे. इस आंदोलन का नारा 26 सालों से नेतरहाट के पठारों में गूंज रहा है, जान देंगे,जमीन नहीं. इस बार किसान नेता राकेश टिकैत मुख्य अतिथि बनाए गए हैं. यह पहली बार है कि किसानों का एक नेता नेतरहाट के आदिवासी किसानों के साथ संवाद कर रहा है.
इससे नेतरहाट पठार के आदिवासियों के गुस्से को समझने की जरूरत है. एक आंदोलन किस तरह अपने भीतर से राजनीतिक दलों के प्रति अविश्वास प्रकट कर रहा है और जनांदोलनों के राष्ट्रीय संदर्भ के साथ जोड़ना चाहता है. आदिवासी आंदोलनों के इतिहास में यह एक ऐतिहासिक परिघटना है, क्योंकि आंदोलनकारी नेतृत्व आदिवासी राजनीतिक नेताओं की सीमाओं को गहरायी से समझ रहा है और यह बताने का प्रयास कर रहा है कि वक्त है कि वे आदिवासी सवालों को केवल वोट हासिल करने के लिए ही इस्तेमाल नहीं करें बल्कि आदिवासी सांस्कृतिक संदर्भ की परिधि में विकास के नए तौर-तरीकों पर भी बात करें.
खतियान आधारित नियोजन नीति के आंदोलनकारी भी जिस तरह का असंतोष और गुस्सा आदिवासी नेताओं पर दिखा रहे हैं उससे भी जाहिर होता है कि पूरे झारखंडी जनगण में एक खास तरह की बेचेनी है जो राजनैतिक छल के खिलाफ संगठित होने का प्रयास कराने की छटपटाहट को प्रकट कर रहा है. जब आदिवासी और मूलवासी समर्थक दिखने के लिए राजनैतिक दल परस्पर विरोधी पर दोषारोपण करने का कोई मौका नहीं छोड़ते इन आंदोलनों का स्वर कुछ ओर संकेत देता है. इस संकट को यदि पूरी तत्परता से देखा जाए तो स्पष्ट है कि संविधान की पांचवी अनुसूची और पेसा कानून की उपेक्षा ने सांस्कृतिक अस्मिता के झारखंडी अपेक्षा को निराश किया है.
यह उपेक्षा पिछले बाइस सालों के झारखंडी राजकाज की एक सच्चाई है. झारखंडियों के इस अहसास को भी गहरा ठेस लगा है कि झारखंड में ही झाखंड के लोगों की आवाज हाशिए पर है. नए उभरते युवा नेता जयराम महतो इस सवाल को बारबार उठा रहे हैं और आदिवासियों के हर प्रतिरोध का यही स्वर रहा है. पत्थलगड़ी आंदोलन के पीछे जो कारक थे उसमें भी इसी उपेक्षा के तत्व सक्रिय थे.
विधानसभा के वर्तमान सत्र के कुछ ही दिन शेष हैं , लेकिन इस सत्र में भी इन सवालों को जिस गंभीरता की जरूरत थी वह दिखायी नहीं दे रही है. आंदोलनों के साथ संवाद की जरूरत को नजरअंदाज करने की प्रवृति घातक होती है. पिछले साल किसान आंदोलन ने पूरे देश में खलबली पैदा की, लेकिन केंद्र सरकार ने कुछ राउंड बात करने के बाद किसानों से बात करना बंद कर दिया.
यह तो चुनावी रानीतिक दबाव था कि उसने एकतरफा ही अपने बनाए कृषि कानूनों की वापसी का एलान कर दिया. केंद्र न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए एक कमेटी बनाने की बात की, लेकिन वह वायदा अब तक खटायी में है. कमोवेश इस आंदोलन ने झारखंड के आंदोलनकारियों को भी प्रभावित किया. झारखंडी युवाओं के असंतोष और आंदोलन के तेवर को यदि राजनैतिक नजरिए से पढ़ा जाए तो कहा जा सकता है कि बात निकली है तो दूर तक जाएगी. बात यह है कि युवा अब ज्यादा देर तक आश्वासनों या स्थापित नेताओं के भरोसे रहने को तैयार नहीं है.
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