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- जयंती विशेष सावित्री...

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शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व का ही विकास नहीं करती है बल्कि उसे पुरातन व रूढ़ मान्यताओं के गहरे भंवर से निकालकर प्रकाश की ओर भी लाती है
शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व का ही विकास नहीं करती है बल्कि उसे पुरातन व रूढ़ मान्यताओं के गहरे भंवर से निकालकर प्रकाश की ओर भी लाती है। महिलाओं के संदर्भ में शिक्षा ने यही कार्य किया भी, उन्हें न केवल पुरातन रूढ़ियों की बेड़ियों से आजाद किया वरन् उन्हें एक खुला आसमान दिया। जहां वह अपने सपनों की उड़ान को भर सकीं। उन्नीसवीं सदी से पूर्व तक हमारे ही समाज में स्त्री शिक्षा प्रतिबंधित थी जो थोड़ी बहुत शिक्षा दी भी जाती थी उसका मुख्य केंद्र परिवार व पाक कला में निपुणता थी।
इससे अधिक समाज में स्त्री शिक्षा का कोई व्यवहार नहीं था। समाज में सर्वाधिक महिलाएं बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह का विरोध, अशिक्षा व अंधविश्वास की कुरूतियों से बंधी थी। कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में स्त्री चेतना का स्वर उन्नीसवीं सदी के सुधारवादी आंदोलन से आना प्रारंभ होता है।
बदलता भारत और समाज में होते परिवर्तन
1857 की क्रांति के उपरांत एक नया दौर आया जिसे साहित्य में नवजागरण और सुधारवादी काल कहा गया। इस दौर में सुधारवादी आंदोलन की लहर उभरती है। इस सुधारवादी लहर में कई स्त्री और पुरुष सुधारक उभरते हैं। जिन्होंने विधवा पुनर्विवाह, बहुविवाह, सती प्रथा का विरोध, स्त्री शिक्षा का संवैधानिक अधिकार जैसी मांगों को उठाया था।
इन सुधारवादी आंदोलन की शुरुआत पुरुष विचारकों ने की थी और उसे आगे बढ़ाने का काम महिला सुधारकों ने किया था। राजा राममोहन राय ने बाल विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों का विरोध किया और 20 अगस्त 1828 को ब्रह्म समाज की स्थापना की।
ईश्वरचंद विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह का मुद्दा उठाया और अपनी पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' के माध्यम से उसके सही होने के तथ्य प्रमाणित किए। स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्त्री शिक्षा पर ज़ोर दिया और माना कि स्त्री शिक्षा के अभाव में स्त्री जागृति व चेतना संभव नहीं हैं क्योंकि शिक्षा व्यक्तित्व को गढ़ती है। स्वामी दयानंद सरस्वती, आर्य समाज के संस्थापक थे उन्होंने बहुपत्नी प्रथा का विरोध किया।
स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस मिशन की स्थापना की थी। इन्होंने पाश्चात्य मानदंडो के आधार पर स्त्रियों के मूल्यांकन का विरोध किया था। यह स्त्रियों की शिक्षा के पक्षधर थे, परंतु उतनी ही शिक्षा जिसके माध्यम से वह भारत के प्रति अपने कर्तव्यों को भली-भांति निभा सके व संघमित्रा, लीला, अहिल्याबाई, मीराबाई आदि भारत की महान देवियों की परंपरा को आगे बढ़ा सके एवं वीर प्रसूता बन सके। 'गोविंद रानाडे' प्रार्थना समाज की स्थापना करते हैं, वह महाराष्ट्र में बाल विवाह, स्त्री शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह और स्त्री के अधिकारों का मुद्दा उठाते हैं।
प्रारंभिक दौर के आंदोलन का श्रेय जहां पुरुष सुधारकों को दिया जाता है वहीं उसमें स्त्रियां भी सक्रिय रूप से भागीदार थी। अधिकांशतः जिन्हें नजरअंदाज किया गया था। सावित्रीबाई फुले उस दौर की पहली स्त्री शिक्षिका थी जिन्होंने बालिकाओं की शिक्षा के लिए काम किया था। उनका जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में हुआ था। नौ साल की उम्र में उनका विवाह हो जाता है और 18 वर्ष की उम्र तक आकर वह लड़कियों को पढ़ाना आरंभ कर चुकी थी और अध्यापिका और प्राध्यापिका के रूप में बालिका विद्यालयों में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही थी।
वह एक दृढ़ संकल्पी शिक्षिका के साथ-साथ समाज सुधारक भी थी और व्यक्तिगत स्तर पर कवयित्री भी। सावित्रीबाई फुले ऐसी शख्स थी जिन्होंने समाज द्वारा लड़कियों की शिक्षा के विरोध के बावजूद उन्हें शिक्षित करने का प्रण लिया। उनकी कविताओं में 'अज्ञान', 'शिक्षा के लिए जाग्रत हो जाओ', 'श्रेष्ठ धन', 'अंग्रेजी मय्या', 'अंग्रेजी पढ़ो', 'समूह-संवाद की कविता' आदि कविताओं में स्त्री शिक्षा का स्वर पुरजोर तरीके से उभरता है 'विद्या ही सच्चा धन है/ सभी धन-दौलत से बढ़कर/ जिसके पास है ज्ञान का भंडार/ है वह सच्चा ज्ञानी लोगों की नजरों में'।
सावित्रीबाई फुले, भारत का गौरव
सावित्रीबाई फुले एक स्त्री होने के कारण समाज में स्त्री शिक्षा के विरोध के कारणों को जानती थी,पहला उनका सामाजिक रूढ़िवादी परिवेश जो उन्हें गुलाम बनाए रखने की मानसिकता रखता था ताकि लड़कियाँ शिक्षा से चेतनाशील होकर महिला विरोधी कुप्रथाओं का विरोध न कर सके और दूसरा लड़कियों का अपना परिवार था। परिवार में माता-पिता के बाद बेटी ही घर के सभी कामों में सहयोगी होती है।
घर के खुद से छोटे सभी बच्चों की दूसरी माँ होती है। ऐसे में माता-पिता उसकी शिक्षा को उसके लिए अनुपयोगी मानते थे। वह उस श्रमजनित हाथ को कम नहीं होने देना चाहते थे। और उनकी यह सोच लड़कियों को घर तक सीमित कर देती है।
ऐसे में सावित्रीबाई फुले के समक्ष अपने परिवेश की लड़कियों और उनके माता-पिता को शिक्षा के प्रति जागृत करना एक चुनौतीपूर्ण काम था। और वह इस चुनौती को स्वीकार करती हुई सभी महिलाओं को सखी के रूप में संबोधित करते हुए कहती हैं कि 'स्वाभिमान से जीने के लिए/ पढ़ाई करो पाठशाला की/ इंसानों का सच्चा गहना शिक्षा है/ चलो, पाठशाला जाओ।/ पहला काम पढ़ाई, फिर वक्त मिले तो खेल-कूद/ पढ़ाई से फुर्सत मिले तभी करो घर की साफ़-सफाई/चलो, अब पाठशाला जाओ'। इस तरह सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की शिक्षा के लिए उनके बीच जाकर जागृति अभियान चलाया था।
सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन में प्रतिदिन होने वाले सामाजिक अपमान से आगे बढ़कर स्त्री शिक्षा को मजबूत किया। उन्होंने ज्योतिबा फुले के सहयोग से 1 जनवरी 1848 को पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोला। यह विद्यालय स्त्री शिक्षा की क्रांति पहला स्तंभ बना।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर 'सावित्रीबाई फुले' पर अपने लेख में प्रमिला दंडवते कहतीं हैं कि 1848 का वर्ष दो दृष्टियों से क्रांति का समय था "पहला तो यह कि उस वर्ष मार्क्स और एंजिल्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र (मेनीफैस्टो) प्रकाशित किया, जिसने समूचे विश्व को हिला दिया तथा दुनियाँ भर के सताए व कुचले हुए लाखों लोगों को अपनी नियति बदल डालने के लिए प्रेरित किया; और दूसरा यह कि महाराष्ट्र राज्य के पुणे नगर में शुरू की गई सामाजिक क्रांति की जननी सावित्री बाई फुले ने रुढ़िपंथियों द्वारा किए गए घोर विरोध तथा उनके द्वारा डाली गई दुर्लभ्य बाधाओं के बावजूद प्रथम महिला विद्यालय की नींव रखी।"
लड़कियों की शिक्षा का यह क्रम18 बालिका विद्यालय खोले जाने के साथ एक मिसाल बनकर उभरता है। वह लड़कियों की शिक्षा के साथ ही महिलाओं की शिक्षा के लिए 1849 में पूना में प्रौढ़ शिक्षा केंद्र भी खोलती हैं। वह शिक्षा के माध्यम से महिलाओं के विकास की पुरजोर समर्थक थी।
इतना ही नहीं उन्होंने यौन शोषण के गर्भवती होने वाली बाल विधवाओं की दयनीय स्थिति को देखा और समझा जिसे समाज ने उपभोग किया और आत्महत्या के लिए छोड़ दिया। समाज की इन महिलाओं के लिए प्रसूति गृह खोला गया और उसका नाम रखा गया 'बालहत्या प्रतिबंधक गृह'। सावित्रीबाई फुले ऐसे रुढ़िवादी परिवेश में स्त्री शिक्षा के लिए काम कर रही थी।
आज महिलाएं हर क्षेत्र में आगे हैं और आगे बढ़कर समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही हैं और यह शिक्षा के माध्यम से ही संभव हो सका है। शिक्षा ने स्त्रियों को उनके अधिकार दिए और उनकी सुरक्षा के लिए बुलंद हौसले। मगर कभी सोचा कि आज जिस शिक्षा को वह अपना अधिकार मानती हैं उसका संघर्ष कब और कैसे आरंभ हुआ? और वह कौन थे जिन्होंने स्त्री शिक्षा को उनका अधिकार बनाया।
सावित्रीबाई फुले एक ऐसी ही शख्स है जिन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए न केवल संधर्ष किया बल्कि पहली बार उनके लिए बालिका विद्यालय की भी स्थापना की। वह पहली महिला थी जो बालिकाओं की शिक्षिका भी थी और उनके विद्यालय की संस्थापक भी। आज 3 जनवरी है और आज ही स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने वाली, पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले का जन्मदिन है जिन्होंने स्त्री, शिक्षा व जागृति को लेकर काम किया था।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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