सम्पादकीय

जे नाची से बाची: रामदयाल मुंडा का मंत्र

Gulabi
23 Aug 2021 11:10 AM GMT
जे नाची से बाची: रामदयाल मुंडा का मंत्र
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पिछले दिनों विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया, पर आदिवासी बुद्धिजीवियों की चर्चा कहीं नहीं दिखी

अरविंद दास, पत्रकार, लेखक।

पिछले दिनों विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया, पर आदिवासी बुद्धिजीवियों की चर्चा कहीं नहीं दिखी. मुख्यधारा के विमर्श में वे अक्सर छूट जाते हैं. आज झारखंड के आदिवासी बुद्धिजीवी रामदयाल मुंडा का 82वां जन्मदिन है. डॉक्टर रामदयाल मुंडा (1939-2011) बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. वे झारखंड आंदोलन के अगुआ थे. उनकी पहुंच देश-विदेश के साहित्यिक- सांस्कृतिक-राजनीतिक मंचों तक सहज रूप में थी. रामदयाल मुंडा की प्रतिष्ठा गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर-पूर्वी आदिवासी समाजों में जैसी रही, वैसी बहुत कम आदिवासी बुद्धिजीवियों की रही है. आदिवासी समाज, साहित्य, कला और संस्कृति के संदर्भ में उनके योगदान का सम्यक मूल्यांकन अभी बाकी है.

वे अक्सर कहते थे- जे नाची से बाची. आदिवासी संस्कृति उनकी चिंता के केंद्र में था. ढोल-मांदर, नगाड़े के साथ, बांसुरी बजाते हुए उनकी छवि लोगों के जेहन में अभी भी है. उन्हें पद्मश्री के साथ ही संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था. 'नाची से बाची' (2017) नाम से ही झारखंड के डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार मेघनाथ और बीजू टोप्पो ने एक वृत्तचित्र बनाई है, जो उनकी जीवन यात्रा और रचनाशीलता को आत्मीयता के साथ हमारे सामने लेकर आती है. झारखंड के त्योहार सरहुल को लोकप्रिय बनाने में उनका खास योगदान रहा है. इस वृत्तचित्र की शुरुआत मुंडा की आवाज में सरहुल के मंत्र से ही होती है.
इस फिल्म में रांची के पास दिउड़ी जैसे छोटे से गांव से अमेरिका तक की उनकी यात्रा को दर्शाया गया है, जहां वे पीएचडी के लिए गए और मिनिसोटा विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे थे. अमेरिका से वापस आकर वे रांची विश्वविद्यालय में आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं निदेशक के रूप में नियुक्त हुए और बाद में इस विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने. विषय-वस्तु के साथ ही फिल्म निर्माण के दृष्टिकोण से भी यह वृत्तचित्र खास है. मुंडा की इस यात्रा में दर्शक भी सहज रूप से साथ हो लेता है.
आदिवासी नृत्‍य को वैल्‍यू के तौर देखते थे डॉ. मुंडा
लगभग 30 साल तक मुंडा के नजदीक रहे मेघनाथ बातचीत में कहते हैं कि एक संस्कृतिकर्मी के रूप में मुंडा औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त थे. वे कहते हैं, " रामदयाल मुंडा ने आदिवासी नृत्य को मेहमाननवाजी के रूप में किए जाने को हतोत्साहित किया. उन्होंने इसे वैल्यू से जोड़ कर देखा." मेघनाथ अखरा (ओपन ऑडिटोरियम) का उदाहरण देते हैं. वे कहते हैं कि आदिवासी अखरा में श्रोता और गाने वाला, देखने और नाचने वाला होता है. इसमें 'परफार्मर' और 'ऑब्जर्वर' का सामंती दृष्टिकोण है. देखने वाला यह सोचता है कि कोई मेरे लिए नाच रहा/रही है.
उनके सानिध्य में रह कर मैं यह समझा की अखरा में परफार्मर और ऑब्जर्वर की भूमिका अलग-अलग नहीं है. मेघनाथ स्वीकारते हैं कि इस फिल्म में मुंडा के राजनीतिक जीवन का चित्रण नहीं हो पाया है.
हिंदी में रामदयाल मुंडा के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन नहीं दिखता है. डॉक्टर वीर भारत तलवार की किताब 'झारखंड में मेरे समकालीन' (2019) अपवाद है, जिसमें एक लंबा संस्मरणात्मक और विश्लेषणात्मक लेख मुंडा के ऊपर है. इस लेख के शुरुआत में ही तलवार लिखते हैं: "भारत के आदिवासी बुद्धिजीवों पर जब भी विचार किया जाएगा, रामदयाल मुंडा का नाम उनके श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों में गिना जाएगा.
रामदयाल को सिर्फ आदिवासी बुद्धिजीवी के रूप में नहीं देखना चाहिए. उन्हें भारतीय बुद्धिजीवी के रूप में भी देखा जाना चाहिए. लेकिन झारखंड बुद्धिजीवियों के तो वे सिरमौर ही थे." असल में तलवार झारखंड आंदोलन में उनके संघर्ष में साथी थे और उनके साथ लंबा संग-साथ रहा था. मुंडा जब अमेरिका में थे तब 70 के दशक में उनके साहित्य को तलवार ने ही प्रकाशित किया था. आदिवासी भाषा और लिपि के विमर्श के बरास्ते इस लेख में मुंडा का ईमानदार एवं लोकतांत्रिक चरित्र उभर कर सामने आता है. पर ऐसा नहीं है कि तलवार मुंडा के व्यक्तित्व से मुग्ध या आक्रांत हैं. जहां वैचारिक रूप से विचलन दिखता है उसे वे नोट करना नहीं भूलते. पिछले साल हेमंत सोरेन की सरकार ने झारखंड विधानसभा में 'सरना आदिवासी धर्म कोड बिल' को पास किया.
इसमें आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रस्ताव है. यह बिल फिलहाल मंजूरी के लिए केंद्र सरकार के पास है. यहाँ पर इस बात का उल्लेख जरूरी है कि रामदयाल मुंडा ने आदिवासियों के धर्म के सवाल को अपनी किताबों में गंभीरता से विश्लेषित किया है. वे आदिवासियों को हिंदू नहीं मानते थे. सत्ता के द्वारा आदिवासियों के ऊपर हिंदू धर्म थोपने के खिलाफ थे.
आखिरी दिनों में कांग्रेस के सहयोग से राज्यसभा सदस्य बने डॉ. मुंडा
आदिवासियों की अस्मिता के सवाल को उठाते हुए हालांकि तलवार नोट करते हैं- 'यह अजीब बात है कि मुंडाओं के पूर्वजों को हिंदू ऋषियों-मुनियों से जोड़ने के लिए एक ओर वे सागू मुंडा की आलोचना कर रहे थे, दूसरी ओर खुद अपने लेख में यही काम कर रहे थे.' मुंडा अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी और संस्कृतकर्मी थे, जिनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी. पर जैसा कि तलवार ने लिखा है उनका विकास एक जननेता के रूप में कभी नहीं हुआ. मुंडा आखिरी दिनों में कांग्रेस के सहयोग से राज्यसभा के सदस्य बने थे.
तलवार क्षोभ के साथ लिखते हैं- 'राजनीतिक सत्ता हासिल करने के मोह में रामदयाल ने अपने जीवन की जितनी शक्ति और समय को खर्च किया, अगर वही शक्ति और समय उन्होंने अपने साहित्य लेखन और सांस्कृतिक क्षेत्र के कामों में लगाया होता-जिसमें वे बेजोड़ थे और सबसे ज्यादा योग्य थे-तो आज उनकी उपलब्धियाँ कुछ और ही होती.' एक बुद्धिजीवी हमेशा प्रतिरोध की भूमिका में रहता है और उसकी पक्षधरता हाशिए पर रहने वाले उत्पीड़ित-शोषित जनता के प्रति रहती है. राजनीतिक सत्ता एक बुद्धिजीवी को बोझ ही समझती है और इस्तेमाल करने से नहीं चूकती.
तलवार राम दयाल मुंडा की भाषाई संवेदना और समझ को उनके समकालीन अफ्रीकी साहित्य के चर्चित नाम न्गुगी वा थ्योंगो के बरक्स रख कर परखते हैं और पाते हैं कि जहां न्गुगी अंग्रेजी को छोड़ कर अपनी आदिवासी भाषा की ओर मुड़ गए थे, वहीं मुंडा मुंडारी भाषा में लिखना शुरु किया, 'धीरे धीरे अपनी भाषा छोड़कर हिंदी की ओर मुड़ते गए.' यह बात वृहद परिप्रेक्ष्य में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों पर भी लागू होती है जो प्रसिद्धि और पहुंच के लिए अंग्रेजी पर अपनी नजरें टिकाए रहते हैं.
आज रामदयाल मुंडा के नाम पर झारखंड में कई आयोजन रहे हैं जिसमें उनकी प्रतिमा का अनावरण भी शामिल है. इन प्रतीकात्मक आयोजनों से अलग जरूरत इस बात की है कि मुंडा ने लेखन और सांस्कृतिक कर्म के द्वारा जो अलख जगाया उसे दूर तक पहुँचाया जाए, उनकी कार्य की सम्यक आलोचना हो. एक बुद्धिजीवी को याद करने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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