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मलकापुरकर के नाम पर बने मार्ग के नाम-ओ-निशान भी अब मिटने के कगार पर हैं।
झांसी के पचकुइयां मुहल्ले में जिस मकान में शहीद चंद्रशेखर आजाद के अभिन्न साथी क्रांतिकारी सदाशिवराव मलकापुरकर रहा करते थे, उसकी सड़क की तरफ लगी दो खिड़कियां इन दिनों बहुत उदास हैं। इस शहर के लोग एक समय सदाशिव जी को प्यार से 'सदू काका' कहा करते थे। वह यहां बचपन से रहे और बाद में क्रांति-कर्म में संलग्न होकर 'हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ' के प्रमुख सदस्य और सेनापति आजाद के अत्यंत घनिष्ठ बन गए।
आजाद ने दल में कभी किसी को अपना अता-पता नहीं बताया, लेकिन वह सदाशिव जी को एक बार अपने घर भावरा ले गए और अपनी माता जी से मिलवाया। शर्त यह रखी कि इसकी जानकारी किसी को नहीं देंगे। सदाशिव जी छोटे कद के दुबले-पतले और बहुत सीधे-सच्चे इंसान थे। उन्हें देखकर किसी को उनके क्रांतिकारी होने का अनुमान नहीं होता था। मैं झांसी में जब उन्हें याद करता हूं, तब वह अपने अभिन्न मित्र भगवानदास माहौर और मास्टर रुद्रनारायण सिंह के साथ मेरे सम्मुख आ खड़े होते हैं।
ये तीनों ही क्रांतिकारी पार्टी से जुड़े होने के साथ आजाद के बहुत करीबी थे। डॉ. रामविलास शर्मा का इस क्रांतिकारी त्रयी से निकट का परिचय था। अपने संस्मरणों में उन्होंने इन तीनों के साथ वहां की सरस्वती पाठशाला को भी आत्मीयता से याद किया है। आजाद के साथ रहे सदाशिव जी को 1929 में 'लाहौर षड्यंत्र केस' में फरार होना पड़ा। आजाद ने उन्हें और माहौर जी को दक्षिण में अकोला भेजना चाहा, लेकिन वे भुसावल स्टेशन पर गाड़ी बदलते समय बम फैक्टरी के बहुत-से सामान के साथ पुलिस के हाथ आ गए।
फिर उन पर 'भुसावल बम केस' चला, जिसमें सेशन अदालत में आजाद की पहुंचाई गई पिस्तौल से उन्होंने मुखबिर जयगोपाल और फणींद्र घोष पर गोलियां चलाईं। जलगांव सत्र अदालत से 15 वर्ष की सजा पाकर कांग्रेसी सरकार बनने पर सदाशिव जी 1938 में छूटे और झांसी में आकर कांग्रेस का काम करने लगे, जबकि माहौर जी आगे की पढ़ाई कर बुंदेलखंड कॉलेज में प्राध्यापक हो गए।
आजादी के बाद दोनों कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और अलग भी हुए। संगठन के लोगों ने इन लोगों के व्यक्तित्व को पहचानते हुए इनसे कैसे काम लेना चाहिए, इसका ध्यान नहीं रखा। बाद में सदाशिव जी को अपनी गुजर-बसर के लिए झांसी के एक हाई स्कूल में अध्यापकी करनी पड़ी। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी कहा करते थे कि जिन महान साधकों का संपूर्ण समय वर्तमान व्यवस्था को बदलने के महत्वपूर्ण कार्य में लगना चाहिए था, वे जीवन-यापन के लिए अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने के लिए मजबूर हो गए थे।
बाद के दिनों में आजाद की माता जगरानी देवी का बुढ़ापा सदाशिव के पास ही बीता। वह कभी-कभी कहा भी करती थीं, 'चंदू (चंद्रशेखर) अगर जिंदा रहता, तो क्या वह 'सदू' से ज्यादा मेरी सेवा करता!' सदाशिव जी उन दिनों उनके प्यारे 'बच्चा' या 'बचवा' हो गए थे और वह उनकी प्यारी 'अम्मा जी'। वह उनकी इच्छानुसार एक बार आजाद की माता को तीर्थयात्रा भी करा लाए, जबकि उन दिनों मजदूर संगठन के काम की व्यस्तताओं और सरकार का कोपभाजन होने के चलते उन्हें भूमिगत होना पड़ा था। बीच में एक बार उनके पकड़े जाने पर आजाद की माता बहुत दुखी हुईं।
वर्ष 1951 में जब झांसी में आजाद की माता का निधन हुआ, तब उनकी अंतिम क्रिया भी सदाशिव जी के हाथों संपन्न हुई। आज कौन जाने कि आजाद की वृद्ध माता को बहुत दिनों तक यह विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका बेटा देश की स्वतंत्रता के लिए शहीद हो चुका था। वह लौट आएगा, इस भरोसे में उन्होंने मनौती के तौर पर अपनी दो उंगलियों को धागे से बांध रखा था और उस प्रतीक्षा में रोते-रोते उनकी एक आंख फूट गई थी।
सदाशिव जी, डॉ. माहौर और बनारसीदास जी एक बार सातार तट पर आजाद की उस कुटिया पर भी माता जी को ले गए, लेकिन वहां पहुंचकर वह धाड़ मारकर ऐसे रोईं कि उन्हें संभाल पाना सदाशिव जी के ही बूते की बात थी। बाद में इसी सातार तट पर सदाशिव जी की कोशिशों से आजाद की आदमकद प्रतिमा लगी, जिसके उद्घाटन समारोह में पुलिस ने उनसे जो दुर्व्यवहार किया, उसे वह सहन नहीं कर पाए और सभा-स्थल के निकट ही बेहोश होकर गिर पड़े।
उन्हें झांसी के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां तीन दिन बाद होश आने पर उनके भतीजे हेमंतराव मलकापुरकर उन्हें सागर जिले के रहली गांव ले गए। सदाशिव जी के लिए अपनी कर्मभूमि झांसी छोड़ना बहुत पीड़ा देने वाला मंजर था। 12 जुलाई, 2002 को इसी रहली में उनके निधन की सूचना हमें बहुत देर से मिली। अखबारों में कोई खबर, न कहीं शोक प्रस्ताव। गोया कोई गुमनाम और बेनाम मौत हो। उनके साथी माहौर जी और मास्टर साहब तो पहले ही जा चुके थे।
सदाशिव जी के न रहने से 22, पचकुइयां झांसी की वे पुरानी खिड़कियां कुछ और उदास हो गईं, जिनके भीतर इस अजेय क्रांतिकारी ने जिंदगी के कितने ही वर्ष संघर्ष और अभावों में गुजारे थे। झांसी से एक शिकायत है मुझे कि वह बाद के दिनों में अपने 'सदू काका' की देखभाल नहीं कर सका। यहां एक गोल चौराहे पर माहौर जी का बुत लग गया है, आजाद की माता जी की प्रतिभा भी स्थापित हो चुकी, लेकिन मास्टर रुद्रनारायण और सदाशिव जी के स्मारकों के लिए यह धरती आज भी प्रतीक्षारत है।
पचकुइयां मुहल्ले में प्रभाकर भागवत के जिस पुराने मकान में सदाशिव जी रहा करते थे, उसे सन्नाटे में देखकर मैं गहरी पीड़ा से भर जाता हूं। रहली में सदाशिवराव और उनके भाई क्रांतिकारी शंकरराव मलकापुरकर के नाम पर बने मार्ग के नाम-ओ-निशान भी अब मिटने के कगार पर हैं।
सोर्स: अमर उजाला
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